रंगमंच और फिल्मी दुनिया के मशहूर
अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के एक ताज़ा बयान से संघी हिंदुत्त्व की धारा में
जाने-अनजाने बह रहे कथित राष्ट्रवादियों को जहर उगलने का नया मौका मिल गया है.
सोशल मीडिया में खुल कर और मुख्य धारा की मीडिया में भी काफी हद तक नसीरुद्दीन के
खिलाफ उग्र बयानों और गाली गलौज की बाढ़-सी आयी हुई है.
इस विष-वमन के लिए इस प्रतिबद्ध अभिनेता
के बयान को मन मुताबिक खूब तोड़ा-मरोड़ा गया है. नमूने के तौर पर डीबी (दैनिक भारत)
न्यूज की पोस्ट देखिए, जिसमें 20 दिसम्बर
को पोस्ट किया गया- “भारत रहने लायक देश नहीं है. मुझे तो अपने बच्चों के लिए डर
लगता है. घटिया देश है भारत- नसीरुद्दीन शाह.”
इस पोस्ट को उसी दिन 767 लाइक मिले,
530 बार इसे शेयर किया गया और 11 हज़ार टिप्प्णियां की गईं जिनमें “जा भड़वे, किसने रोका है” जैसी गालियों की भरमार थी.
दैनिक भारत ने इसी शीर्षक से नसीरुद्दीन का कथित बयान प्रकाशित भी किया.
इसी तरह के हजारों पोस्ट फेसबुक और
ट्विटर पर भी चले और अब भी चल रहे हैं. नसीरुद्दीन शाह के वास्तविक बयान को सामने
रख कर उसका बचाव करने वालों को भी खूब गालियां पड़ रही हैं. उन्हें भी पाकिस्तान
जाने की सलाह दी जा रही है.
किसी ने जानने-समझने की कोशिश नहीं
की कि नसीरुद्दीन ने वास्तव में क्या कहा, किस
संदर्भ में कहा और उनका मन्तव्य क्या था. या, शायद शाह के
बयान को सही शब्दों और संदर्भ में देखने से राष्ट्रवादियों के जहर फैलाने के
मंसूबे धरे रह जाते. उन्हें तो मौका चाहिए, कोई भी मौका वे
छोड़ते नहीं.
आमिर खान के एक बयान पर पिछले साल
कैसा और कितना बवाल मचाया गया था. उन्हें राष्ट्रद्रोही
घोषित करके सपत्नीक पाकिस्तान जाने के फतवे सुनाये गये थे.
पहले देखते हैं कि नसीरुद्दीन ने
क्या कहा था. वे “कारवाँ-ए-मुहब्बत इण्डिया’’ नामक यू-ट्यूब चैनल से बातचीत कर रहे थे. इस इण्टरव्यू में देश में
साम्प्रदायिक वातावरण की चर्चा करते हुए उन्होंने बुलंदशहर की हाल की घटना का
जिक्र करते हुए कहा था-
“...हमने हाल में देखा
कि आज के भारत में गाय की मौत एक पुलिस अधिकारी की मौत से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो
जाती है. ….
“हमने अपने बच्चों को मज़हबी तालीम बिल्कुल भी नहीं दी. मेरा ये
मानना है कि अच्छाई और बुराई का मज़हब से कोई लेना देना नहीं है. अच्छाई और बुराई
के बारे में जरूर उनको सिखाया . हमारे जो विलीव्स हैं , दुनिया के बारे में हमने उनको
सिखाया . क़ुरान की एक आध आयतें जरूर सिखाई क्योंकि मेरा मानना है कि उसे पढ़कर तलफ्फुज सुधरता है , जैसे हिन्दी का सुधरता है रामायण या महाभारत पढ़कर....
“फ़िक्र होती है मुझे अपने बच्चों के बारे में .
कल को अगर उन्हें भीड़ ने घेर लिया कि तुम हिन्दू हो या मुसलमान? तो उनके पास तो कोई जवाब ही नहीं होगा क्योंकि हालात जल्दी सुधरते मुझे
नज़र नहीं आ रहे हैं .
“इन बातों से मुझे डर नहीं लगता . ग़ुस्सा आता है
. मैं चाहता हूँ कि हर राइट थिंकिंग इंसान को ग़ुस्सा आना चाहिए . डर नहीं लगना
चाहिए . हमारा घर है . हमें कौन निकाल सकता है यहाँ से.”
नसीरुद्दीन ने क्या गलत कह दिया?
किस पर लांछन लगा दिया? किस पार्टी या किस
नेता की व्यक्तिगत आलोचना कर दी? क्या उन्होंने इस देश को ‘घटिया’ कहा है? इस बयान से देश
की निंदा होती है? यह राष्ट्रद्रोही बयान है?
वास्तव में यह बयान इस देश के एक
जिम्मेदार और सम्वेदनशील नागरिक की चिंता है. जैसा माहौल आज देश में बन गया है या
जानबूझ कर बनाया जा रहा है उसमें किसी भी संवेदनशील
नागरिक का चिंतित होना स्वाभाविक है. वे मुसलमान नागरिक के रूप में चिंतित नहीं
हैं, न ही इस देश के मुसलमानों का डर बयां
कर रहे हैं.
जब गाय की हत्या पुलिस अधिकारी की
हत्या से बड़ी बना दी जाती है, जब
रास्ता रोक कर आपका धर्म पूछ कर हमला किया जाता है, जब किसी
की रसोई में घुस कर वहाँ गोमांस मिलने की अफवाह फैला कर उसे मार डाला जाए, जब किसी निरपराध को ट्रेन में कत्ल कर दिया जाए क्योंकि वह दूसरे धर्म का
है, जब किसी गोपालक को गोहत्यारा घोषित करके भीड़ को उकसा कर
उसे मरवा दिया जाए, तब किसी भी नागरिक को चिंतित और गुस्सा क्यों
नहीं होना चाहिए?
