ताज़ा विधान सभा चुनाव परिणामों
का विश्लेषण साबित करता है कि जमीन पर भाजपा की पराजय कहीं ज्यादा बड़ी है. हाल
के वर्षों में जनता में उसका अस्वीकार बढ़ा है. चुनाव परिणामों से लगता है राजस्थान
और मध्य प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस का जबर्दस्त मुकाबला किया. वस्तुत: ऐसा है
नहीं. बहुकोणीय मुकाबलों के कारण भाजपा की
उतनी बड़ी पराजय नहीं हो पायी जितनी उसके खिलाफ पड़े मतों के कारण होनी चाहिए थी.
कांग्रेस की विजय इसीलिए मुश्किल दिखाई दी.
मध्य प्रदेश की दस सीटें ऐसी हैं
जहां बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों को मिले मत कांग्रेस प्रत्याशियों की हार
के अन्तर से ज्यादा हैं. कुछ अन्य सीटों पर सपा,
बसपा और गोण्डवाना पार्टी ने मिलकर कांग्रेस का विजय रथ रोका. यानी मध्य प्रदेश
में ‘भाजपा की कड़ी टक्कर’ का कारण
विरोधी मतों का बँट जाना रहा. ‘नोटा’ वोटों
से भी भाजपा का अस्वीकार झलकता है. 22 सीटें ऐसी हैं जहां ‘नोटा’
वोट जीत के अंतर से ज्यादा रहे. यानी इन 22 सीटों पर कांग्रेस
मतदाता को स्वीकार्य नहीं थी लेकिन उन्होंने भाजपा को साफ तौर पर खारिज किया. इस
तरह देखा जाए तो भाजपा को मिली 109 सीटें वास्तव में 70-75 ही बैठती हैं, जहां के मतदाताओं ने उसे स्वीकार किया है.
राजस्थान का हाल भी कुछ ऐसा ही है. कांग्रेस
को 99, बसपा को 6 और अन्य को 21 सीटें मिली.
यानी 126 सीटों पर भाजपा हारी जबकि मुकाबला यहां भी बहुकोणीय था. भाजपा विरोधी वोट
आपस में कटे. मिलकर लड़ने में राज्स्थान में भाजपा का वैसा ही सफाया हुआ होता जैसा छतीसगढ़
में हुआ. ‘नोटा’ वोटों को गिनें तो
भाजपा की अस्वीकार्यता और बढ़ जाती है. किसी-किसी सीट पर ‘नोटा’
वोट 11 हजार तक थे. ये वोट मुख्यत: सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ ही
माने जाते हैं.
छत्तीसगढ़ में तो भाजपा को मतदाताओं
ने बड़े पैमाने पर खारिज किया है. उसे सिर्फ 15 सीटें मिली हैं. इनमें भी 12 सीटें
वह इसलिए जीत पाई क्योंकि अजित जोगी की पार्टी और बसपा के गठबन्धन ने विरोधी वोट
काट लिए. इस गठबन्धन को कांग्रेस प्रत्याशियों की हार के अंतर से ज्यादा वोट मिले.
यानी वे कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े होते तो भाजपा मात्र तीन सीटें जीतती.
मतदाताओं ने भाजपा को किस कदर
नामंजूर किया है, यह इससे पता चलता है कि मध्य
प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे उसके मजबूत दुर्ग ढह गये. राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड ऐसे राज्य हैं जहां बारी-बारी से भाजपा और
कांग्रेस जीतती रही हैं मगर गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़
उसके सदाबहार तारणहार रहे हैं. ये राज्य भाजपा को कांग्रेस लहर में भी जिताते रहे
हैं. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह पंद्रह साल से काबिज थी.
मध्य प्रदेश में भाजपा विरोधी बड़े
रुझान का संकेत विदिशा सीट से मिलता है. 1980 में अपने जन्म के बाद से यह विधान
सभा सीट भाजपा कभी नहीं हारी. इस बार कांग्रेस प्रत्याशी वहां 15 हजार से ज्यादा
वोटों से जीता है. विदिशा लोक सीट से अटल विहारी बाजपेयी,
सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान जैसे दिग्गज जीतते रहे हैं. विदिशा की हार से भाजपा विरोध की तीव्रता का
पता चलता है.
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा
की पराजय एक और महत्त्वपूर्ण संकेत देती है. इन राज्यों में मुसलमान मतदाताओं का
प्रतिशत क्रमश: मात्र 6.57 और 2.2 है. यानी देश में मुस्लिम वोटरों के लिहाज से
सबसे कम. हिंदू मतदाता बहुल इन राज्यों में भाजपा की पराजय बताती है कि भाजपा
हिंदुओं की स्वाभाविक पसंद नहीं मानी जा सकती. हिंदुत्त्व, राष्ट्रवाद,
गोरक्षा और राम मंदिर जैसे भड़काऊ मुद्दे उन्हें खुश रखने में लम्बे
समय तक कामयाब नहीं होंगे.
यह बात भी निर्विवाद रूप से साबित
हुई है कि 2019 में भाजपा को हराने के लिए जो भी मोर्चा या गठबंधन बने,
कांग्रेस ही उसकी धुरी बन सकती है. उसके बिना भाजपा का राष्ट्रीय
विकल्प नहीं बन पाएगा. मायावती और अखिलेश यादव ने प्रकारांतर से और शरद पवार ने
सीधे-सीधे यह बात तुरंत मान भी ली है.
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