खेला समझिए। अब चुनाव सीधे जनता के बीच नहीं लड़ा जाता। वहां तक जाने से पहले कई लड़ाइयां लड़ी जाती हैं। फिलहाल वही दांव-पेच चल रहे हैं।
पहला दांव अखिलेश ने मारा। भाजपा से नाराज ओबीसी
मंत्री-विधायक तोड़ लिए। चंद रोज अखिलेश का जलवा खूब रहा। एक बाद एक किले ढहाए! फिर
भाजपा ने मुलायम की ‘छोटी बहू’ वाला दांव चल दिया। घर में ही
सेंध लगा दी, हालांकि सेंध की जगह खुला दरवाजा पहले से मौजूद
था। तो भी, दांव पर दांव! पहलवान पहले से चित था तो भी दिखाना
है कि हमारे दांव से धराशाई हुआ। अब यह तय करने की लड़ाई है कि किसका दांव तगड़ा
बैठा।
यह तय जनता को करना है मगर आगे-आगे कूद कर मीडिया तय किए दे
रहा है। विश्लेषण और भाषण तय करने में लगे हैं कि कौन चित हुआ। कहा जा रहा है कि ‘छोटी
बहू’ वाला दांव अखिलेश पर भारी पड़ गया। जवाब में कहा जा रहा
है कि छोटी बहू हैं ही क्या! वोट देने वाली जनता के हाथ में अभी कुछ नहीं है। वह तो
अभी दृश्य से ही नदारद है। उसकी मंच-प्रवेश अंतिम दृश्य में होना है।
वास्तव में यह ‘परसेप्शन’ की लड़ाई है।
यह दिखाने की लड़ाई कि लड़ाई में है कौन। किसका पलड़ा भारी लगता है। यह चुनाव से पहले
चुनाव मैदान में खड़े हो पाने की लड़ाई है। मैदान में ही नहीं दिखेंगे तो लड़ेंगे
क्या! यह पहला चरण है जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। भाजपा प्रदेश की सत्ता में है। लड़ाई
उसी से है। यानी वह पहले से मैदान में है। अब विपक्ष वालों को यह दिखाना होता है कि
मुख्य मुकाबले में है कौन। सत्तारूढ़ दल का मुख्य प्रतिद्वद्न्द्वी कौन है जो उसे अपदस्थ
कर सकता है।
यह दिखाने में इस बार समाजवादी पार्टी पहले आगे आ गई। उसने बड़े
मौके से भाजपा पर सामाजिक आधार का हथियार छोड़ दिया। उसके दांव ने भाजपा सरकार की
ओबीसी नाराजगी सामने ला दी। भाजपा से ओबीसी मंत्रियों-विधायकों के दल बदल ने उसे
यह बढ़त दे दी।
दूसरी प्रतिद्वंद्वी, बसपा पता नहीं क्यों इस बार मैदान में उस जोर-शोर
से नहीं उतरी जैसे उतरा करती थी। आम तौर पर वह सबसे पहले मैदान में आ जाती थी और
दिखाती थी कि सत्तारूढ़ दल को मुख्य चुनौती वही दे सकती है। यह तनिक गहरे विश्लेषण,
बल्कि शोध का विषय है कि मायावती इस बार चुनाव मोड में पहले क्यों नहीं
आईं। खैर, सतीश मिश्र काफी पहले से उनकी भरपाई करने में लगे रहे।
कांग्रेस को तो खैर अपना अस्तित्व साबित करने
की लड़ाई में लगी है।
अब इस पर क्या आश्चर्य करना कि चुनाव जनता के मुद्दों पर क्यों
नहीं लड़ा जा रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी,
रोजगार, भ्रष्टाचार, वगैरह
कोई मुद्दे ही नहीं। कोविड के दूसरे दौर में स्वास्थ्य सुविधाओं की जोल पोल खुली और
जो बेहिसाब मौतें हुईं, उसकी बात कोई क्यों करे कि भविष्य में
ऐसा न हो, इसके पक्के प्रबंध किए जाएंगे! आप नहीं सुनेंगे कि
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक जरूरी सुविधाएं पहुंचाई जाएंगी। किसी दल को या नेता
को यह आश्वासव देते नहीं सुना जाएगा कि बदहाल प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए उनके
पास कोई बड़ी व्यावहारिक योजना है। मुफ्त बिजली-पानी, खाते में
नकद धन, आदि वादे बहुत होंगे लेकिन कोई यह मुद्दा नहीं उठाएगा
कि नौकरियां कैसे बढ़ें। कोरोना में जो करोड़ों मजदूर दूर-दूर से अपने गांवों का लम्बा
रास्ता पैदल नापने को मजबूर हुए, उनके लिए कोई किसी कार्यक्रम
की बात कहीं सुनाई दे रही है?
चुनाव किसी और ही धरातल पर लड़ा जा रहा है। इसलिए वही सब सुनाई
देगा जिसका जनता से कोई वास्ता नहीं।
(चुनाव तमाशा, नभाटा, 22 जनवरी, 2022)
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