Tuesday, May 10, 2022

'अपनों के बीच अजनबी‌‌' यानी इस समय में मुसलमान होना

अब मैं सिनेमा हॉल में जोर-जोर से राष्ट्रगान गाता हूं ताकि मॉब लिंचिंग की सारी आशंका निर्मूल कर दूं। .... हालांकि मुझे राष्ट्रगान पूरा कंठस्थ है लेकिन बढ़ते हुए हालात में मैंने उसका प्रदर्शन दस गुना ज़्यादा बढ़ा दिया है। वरना अगर मारा गया तो किसी भी अदालत में मुझे निर्दोष साबित नहीं किया जा सकेगा। ऐसा अब मेरा अटूट विश्वास है।”

“अब मैं ऐसे आवरण में जीने लगा हूं जिसे भक्तों की भीड़ पहचान नहीं पाती। मैंने अपने चेहरे पर उभरने वाले मौलिक भावों को तालों में बंद कर दिया है। बदले हुए हालात में अब मैं भूख से मरते हुए आदमी को देखकर भी देश की तारीफ करता हूं। मैं थाली पीट-पीट कर भारत के विश्वगुरु होने की बात करता हूं।”

“रेलगाड़ी में सफर करते हुए पहले बकरे (खस्सी) का कोफ्ता या कबाब लेकर चलना बहुत आम बात थी हमारे लिए। बीफ लेकर तो पहले भी कोई मुसलमान नहीं चलता था। बीफ को बड़ेका भी इसीलिए कहते हैं कि जिनकी भावना उससे जुड़ी है, उन्हें तकलीफ न हो। लेकिन अब जबसे मुसलमानों की लिंचिंग बीफ के नाम पर होने लगी है, तब से एक डर सा बैठ गया है। अब हर जगह जान का खतरा दिखाई देने लगा है। अब एक-एक व्यक्ति निशाने पर है। आप अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं।”

ये उद्धरण हाल ही में प्रकाशित उस किताब से हैं जिसे एक अच्छे मुसलमानने लिखा है। यह अच्छा मुसलमानहिंदी का अच्छा कवि है, नाटककार है और पिछले कई साल से मुम्बई में टीवी और फिल्मों के लिए पटकथा लिख रहा है, जिनमें दूरदर्शन पर प्रसारित उपनिषद गंगाभी शामिल है। “2014 के बाद लोग इसे सहज नहीं समझते। उनके लिए एक मुसलमान का उपनिषदों पर काम करना सुखद आश्चर्य से कम नहीं है।” इसलिए इस लेखक-कवि को अच्छे मुसलमानका प्रमाण पत्र हासिल है- “लोग अक्सर ये कहते पाए जाते हैं कि फरीद वैसा मुसलमान नहीं है। मुसलमान अच्छे भी होते हैं।” जी हां, इस किताबअपनों के बीच अजनबीके लेखक फरीद खां हैं।

बदले हुए भारत देश में साम्प्रदायिक बना दी गई भीड़ के बीच मुसलमान होना कितना डरावना, अपमानजनक और संदेहास्पद हो गया है, यह शायद किसी संवेदनशील गैर-मुसलमान के लिए भी ठीक से समझना मुश्किल होगा। फरीद खां की छोटी-सी यह किताब देश की एक बड़ी आबादी के सबसे बड़े संकट को रेशा-रेशा खोलती है और हर पंक्ति भीतर तक हिला देती है। अगर अभी तक आपके भीतर का नया हिंदू जाग्रत नहीं हुआ है तो यह किताब आपको बताएगी कि यह देश किस दिशा में जा रहा है- “... पहली बार अनुभव हुआ कि पाकिस्तान और हिंदुस्तान में कितनी समानता है। यह भी अनुभव हुआ कि पाकिस्तानियों की तरह यहां के लोग भी अपने देश को पाकिस्तान बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।” यह पढ़ते हुए अगर आपका भाजपाई-संघी-हिंदू भीतर कहीं कुनमुनाने लगे तो बता दूं कि फरीद खां के भीतर बैठा मुसलमान जरा भी पाकिस्तानी नहीं हुआ है- “मुसलमान कौन से दूध के धुले हैं। उनकी साम्प्रदायिकता और फासीवाद ही तो आज का पाकिस्तान भुगत रहा है। भारत में उसका कीड़ा न लगे इसीलिए तो हम इतनी बकबक कर रहे हैं और आपसे जूझ रहे हैं। अगर आप मुझे मुसलमानों का वकील समझ रहे हैं तो आप मेरी बात कभी समझ नहीं पाएंगे।

