यूं तो यह कई दिनों से जारी किसानों के व्यापक आंदोलन का असर लगता है लेकिन मुख्यमंत्री योगी ने सरकार के कई वरिष्ठ अफसरों को प्रदेश के 75 जिलों में भेजकर ठीक किया ताकि वे देखकर आएं कि जिला स्तर पर धान खरीद केंद्रों से लेकर आवश्यक सुविधाओं का क्या-कैसा हाल है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके प्रत्यक्ष अनुभवों का असर सरकार के काम-काज पर पड़ेगा।
वैसे, वरिष्ठ अधिकारियों को साल में कम से कम एक बार जिलों/गांवों
में भेजने की परिपाटी-सी पहले के मुख्यमंत्री भी निभाते रहे हैं। अक्सर इसका रूप ‘जिलों
में कम से कम एक रात बिताने’ के निर्देश के रूप में होता रहा
है। जिला स्तरीय तैनातियों से ऊपर प्रोन्नत हो चुके अधिकारियों का गांव दौरा कई
बार रोचक और कई हास्यास्पद स्थितियां उत्पन्न करता है। कई अधिकारी सर्किट हाउस की
सुविधाओं में भी बेचैन पाए गए और कई आधी रात बिताकर राजधानी भाग आते रहे या सुबह
चौपाल लगाकर शाम तक लौट आते रहे। कई वर्ष पहले हमने अपने तब के अखबार में एक सचिव
की कार की छत में लखनऊ से कूलर लाद ले जाते हुए फोटो छापा था।
वरिष्ठ अधिकारियों की क्या कहें, गांवों
से तो अब उन नेताओं का भी वास्ता नहीं रहा जो गांव-देहात और दलित-पिछड़ा राजनीति
करते हैं। आज का शायद ही कोई बड़ा नेता दौरे के बाद गांव में रात बिताता हो। चुनावी
दौरा हो या त्योहार-उत्सव, दिन भर ‘जन-सम्पर्क’
के बाद उड़नखटौले नेताओं को राजधानी की सुख-सुविधा पूर्ण ज़िंदगी में
लौटा लाते हैं। दलितों-पिछड़ों के घर भोजन करने का फैशन चल पड़ा है लेकिन कोई उनके
आंगन की खाट पर कोई एक रात नहीं बिता पाता।
विकास और कल्याणकारी योजनाओं में गांवों का खूब उल्लेख होता
है लेकिन लेकिन गांवों और ग्रामीणों की वास्तविक स्थितियों एवं समस्याओं का गहन प्रत्यक्ष
अनुभव न आज के नेताओं को है और न अधिकारियों को। पत्रकारिता तो बहुत पहले उससे कट
गई थी। किसान-किसान का दिन-रात जाप कर रहे इनमें अधिकतर लोग धान और गेहूं की फसल में
फर्क नहीं कर पाते। किस इलाके का ग्रामीण कैसा जीवन जी रहा है या किस तरह बदल गया
है, इस पर ध्यान नहीं है। एक जमीनी पत्रकार साथी ने हाल में बहुत सही टिप्पणी
की थी कि किसान आंदोलन में सरकारी पक्ष जाने-अनजाने 1936 के होरी और गोबर को तलाश
रहा है और ट्रैक्टर पर आए पिज्जा खाते किसानों का मजाक बना रहा है।
सचिवालय स्तर पर गांव-देहात के प्रत्यक्ष अनुभवों और
सम्पर्कों के अभाव ही का परिणाम है कि योजनाओं पर अमल की वस्तुस्थिति छोटे
कर्मचारी-अधिकारी आसानी से फाइलों-घोषणाओं में छुपा ले जाते हैं, झूठे
दावे दस्तावेजी प्रमाण बन जाते हैं और आम जनता मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों-अधिकारियों
के घरों-दफ्तरों के चक्कर काटती है। अन्यथा ‘जनता दरबारों’
की आवश्यकता क्यों पड़नी चाहिए? जनता के मामूली
काम हों या योजनाओं का लाभ, उन्हें अपनी जगह ही क्यों समाधान
नहीं मिलना चाहिए? इस आई टी जमाने में इसे कितना आसान और
पारदर्शी हो जाना चाहिए था। वरिष्ठ अधिकारियों को जिलों में भेजने की वर्तमान
सरकार की पहल नए साल में कुछ प्रभावी रूप लेगी, यह कामना है।
अब हम ‘नए साल’ में हैं। सन 2020 को सबसे बुरा साल कहकर उसे कोसते हुए संदेशों की कई दिन से बाढ़ लगी है। शुभकामनाओं और आशाओं से भरा रहना मनुष्य की जीजीविषा का हिस्सा है, इसलिए सन 2021 का जोर-शोर से स्वागत होना ही चाहिए। किंतु ध्यान दें कि हम 2020 को खारिज नहीं कर सकते। वह बुरा था लेकिन जितना बुरा हो सकता था, उतना नहीं हुआ। वक्त की बेरहमी के किस्से मत कहिए। उससे सीखना है और हर बुरे वक्त को अच्छे में बदलने की सामर्थ्य पर भरोसा रखना है।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 02 जनवरी, 2021)
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