अपनी राजधानी, लखनऊ के मुहल्लों में पिछले कई साल से टाइल्स प्रतिद्वंद्विता चल रही है। पक्का विश्वास है कि प्रदेश के अन्य नगर निगमों, नगर महापालिकाओं, आदि में भी जरूर चल रही होगी। मकानों के आगे, फुटपाथ और गलियों-रास्तों-पार्कों में धड़ल्ले से ‘इण्टरलॉकिंग टाइल्स’ बिछाए जा रहे हैं। कहीं मिट्टी यानी कच्ची जमीन न दिखने पाए। पाटो-पाटो! टाइल्स विकास का प्रतीक बन गए हैं। मिट्टी से बैर हो गया है। मिट्टी पिछड़ेपन की निशानी है। चमकदार टाइल्स मुहल्लों की शान बढ़ाते हैं।
जिस किसी कॉलोनी में टाइल्स नहीं बिछे होते, या कोई
गली, सड़क अथवा घर की अघाड़ी-पिछाड़ी छूट गई हो, वहां के नागरिक इसके लिए सभासद और मेयर, यहां तक कि नगर
विकास मंत्री के यहां भी दौड़ लगाते हैं। जिसके घर के सामने टाइल्स पुराने पड़ गए हैं,
वह नए लगवाने के लिए दौड़ता है। घर के आगे चमकदार टाइल्स प्रभुत्व की
निशानी बन गए हैं। लखनऊ ने इतनी तरक्की कर ली है कि सड़क के दोनों तरफ शायद ही कहीं
मिट्टी और घास दिखाई दे। मिट्टी तो छी-छी है!
रास्ते और फुटपाथ छोड़िए, जनता अपने पार्कों में भी
टाइल्स लगवाने के लिए जोर लगवाती है। ‘वॉकिंग ट्रेक’ कहते हैं उसे, जहां पार्क में चारों तरफ टहलने के लिए
टाइल्स बिछे हों। कच्ची मिट्टी में कौन घूमे! ब्रांडेड जूते गंदे होते होंगे। हड्डी
रोग विशेषज्ञ एक मित्र किसी रोगी को सलाह दे रहे थे कि घुटनों में दर्द से बचने के
लिए कच्ची जमीन पर चलिए। सड़क या टाइल्स के ऊपर दौड़ने या तेज-तेज चलने से एक उम्र के
बाद नुकसान होता है। लेकिन ना, जिनके पार्क में टाइल्स वाला ‘वॉकिंग ट्रेक’ न बना हो वह अपने को दीन-हीन समझता है।
कोई डेढ़-दो दशक पहले यह विकास-रोग शुरू हुआ था। तब सुना था कि
हर सरकार में मंत्रिपद सुशोभित करने वाले एक नेता ने ‘इण्टरलॉकिंग
टाइल्स’ की फैक्ट्री लगाई। उसके बाद उनका और शहर का बहुत तेज
विकास हुआ। यह देख कई विधायक, सभासद, अफसर
आदि इस धंधे में आते गए। इस तरह शहर को चमकाने की अभूतपूर्व प्रतियोगिता चल पड़ी। जब
सारे फुटपाथ, मुहल्ले वगैरह टाइल्समय हो गए तो, पुराने टाइल्स को बदलकर नए लगवाने की होड़ शुरू हुई। आज भी जगह-जगह आप अच्छे-भले
लेकिन पुराने पड़ चुके टाइल्स को उखाड़कर नए बिछाए जाते देख सकते हैं। ओएफसी केबल,
सीवर लाइन, पेयजल लाइन, पीएनजी
लाइन, आदि-आदि बिछाने के लिए भी बार-बार खोदे जाने और फिर नए-नए
लगवाने का अवसर उपस्थित हो ही जाता है।
मिट्टी को दुश्मन समझने या कहिए कि टाइल्स का धंधा चमकाने का
एक बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि सड़क किनारे पेड़-पौधे लगाने की जगह खत्म होती गई। पहले
से लगे पेड़-पौधों का गला टाइल्स ने घोंट दिया। वे धीरे-धीरे सूखने लगे या हलकी-सी आंधी
में भी गिरने लगे। एक तरफ वृक्षारोपण का विश्व कीर्तिमान बनता है, दूसरी
तरफ पेड़-पौधों की जड़ों से फैलने-बढ़ने की जगह छीनी जाती है। पुराने लोगों को याद होगा
कि शहर की सड़कों के किनारे कितने बड़े-बड़े और विभिन्न प्रजातियों के पेड़ होते थे। अब
सजावटी पौधे भी मुश्किल से उग पाते हैं। बारिश का पानी धरती के भीतर रिसे तो कैसे!
जरा-सी वर्षा में नालियां-सड़कें क्या इसीलिए उफन नहीं पड़तीं?
जो पीढ़ी मिट्टी में खेल-कूद कर बड़ी हुई, उसकी संतानें मिट्टी के स्पर्श से भी वंचित हैं। पिछले साल पीजीआई के गेस्ट्रॉलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ उदय घोषाल ने एक सेमीनार में कहा था कि बच्चों को मिट्टी में खेलने दीजिए। इससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। अब पेड़ की जड़ों को ही मिट्टी सुलभ नहीं है। बच्चों के लिए तो वह सर्वथा वर्जित बना दी गई है।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 14 मई, 2022)
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