‘अखिलेश जीते तो राम मंदिर पर बुलडोजर चलवा देंगे,’ भाजपा नेता उत्तर प्रदेश के हिंदुओं को आगाह करते फिर रहे हैं। उधर, अखिलेश मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना कर रहे हैं, ‘ब्राह्मण भगवान’ परशुराम की मूर्तियां लगवा रहे हैं और जोर-शोर से कहते हैं कि राम मंदिर बन गया तो दर्शन करने अवश्य जाऊंगा।
उत्तर प्रदेश का चुनाव कई दृष्टियों से घमासान है। समाजवादी
पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सभाओं-रैलियों में जिस तरह
भीड़ उमड़ी (फिलहाल निर्वाचन आयोग ने कोरोना के कारण इन पर रोक लगा दी है) उससे
भाजपा नेताओं के कान खड़े हुए हैं। मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा में ही होता दिख रहा
है। राज्य की तीसरी बड़ी ताकत बहुजन समाज पार्टी है लेकिन मायावती के अब तक प्रचार
में नहीं निकलने के कारण उसकी लड़ाई की तस्वीर साफ नहीं हो पाई है। तीसरे नम्बर पर
तो वह है ही। प्रियंका गांधी ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’
के नारे के साथ महिलाओं को आगे करके जिस तरह जोर बांधा है उससे भीड़
तो जुटी लेकिन कांग्रेस लड़ाई में आ पाएगी, इसमें सभी को
संदेह है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा
के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री चुनाव की घोषणा होने और सभाओं-रैलियों पर रोक लगने
से पहले ही उत्तर प्रदेश के तूफानी दौरे कर चुके हैं। मोदी जी ने प्रदेश के अपने
दौरों में उत्तर प्रदेश के लिए अरबों-खरबों रु की विकास योजनाओं की घोषणा की।
गरीबों के कल्याण (मुख्य रूप से खातों में नकद धन भेजना) और विकास योजनाओं के जरिए
‘प्रश्न प्रदेश’ को ‘उत्तर
प्रदेश’ बनाने का उनका ऐलान यह दिखाने का पुरजोर प्रयास है
कि भाजपा का मुख्य फोकस विकास पर है। मुख्यमंत्री योगी भी विकास के दावे करते हुए
अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाना नहीं भूलते। किंतु भाजपा का असली चुनावी तुरुप
धार्मिक ध्रुवीकरण और मंदिर की राजनीति ही है। इस तुरुप को चलने में वे कोई संकोच
भी नहीं बरत रहे। योगी जी ने खुले आम कहा है कि ‘मुकाबला
अस्सी बनाम बीस है।’ उनका इशारा लगभग बीस प्रतिशत मुसलमानों
की ओर ही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आक्रामक हिंदू नेता और महंत वाली छवि
को प्रमुखता से पेश किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ समय पूर्व भव्य समारोह में
अयोध्या में राम मंदिर का नींव पूजन किया और अभी हाल में काशी विश्वनाथ मन्दिर
कॉरीडोर का उद्घाटन किया, जनता को बार-बार उसकी याद दिलाना वे नहीं
भूलते। इन कार्यक्रमों का देश भर में सजीव प्रसारण किया गया और भाजपा शासित
राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सामूहिक दौरा कराकर उन्हें ‘योगी
के यूपी मॉडल’ के दर्शन कराए गए। मोदी,
शाह और योगी समेत भाजपा नेता अपने भाषणों में जनता को बार-बार यह याद दिलाते हैं
कि उनकी सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त किया, पाकिस्तानी
आतंकवाद को करारा जवाब दिया, वगैरह। इसके साथ ही वे समाजवादी
पार्टी को मुस्लिम परस्त और आतंकियों के मददगार के रूप में पेश करते हैं। कांग्रेस
और बसपा पर उनके हमले अब कम हो गए हैं। समाजवादी पार्टी को ही मुख्य निशाने पर रखा
जा रहा है और इस तरह से कि हिंदुओं के मन में उसकी छवि हिंदू-विरोधी एवं
मुस्लिम-हितैषी की बनी रहे। यही कारण है कि ‘अब्बाजान,’
‘कब्रिस्तान’ और ‘जिन्ना’
का बार-बार उल्लेख किए बिना भाजपा नेताओं के भाषण पूरे नहीं होते।
उधर, अखिलेश यादव पूरी कोशिश कर रहे हैं कि