पूरा खतरा है कि यह किताब मुसलमानों के पक्ष में फरीद खां का वकालतनामा समझा जाए। सच यह है कि यह एक संवेदनशील भारतीय लेखक का हिंदुस्तानियत और इनसानियत के पक्ष में पेश वकालतनामा है। वकालतनामा ही नहीं, पूरी बहस है- विनम्र किंतु उचित आक्रोश से भरी, तार्किक और मार्मिक भी। इसमें उन तमाम सवालों, आशंकाओं, आरोपों और मिथ्या प्रचारों का जवाब मौजूद है, जो भारतीय मुसलमानों के प्रति आज बहुत जोर-शोर से प्रचारित किए जा रहे हैं। फरीद इन सबका तार्किक जवाब देते हैं, कहीं तथ्यों से, कहीं हास्य-व्यंग्य-चुटकी के साथ और कहीं स्वाभाविक आक्रोश से भी। जैसे, मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़े सवाल और आरोप ले लीजिए। एक मित्र ने फरीद से पूछा था, जो कि अक्सर पूछा जाता है, एक ही देश में मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों हो? समान नागरिक संहिता क्यों न हो? फरीद लिखते हैं- “... मैंने सबसे पहले पूछा कि कौन सा कानून मुसलमानों के लिए अलग से है? यह बिल्कुल मूलभूत प्रश्न है। सबसे पहले इसी का जवाब ढूंढना चाहिए। क्या मुसलमानों के लिए अलग से सड़कें बनाई गई हैं? क्या मुसलमानों के लिए अलग से ट्रैफिक नियम हैं? क्या मुसलमानों के लिए सरकार अलग से अदालत लगवाती है? या, क्या मुसलमानों की करेंसी अलग है? … मैंने मित्र से पूछा- आपने शादी की? … उन्होंने जवाब दिया- अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लिए। तो मैंने पूछा कि आपकी शादी वैध है? इस पर उन्होंने संयम खो दिया। किसी को भी इस सवाल पर संयम खो देने का हक है। सवाल ही ऐसा है। मेरा दूसरा सवाल था, मैंने निकाह किया है तो क्या मेरी शादी वैध है? उन्होंने जवाब दिया- निस्संदेह। पूरे समाज के सामने तुमने निकाह किया है। अवैध कैसे होगा? तब मैंने कहा कि हम दोनों की शादियों को कानून वैधता प्रदान करता है, समाज नहीं। उस कानून को ही पर्सनल लॉ कहते हैं जो हमें अपने रीति-रिवाज, धर्मों, परम्पराओं के अनुसार परिवार बसाने का अधिकार देता है। इसी के साथ आपको अपने धर्म, सम्प्रदाय, रीति-रिवाज, संस्कृति के अनुसार जायदाद पर निर्णय लेने का हक भी देता है। यही है पर्सनल लॉ। साथ ही हमारे संविधान में यह भी प्रावधान है कि अगर कोई इनसे अलग जाकर अपना परिवार बसाना चाहता है और अपनी जायदाद का निर्णय लेना जाहता है तो कानून उसका साथ देगा। क्या अब भी आप समान नागरिक संहिता चाहते हैं?”  

इसी तरह मुसलमानों के ज्यादा बच्चे पैदा करने, तीन तलाक, लव जेहाद, कश्मीर में और अन्यत्र आतंकवादियों को समर्थन करने जैसे कई आरोपों, सवालों और आशंकाओं का विश्लेषण करते हुए तार्किक उत्तर फरीद देने की कोशिश करते हैं। वे मुसलमानों की साम्प्रदायिकता और संकीर्णता को भी बख्शते नहीं। साम्प्रदायिकता और धार्मिकता वे बहुत स्पष्ट अंतर करते हैं, जिसकी कुछ मिसालें किताब में हैं।  