क्योंकि ‘नसीरुद्दीन शाह’ एक मुसलमान नाम है, इसलिए उनके बयान को कुछ का कुछ बना दिया जाएगा? उसके
अर्थ का अनर्थ किया जाएगा? देश और समाज के प्रति उनकी दिली
चिंता को देशद्रोह बताया जाएगा?
देखिए कि नसीरुद्दीन कितनी बड़ी और
जिम्मेदाराना बात कहते हैं - इन बातों से मुझे डर नहीं लगता. ग़ुस्सा
आता है. मैं चाहता हूँ कि हर राइट थिंकिंग इंसान को ग़ुस्सा आना चाहिए.
गौर कीजिए कि वे डर की बात नहीं कहते, गुस्से की बात कहते हैं. डरने की क्या बात है. यह उनका घर है. घर के हालात
पर चिंता नहीं होगी? गुस्सा नहीं आएगा? आना ही चाहिए और वे ठीक कहते हैं कि हर हर राइट थिंकिंग इंसान को
ग़ुस्सा आना चाहिए .
क्यों डरेंगे नसीरुद्दीन? आखिर यह उनका देश है. हाँ, वे चिंतित हैं. उनकी
चिंता और गुस्सा वास्तव में इस देश के प्रति उनका प्यार है. ‘यह हमारा घर है. हमें कौन निकाल सकता है यहाँ से?’ और ये कथित राष्ट्रवादी
उन्हें देशद्रोही करार दिए दे रहे हैं.
इन हिंदुत्ववादियों को,
जिनका हिंदू धर्म से वास्तव में कुछ लेना-देना नहीं है, नसीरुद्दीन में सिर्फ एक मुसलमान दिखाई देता है और उनके अनुसार मुसलमान तो
देशप्रेमी हो नहीं सकता.
क्या यह चिन्ताजनक बात नहीं है कि वे
एक मुसलमान को इस देश का जिम्मेदार और
समर्पित नागरिक नहीं मानते जो किसी भी देश प्रेमी नागरिक की तरह इस मुल्क से
बेपनाह प्यार करता है और इसके बिगड़ते हालात के लिए चिंतित रहता है और गुस्सा
भी करता है. इस देश के मुसलमान नागरिक को
देश के हालात पर चिंता और गुस्सा करके का हक नहीं है?
बड़ी चिंता की बात यह भी है कि
हिंदुत्त्ववादियों के इस कुप्रचार से सीधे-सरल नागरिक भी भरमा गये हैं. वे नसीर के
बयान को ‘राष्ट्रद्रोह’ भले न मानें, उसे गैर-जिम्मेदाराना और राजनीति
प्रेरित मान रहे हैं. उन्हें इस बयान में मोदी-विरोध दिखाई दे रहा है. वे पूछ रहे हैं
कि नसीरुद्दीन को पहले क्यों डर नहीं लगा? नसीरुद्दीन तो सबसे
सुरक्षित लोगों में हैं. या वे एक-दो
घटनाओं के बहाने पूरे देश को बदनाम कर रहे हैं.
अनुपम खेर, रामदेव और भाजपा-संघ के नेताओं के उत्तेजक बयान आग में घी का काम करते
हैं. ठीक ऐसा ही तब भी हुआ था जब आमिर खान ने अपनी पत्नी किरन राव की एक शंका को
सार्वजनिक कर दिया था या जब असहिष्णुता का आरोप लगा कर बहुत सारे लेखकों, विज्ञानियों, इतिहासकारों, अभिनेताओं,
आदि ने अपने पुरस्कार वापस कर दिये थे. वे सब देशद्रोही घोषित किये
गये थे.
आप नसीरुद्दीन शाह के बयान से असहमत
हो सकते हैं. उसके जवाब में अपना बयान जारी कर सकते हैं. लेकिन उनकी या किसी भी
नागरिक की देशभक्ति पर अंगुली नहीं उठा सकते. यह अधिकार किसी को भी हासिल नहीं है.
आज एक बड़ी भीड़ नसीरुद्दीन शाह को
धमकाने-गरियाने में लगी है तो इससे उनकी चिंता और भी जायज ठहरती है. देश का माहौल
सचमुच अच्छा होता तो ये सारे लोग उन्हें देशद्रोही बताने और गरियाने की बजाय कहते
कि आपको चिंतित होने की जरूरत नहीं, हम आपके
साथ हैं.
सच बात तो यह है कि नसीरुद्दीन शाह
का बयान उन्हें जिम्मेदार कलाकार, बेहतर
नागरिक और बड़ा देश प्रेमी साबित करता है. जो लोग उन्हें देशद्रोही बताते हुए देश निकाला
दे रहे हैं, शंका उनके देशप्रेम पर की जानी चाहिए.
साम्प्रदायिकता देश में पहले भी थी.
दंगे भी होते थे और हत्याएं भी. लेकिन गोरक्षा, हिंदुत्त्व,
लव-जिहाद, राष्ट्रवाद के नाम पर ऐसा विष-वमन नहीं
होता था. इनके नाम पर मॉब-लिंचिंग नहीं होती थी.
किसने ऐसा माहौल बना दिया है?
देश के भोले-भाले नागरिकों को कौन यह जहरीली घुट्टी पिला रहा है?
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