मुस्लिम-विरोधी हिंदू ध्रुवीकरण की भाजपा की कोशिश पूरी तरह सफल न हो। उन्होंने
भाजपा की इस तुरुप चाल को विफल करने के लिए अपनी रणनीति बदल रखी है। 2017 के चुनाव
में उन्होंने भाजपा के हिंदू ध्रुवीकरण के जवाब में मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश की
थी। तब उनकी सरकार ने कब्रिस्तानों की चारदीवारी बनवाने के लिए अनुदान जारी किए,
आतंकवादी गतिविधियों के अभियुक्त ‘निर्दोष’
मुसलमान युवकों को रिहा कराया और हाईस्कूल-इण्टर पास करने वाली
मुस्लिम लड़कियों के लिए वजीफे घोषित किए। भाजपा ने उनकी सरकार के इन फैसलों से
उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने में सफलता पाई। प्रधानमंत्री मोदी तक ने ‘कब्रिस्तान बनाम श्मशान’ के ताने कसकर तालियां लूटी
थीं। मोदी और योगी आज तक उसका उल्लेख करना नहीं भूलते।
इस बार अखिलेश जानबूझकर मंदिरों में जा रहे हैं, बाबरी
मस्जिद गिराए जाने का कोई उल्लेख नहीं कर रहे, बल्कि राम
मंदिर बनने पर दर्शन करने की बात कर रहे हैं और जगह-जगह ‘भगवान
परशुराम’ की मूर्ति लगवा रहे हैं। वे पूरी कोशिश कर रहे हैं
कि भाजपा उन्हें हिंदू विरोधी साबित न कर सके। भाजपा से नाराज बताए जा रहे
ब्राह्मणों को खुश करने की उनकी पूरी कोशिश है। यह सच है कि यादवों के अलावा
मुसलमान वोट उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं लेकिन इस बार वे मुसलमानों को खुश करने की
प्रकट रूप में कोई ऐसी कोशिश नहीं कर रहे कि वह नज़र में आए। इसी कारण उन्होंने
कट्टर मुस्लिम नेता माने जाने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी से गठबंधन नहीं
किया। इससे हिंदुओं में सपा के विरुद्ध ध्रुवीकरण तेज ही होता। मुस्लिम आबादी के
बीच सपा का चुपचाप प्रचार अभियान चल रहा है। वे मानते हैं कि भाजपा को हराने के
लिए मुसलमानों के पास समाजवादी पार्टी ही एकमात्र विकल्प है। वे किसी और को वोट
नहीं देंगे।
अखिलेश यादव ने राजनैतिक परिपक्वता दिखाते हुए इस बार न
केवल अपने ‘बागी’ चाचा शिवपाल यादव की पार्टी को गले
लगा लिया, बल्कि पिछड़ी जातियों के अन्य छोटे-छोटे दलों से भी
चुनाव समझौता करने की पहल की। भाजपा ने
उत्तर प्रदेश में 2014 से अति पिछड़ी और अति दलित जातियों को जोड़ने की जो पहल की है
उसके मुकाबले के लिए अखिलेश ने भी गैर-यादव अन्य पिछड़ी जातियों की कम से कम पांच छोटी
पार्टियों से चुनाव समझौता किया है। पश्चिम में जयंत चौधरी उनके सहयोगी हैं ही। दलित
जातियों में सेंध लगाने के लिए उन्होंने मायावती से खिन्न और बसपा से बहिष्कृत कई
दलित नेताओं को सपा में शामिल किया है। कांग्रेस और बसपा के कई नेताओं के अलावा भाजपा
के चंद असंतुष्ट नेता भी सपा में शामिल हुए हैं। इसे सपा की बढ़ती दावेदारी का
संकेत माना जा रहा है। मीडिया में भाजपा का वृहद विज्ञापन अभियान सपा के विरुद्ध
ही केंद्रित है।
उत्तर प्रदेश की सत्ता कायम रखना भाजपा के लिए 2024 के आम
चुनाव की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है तो अखिलेश के लिए उसे अपदस्थ करना अपना राजनैतिक
अस्तित्व कायम रखने के लिए बहुत जरूरी है। बसपा और कांग्रेस अभी हाशिए की पार्टियां
नज़र आती हैं। भाजपा के पास मोदी की लोकप्रियता और योगी की कट्टर हिंदू नेता की छवि
के अलावा अमित शाह समेत स्टार प्रचारकों की बड़ी फौज है। कोरोना काल में डिजिटल
प्रचार में भी भाजपा बहुत आगे है। बूढ़े और बीमार पिता मुलायम सिंह यादव की
अनुपस्थिति में अखिलेश अकेले दम पर इस विशाल सेना के खिलाफ डटे हैं। मुकाबला
वास्तव में घमासान और रोचक है।
(प्रभात खबर, 13 जनवरी, 2022)
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