फरीद रोजमर्रा के जीवन की घटनाओं को माध्यम बनाकर मुसलमानों के खिलाफ जानबूझकर बनाए गए इस वातावरण की गहरी पड़ताल करते हैं और उसके पीछे के साम्प्रदायिक चेहरे को बेनकाब करते हैं। वे बताते हैं कि “असल में आज की साम्प्रदायिकता एक साथ इतने निशाने साधती है कि जब तक आप  उसका चरित्र निर्धारण करके समझने की कोशिश करें तब तक उसका चरित्र बदल जाता है। वह कहावत  सुनी होगी कि जब तक सच घर से निकलने की सोचता है तब तक झूठ पूरे बाजार में घूम आता है।  साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का चरित्र भी ऐसा ही है। बिना झूठ के साम्प्रदायिकता फैल नहीं  सकती और धर्मनिरपेक्षता सच के अहंकार में बेपरवाही के साथ घर में बैठी होती है। झूठ केवल  तथ्यहीनता से ही नहीं, प्रेमहीनता से भी उपजता है। यानी आप पहले तय करते हैं कि आपको किसका  शिकार करना है। फिर तय होता है कि छिपाना क्या-क्या है और बताना क्या-क्या है।”

समस्या यह है कि इन सवालों, संदेहों, आरोपों के कारण, विश्लेषण और उनके तार्किक उत्तर को सुनने के लिए भी अब जाग्रत हिंदूयानी भाजपा-संघ के अंध-समर्थक तैयार नहीं हैं, समझने की कोशिश करना तो दूर की बात है। "2014 के बाद सकीना ने पाया है कि आप भाजपा समर्थकों से तर्कपूर्ण बहस नहीं कर सकते। भाजपा समर्थक तर्कवादी होएते ही नहीं। वो सिर्फ आपको नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। न तो सझने की कोशिश करते हैं न समझाने की।" साम्प्रदायिक राजनीति ने देश का मानस ही ऐसा तैयार कर दिया है। चंद वर्ष पूर्व आमिर खान ने जब अपनी पत्नी की आशंका को उजागर किया था कि इस माहौल में उन्हें डर लगता है तो कोई भी उसे समझने को तैयार नहीं हुआ था। आमिर खान की खूब मलामत की गई, उन्हें पाक्सितान जाने की सलाह दी गई थी। तबसे नफरत और बढ़ी-फैली है। कई मुखर मुसलमानों’ (उनका कलाकार, वैज्ञानिक, समाज विज्ञानी, आदि होने का कोई अर्थ नहीं होता) के साथ कैसा-कैसा व्यवहार हो चुका है। प्रख्यात अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के साथ भी यही हो रहा है। नसीरुद्दीन शाह ने ही इस किताब की भूमिका लिखी है, जो वर्तमान हालात पर एवतंत्र रूप से भी अत्यंत तार्किक और मार्मिक वक्तव्य है।

इस किताब की बातों को जोर-शोर से खारिज किया जाएगा और तरह-तरह से पलटवार किए जाएंगे। तो भी फरीद खां ने अत्यंत आवश्यक हस्तक्षेप किया है। यह निरंतर होना चाहिए। अंत में यह कहना भी अत्यावश्यक है कि लेखक कतई निराश नहीं हैं, बल्कि उम्मीदों से भरे हैं- “इस देश की आत्मा में दो ऐसी चीजें अंतर्निहित हैं जो हमेशा मुझ में उम्मीद कायम रखती हैं। एक है इस देश का संविधान और दूसरा इस देश का बहुसंख्यक समुदाय यानी हिंदू धर्म।” फरीद जब यह कहते हैं तो वे भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों को नहीं गिनते जो “हिंदू धर्म और समुदाय का उपयोग सत्ता के लोभ में करते हैं।” वे उस हिंदू धर्म से आशा रखते हैं जो “दुनिया का ऐसा अव्वल धर्म है जो इस कदर धर्मनिरपेक्ष है। यह हिंदू धर्म ही भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति के लिए चुनौती है।” किताब का समापन करते हुए वे लिखते हैं- “मैं कभी नहीं भूलता कि नाथूराम गोडसे ने विभाजन के लाभार्थी जिन्ना को नहीं, राम-राम जपने वाले गांधी को मारा था। इसी बिंदु से शुरू करनी चाहिए साम्प्रदायिकता और धार्मिकता के अंतर की बहस।”

-नवीन जोशी, 10 मई, 2022      

(अपनों के बीच अजनबी- फरीद खां। भूमिका- नसीरुद्दीन शाह। प्रकाशक- वाम प्रकाशन। मूल्य-रु 225)

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