Friday, December 21, 2018

कौन सी जन सेवा करते हैं विधायक?



गुरुवार को विधान परिषद में मात्र 28 मिनट में अनुपूरक बजट और चार विधेयक पारित कर दिये गये. इन पर कोई चर्चा नहीं हुई. हाल के वर्षों में दोनों सदनों का यही हाल रहा है. 70 के दशक तक यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि बिना चर्चा के बजट या महत्त्वपूर्ण विधेयक पास हो जाएं. खूब विचार-विमर्श, तीखी बहसें और विद्वतापूर्ण वक्तव्य होते थे. अब तो सदन की बैठकें ही बहुत कम होने लगी हैं.

सन 2018 बीत रहा है. गुरुवार तक प्रदेश विधान सभा की कुल 21 बैठकें हुईं हैं. भाजपा जब विपक्ष में थी तो अक्सर सरकार की तीखी आलोचना करती थी कि वह विधानमण्डल की कम से कम बैठकें करके जरूरी मुद्दों पर बहस से बचती है, इस तरह लोकतंत्र की हत्या की जा रही है. तब उसका तर्क होता था कि नियमानुसार साल भर में कम से कम 90 बैठकें तो होनी ही चाहिए.

आज भाजपा सत्तारूढ़ है तो वह भी दूसरे दलों की तरह व्यवहार कर रही है. विधान परिषद की तो मात्र 17 बैठकें हुईं हैं. अब विपक्ष वैसे ही आरोप लगा रहा है जैसे पहले भाजपा लगाया करती थी. इस पर गुरुवार को विधान सभा में संसदीय कार्य मंत्री का उत्तर आश्चर्यजनक था. आंकड़े देकर उन्होंने बताया  कि सपा और बसपा ने अपने कार्यकाल में भी सदन बहुत कम दिन चलाये. जिनके घर शीशे के होते हैं वे हवा में पत्थर नहीं उछालते.  
दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सन 1997 से आज तक किसी सरकार ने 48 दिन से ज्यादा सदन नहीं चलाया. 2017 में मात्र 17 दिन, 2016 में 24 दिन और 2015 में 27 दिन विधान सभा बैठी. न्यूनतम 90 बैठकों का नियम शायद सभी भूल गये. नयी पीढ़ी के विधायकों को शायद इस नियम की जानकारी भी न हो. जरूरी विधेयक बिना चर्चा के पास करा दिये जाते हैं. कभी-कभी तो बजट प्रस्ताव भी हंगामे के बीच पास मान लिये जाते हैं.

इस मामले में सभी राज्यों का हाल ऐसा ही है. सिर्फ केरल विधान सभा अपवाद है. 2017 में उसकी 151 बैठकें हुईं थीं. केरल वैसे भी कई मामलों में अन्य राज्यों को आईना दिखाया करता है. बाकी राज्यों का हाल उत्तर प्रदेश जैसा ही है.

राजनीति में ऐसे व्यक्ति आ गये हैं जिन्हें जनता की समस्याओं से विशेष लेना-देना नहीं रहा या उनसे निपटने के उनके अपने तरीके हैं. उनके लिए संसदीय व्यवस्था चुनाव जीतने तक सीमित है. पढ़ने-लिखने से कोई वास्ता नहीं, विधायी नियमों-व्यवस्थाओं की उन्हें जरूरत ही नहीं पड़ती. उत्तर प्रदेश विधान सभा के समृद्ध पुस्तकालय में शायद ही कोई विधायक जाता हो या संदर्भ सामग्री मंगाता हो. सदन बैठे, चर्चा और बहसें हों तो इस सामग्री की जरूरत भी पड़े.

राज्यपाल का उत्तरदायित्व होता है कि वे सदन की बैठकों के बीच छह महीने से अधिक अंतराल न होने दें. वे समय पर सदन की बैठकें बुलाते हैं. यह दायित्व सरकार का है कि वह कितने दिन सदन चलाए. कई बार तो सदन बैठने की औपचारिकता निपटा कर ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिये जाते हैं.

सवाल है कि निर्वाचित विधायकों का मुख्य उत्तरदायित्व क्या है? अगर वे अपना अधिकतम समय सदन को नहीं देते तो फिर वह कौन सी जन सेवा करने के लिए लालायित रहते हैं? चुनाव लड़ने और किसी भी कीमत पर जीतने का उनका उद्देश्य क्या होता है? जनता का अनुभव बताता है कि वे अपने क्षेत्र में भी कम ही दिखाई देते हैं. कहावत ही बन गयी है कि नेता जी के दर्शन पांच साल बाद ही होते हैं. 

फिर वे कैसी जन सेवाकरते हैं?

(सिटी तमाशा, 22 दिसम्बर, 2018)
 




No comments: