समझ में नहीं आता कि बूढ़े होते जाने का असर है या चीजें वास्तव में बदल गई हैं। यही देखिए कि इन दिनों खूब खरबूजा खा रहे हैं। तरबूज खा रहे हैं। खीरा और ककड़ी भी। डॉक्टर भी कहते हैं कि मौसमी चीजें अवश्य खानी चाहिए। खा रहे हैं लेकिन गर्मियों में तरावट देने वाली इन चीजों का स्वाद और खुशबू जैसे खो गई हैं। खरबूज छांटने लगते हैं तो आदतन नाक के पास ले जाकर सूंघते हैं। ठेले वाला कहता है- “बाबू जी, सूंघिए नहीं, ले जाइए। शक्कर है शक्कर!” घर लाकर काटते हैं तो लगता ही नहीं कि खरबूजा काट रहे हैं। बिना खशबू के भी कोई खरबूजा हुआ!
बूढ़ों को पुराने ही दिन याद आते हैं। खरबूजा दरवाजे के भीतर
आया नहीं कि पूरे घर में उसकी अनोखी सुगंध भर जाती थी। पड़ोसी भी जान जाते कि आज जोशी
जी के यहां खरबूजा आया है। मीठा ससुरा हो या नहीं, खुशबू से मन तर हो जाया करता
था। आजकल के खरबूजे इतना रंग बदल चुके हैं कि अपनी खुशबू जाने किस प्रयोगशाला में खो
आए! ठेले वाला बिल्कुल सही कह रहा था, जैसे शक्कर में डूबा रहा
हो! मिलावटी मिठाई को भी मात कर रहा है। आंख बंद करके खरबूजा खरीद लाइए, लगता है चाशनी में डूबा हुआ है लेकिन इसकी खुशबू कहां गई?
फिर वही पुराना राग कि लेकिन क्या तो लखनउवा खरबूजे होते थे
और क्या कनपुरिया! बाहरी छिक्कल का मिजाज, रंग और आकार-प्रकार दूर से ही बता देते थे कि
गोमती की मिट्टी-पानी वाला है या गंगा किनारे वाला। लखनउवा खरबूजा बिल्कुल नवाबी मिजाज
वाला होता था। बिल्कुल पतला छिक्कल, रंगत में वाज़िद वाली शाह
वाली शोखी और स्वाद एवं सुगंध के क्या कहने! कनपुरिया वाला ‘झाड़े
रहो कलक्टरगंज की तरह’ खुरदुरा, मोटा-भोंदा
छिक्कल लेकिन स्वाद और सुगंध में जैसे गंगा तट की भीनी-भीनी हवा उड़ती आई हो। अब क्या
सारे खरबूजों ने रंग बदल लिया?
तरबूज ऐसे आते थे कि एक परिवार एक पूरा तरबूज नहीं खरीद पाता
था। दाम के मारे नहीं, आकार के कारण। इतना बड़ा कि बाजार से हाथों में
उठाकर लाना मुश्किल होता था। दो-तीन परिवार साझा करके एक तरबूज खरीदते थे और सामूहिक
उत्सव रचता था। अकेले-दुकेले हों तो फिर ठेले में बिकते ‘एक आने
को लालो-लाल’ ‘दस पैसे को लालो-लाल’ का
सहारा होता था। ‘ठेले पर ‘हिमालय’
और उस पर हरे-हरे पत्तों में सजे लाल-लाल तिकोने टुकड़े राह चलतों के
मुंह में पानी भर देते थे। ऊपर से नमक-मसाले का छिड़काव स्वाद और तरावट दोगुना कर देता
था। हैजा होने के खतरे के बावजूद लोग खाते ही थे। अब तो कभी-कभी भ्रम होने लगता है
कि तरबूज है या खरबूज। और, मौसम दूसरा न होता तो अमरूद भी समझा
जा सकता था! आकार-प्रकार और रंगत के अंतर गायब ही हो गए!
कहां गई वे सारी फसलें? और, स्वाद और रंग और गंध? यह बुढ़ापा पूछ रहा है या जमाना
सचमुच ऐसा आ गया कि हमारी थाली और रसोई और बगीचे सब ‘हैक’
हो गए? ‘देसी’ चीजें सब गायब
हो गईं। फालसे, फिरनी, बड़हल, कमरख, वगैरह प्रयोगशाला में शायद नहीं पहुंचे तो वैसे
ही बने हुए हैं, अगर कहीं दिख गए तो, जैसे
हमारे बचपन में होते थे। बाकी तरबूज, खरबूज, आम, अमरूद, खीरा, आदि-आदि प्रयोगशालाओं से नया जन्म ले आए। विज्ञानियों ने अपनी समझ से ठीक ही
किया होगा, उगाना आसान हुआ होगा, रोग-दोष
निवारण किया होगा, बीज और गुठली कम किए होंगे, मिठास और गुण भी बढ़ाए होंगे। तभी न ‘हनी ड्यू’
जैसे विलायती नाम रखे हैं। मगर हमारे वाले गंगा-गोमती के तरबूज-खरबूज
तो खो गए न!
(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 मई, 2022)
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