Thursday, December 27, 2018

छोटे दल और गठबन्धन के लड्डू


रामविलास पासवान ने एनडीए से गठबन्धन में शामिल रहने की मनमाफिक कीमत वसूल ली. उन्हें खुश करने के लिए भाजपा को अपने हिस्से में कटौती करनी पड़ी. उससे पहले उपेंद्र कुशवाहा सौदा नहीं पटने पर गठबंधन छोड़ कर विपक्षी यूपीए में शामिल हो गये. ऐसा करने से पहले उन्होंने लम्बी नाराजगी दिखाते हुए सौदेबाजी की पूरी कोशिश की. नीतीश कुमार से छत्तीस का रिश्ता होने के कारण उनके पास ज्यादा जोर था भी नहीं.

उत्तर प्रदेश में अपना दल की नेता और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की नाराजगी बिल्कुल नई है. अचानक ही उन्हें लगने लगा है कि एनडीए में उनकी हैसियत आलू के बोरेकी तरह रही है जिसे एक कोने में रख देने के बाद कोई झांकता तक नहीं. रामविलास पासवान को मिली बेहतरीन डील के बाद यूपी में कुर्मियों की नेतागीरी की दावेदारी करने वाले अपना दल की नेता को लगने लगा है कि यह बढ़िया मौका है. मोदी की बजाय उनकी पार्टी मायावती की तारीफ करने लगी है. इस घोषणा के बाद अमित शाह के कान खड़े हुए हैं, उन्होंने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष को उन्हें मनाने में लगा दिया है.

उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में शामिल सुहेलदेव राजभर पार्टी के नेता और केबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर करीब साल भर से भाजपा से बहुत नाराज हैं. योगी-मोदी सरकार की आलोचना करते रहते हैं. इधर कुछ समय से उनके बयान ज्यादा आक्रामक होने लगे हैं. भाजपा उन्हें मंत्रिमण्डल से निकालना तो दूर, चेतावनी देने का साहस भी नहीं कर पा रही.

आम चुनाव बिल्कुल नजदीक हैं. चूंकि भाजपा 2014 जैसा प्रदर्शन दोहराने की उम्मीद नहीं कर सकती, इसलिए गठबंधन में शामिल छोटे दल अकड़ दिखाने लगे हैं. वे अपने समर्थन की पूरी कीमत चाहते हैं. भाजपा सबको खुश करने की स्थिति में नहीं होगी लेकिन वह इस नाजुक समय पर उनकी नाराजगी भी मोल नहीं ले सकती.

उधर, कांग्रेस भी विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों के अलावा छोटे दलों को साथ लेने के लिए हाथ-पैर मार रही है. भाजपा को सत्ता बचानी है और कांग्रेस उसे छीनने की पुरजोर कोशिश में है. इसलिए क्षेत्रीय क्षत्रप ही नहीं एक-दो सीटें जीत सकने वाले छोटे जातीय समूहों के नेता भी अपने पाले में करने जरूरी हो गये हैं. 

साल 2014 का चुनाव भाजपा ने करीब 35 विभिन्न दलों का गठबंधन बनाकर लड़ा था. 1996 में 12 दलों का गठबंधन था, 1998 में यह संख्या 18 हुई जो 1999 में 24 तक पहुँच गयी थी. पिछले चुनाव में आशा के विपरीत अकेले  बहुमत मिल जाने के बावजूद भाजपा ने सभी साथी दलों को जोड़े रखा. जो दल चंद सीटें जीत सके और जातीय गोलबंदी के हिसाब से महत्त्वपूर्ण हैं उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह दी. पिछले चार वर्षों में कुछ दल अपने कारणों से एनडीए से अलग भी हो गये.  

चूंकि भारतीय राजनीति पूरी तरह धर्म और जाति केंद्रित होती गयी, इस कारण कतिपय जातीय-धार्मिक समूहों के नेता अपने-अपने समुदायों में लोकप्रिय बन कर चुनाव जीतने में विशेषज्ञता हासिल कर चुके हैं. मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद मध्य जातियों के उभार से उनकी राजनीति और चमकती गयी. लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं.  बिहार में लालू या नीतीश की तरह वे बड़ी पार्टी नहीं खड़ी कर सके लेकिन 1977 से आज तक केंद्र में हर गठबन्धन या मोर्चे के लिए महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं. बिहार की राजनीति में कोई भी गठबंधन उनकी उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं रहता. यही कारण है कि अमित शाह को उनकी सारी मांगें माननी पड़ी हैं.

उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली ओबीसी जातियों को समाजवादी पार्टी ने और दलित एवं अत्यंत पिछड़ी जातियों को बहुजन समाज पार्टी ने गोलबंद कर लिया. दोनों ही बड़ी ताकतवर पार्टियां बन गईं. कालांतर में निजी महत्त्वाकांक्षाओं से पीस पार्टी, अपना दल सुहेलदेव राजभर पार्टी, आदि का जन्म हुआ.

इन दलों के सहयोग से 2014 और 2017 में भाजपा ने भारी विजय हासिल की. 2019 के लिए ये छोटे दल और भी महत्त्वपूर्ण हो गए हैं. बल्कि, इन दलों के भीतर आपस में भी इसलिए संग्राम छिड़ा हुआ है कि सौदेबाजे में अपने-अपने गुट के लिए अधिक से अधिक हिस्सा हासिल कर लिया जाए.

पहले के छिट-पुट उदाहरणों के बाद हम 1984 से लगातार देश में गठबन्धन की राजनीति देखते आये हैं. ये गठबन्धन दो तरह के हैं. पहला वह जिसमें एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कई छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर सरकार चलाती रही. जैसे यूपीए या एनडीए, जिनमें कांग्रेस और भाजपा क्रमश: बड़ी पार्टी के रूप में उसकी धुरी बनीं. दूसरी तरह के गठबंधनों में कोई भी पार्टी बड़ी ताकत नहीं रही. कोई 60 सदस्यों वाला दल गठबन्धन की धुरी नहीं बन पाता, जैसे जनता पार्टी, जनता दल और संयुक्त मोर्चा के समय हुआ.

दूसरी तरह के गठबंधन एकदलीय वर्चस्व  पर नियंत्रण का काम करते हैं और क्षेत्रीय दलों को मुख्य धारा में आने का अवसर देते हैं; लेकिन वे राजनैतिक स्थायित्व नहीं दे पाते. देश को जल्दी-जल्दी चुनावों का सामना करना पड़ता है. दीर्घकालीन नीतियां और विकास कार्य प्रभावित होते हैं. न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी लागू नहीं हो पाते.

पहली तरह के गठबंधन, जिसमें एक बड़ी पार्टी धुरी होती है लेकिन बहुमत के लिए छोटे-छोटे दलों पर निर्भर करती है, स्वार्थपूर्ण राजनैतिक सौदेबाजी को ही बढ़ावा देती है जो न लोकतंत्र होता  है, न कोई राजनैतिक विचार. इस समय भी कुछ राज्यों में हम एक-दो सदस्यीय दलों से गठबंधन के उदाहरण देख रहे हैं.  

जाति विशेष के वोटों पर टिके ये छोटे दल अपनी जाति के लोगों का कितना भला कर पाए, यह तो शोध का विषय होगा लेकिन ऐसी लगभग सभी पार्टियां पारिवारिक सम्पत्ति बनती चली गईं. रामविलास पासवान ने बेटे के हाथ कमान सौंप दी है लेकिन अपना दल पर अधिकार को लेकर माँ-बेटी में जंग छिड़ी है. बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी भी बगावत झेल रही है. इन नेताओं की सौदेबाजी का क्या कोई जनहित-पक्ष भी होता होगा?

जाति-आधारित इन लघु दलों का अस्तित्व मूलत: जनता में शिक्षा और जागरूकता की कमी से ही है. कभी गरीब, शोषित-उत्पीड़ित जनता के पक्ष में वामपंथी पार्टियां गांव-स्तर तक सक्रिय रहती थीं. क्या यह वामपंथियों की विफलता है कि शोषित-उत्पीड़ित जनता जातीय झण्डों के नीचे एकत्र हो गयी? या क्या जातीय गौरव-बोध के जागरण ने वामपंथ और समाजवाद की जमीन खोखली कर दी? भूख, बेरोजगारी, अन्याय, गैर-बराबरी के मुद्दों के लिए जनता को गोलबंद करने वाले क्यों विफल होते गये? इन समस्याओं से त्रस्त जनता पर जातीय-अस्मिता क्यों हावी हो गयी? क्या उसमें मुक्ति और बराबरी को कोई रास्ता दिखाई देता है?   
  

     

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