Friday, January 07, 2022

महंगे चुनावों को सस्ता क्यों नहीं किया जाए?

चुनाव प्रचार के लिए खर्च की सीमा एक बार फिर बढ़ाई जा रही है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में अब लोक सभा चुनाव के प्रत्याशी 95 लाख रु खर्च कर सकते हैं। अब तक यह सीमा 70 लाख थी। छोटे राज्यों में यह सीमा 54 लाख से बढ़ाकर 75 लाख की जा रही है। विधान सभा चुनाव में इसे क्रमश: 28 लाख की बजाय 40 लाख और 20 लाख की बजाय 40 लाख किया जा रहा है। यह कागजी सीमा है। सभी जानते हैं कि प्रत्याशी इस सीमा से कई गुणा खर्च करते हैं।

चुनाव आयोग का तर्क है कि महंगाई बहुत बढ़ गई है। इसलिए चुनाव खर्च बढ़ाया जाना चाहिए। महामारी के पहले-दूसरे दौर में जो चुनाव हुए थे उनके लिए खर्च सीमा में 10 फीसदी की वृद्धि पहले ही कर दी गई थी- ऑनलाइन प्रचारको बढ़ावा देने के लिए।  

महंगाई बढ़ने का तर्क देकर चुनाव प्रचार खर्च की सीमा बढ़ाते जाना कितना उचित है? क्या चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाकर चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता जनता के उस वर्ग से छीनी नहीं जा रही है जो इतने बड़े  पैमाने पर खर्च करने की होड़ में शामिल नहीं हो सकते? गरीब जनता के सामान्य प्रतिनिधि कैसे चुनाव लड़ें? जो प्रत्याशी विज्ञापनों, सभाओं-रैलियों, पोस्टर-बैनरों-होर्डिंगों, समर्थकों के हुजूम, आदि पर बेहिसाब खर्च नहीं कर सकते, वे चुनाव मैदान में अपने होने को कैसे साबित करें?

क्या यह बात चुनाव आयोग से छिपी है कि अवैध रूप से शराब और नकदी बांट कर बाहुबली और धनबली प्रत्याशी चुनाव लड़ते और जीतते हैं? यह गुप-चुप खर्च होता है जो करोड़ों रु तक जाता है। प्रचार खर्च की सीमा बढ़ाना प्रकारांतर से उन्हीं की मदद करना नहीं है? क्या यह चुनावों पर बढ़ते धन के प्रभाव को और बढ़ाना नहीं है? क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है कि बेहिसाब धन बहाकर चुनाव जीतने के लिए राजनैतिक दल और नेता अथाह पैसा कमाते हैं? क्या यह राजनैतिक भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करना नहीं है?

देश के विभिन्न भागों में सामाजैक-राजनितिक जन आंदोलनों से उभरे समर्पित और ईमानदार नेता समाज और राजनीति में बदलाव लाने के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं। कई चुनाव मैदान में उतरते भी हैं। उनके पास अपना प्रचार करने के लिए जन सहयोग से जुटाया गया बहुत थोड़ा धन होता है। इसी कारण वे धनबली प्रत्याशियों के सामने कहीं टिक नहीं पाते। उनके चुनाव लड़ने की सूचना तक क्षेत्र की जनता को पूरी तरह नहीं हो पाती। मीडिया भी उन्हीं की ओर ध्यान देता है जो भारी खर्च करके छाए रहते हैं। अगर लोकतंत्र में सबको चुनाव लड़ने का बराबर अधिकार है तो उन्हें प्रचार के स्तर पर भी समानता मिलनी चाहिए। क्या चुनाव खर्च की वर्तमान सीमा में समानता के इस अधिकार की रक्षा हो पा रही है?

जिस तरह शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी-रोटी, मकान जैसी आवश्यक सुविधाओं पर धनबलियों का कब्जा है, उसी तरह चुनाव लड़ना और जीतना भी धनबलियों का विशेषाधिकार बन गया है। एक जमाना था जब जन जनसेवक पैदल या साइकिल से प्रचार करके चुनाव जीत जाते थे। चंद पूर्व विधायक या सांसद अभी मिल जाते हैं जो बताते हैं कि उन्होंने सिर्फ दो-चार हजार रु में चुनाव लड़ा था। अब जनसेवक रहे नहीं और धनसेवक जनाधार के बिना भी धनाधार से चुनाव जीत जाते हैं या मुख्य मुकाबले में रहते हैं। नामांकन के समय दाखिल किए जाने वाले शपथपत्र गवाह हैं।

महंगाई बढ़ने का चुनाव आयोग का तर्क वास्तव में गरीबों पर लागू होना चाहिए, धनबलियों-बाहुलियों पर नहीं। बढ़ती महंगाई के कारण चुनाव लड़ना सस्ता किया जाना चाहिए यानी खर्च सीमा कम की जानी चाहिए।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 08 जनवरी, 2022)          

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