नेतागण रोते दिख रहे हैं। न्यूज चैनलों के स्टूडियो में, प्रेस कांफ्रेंस में, अपने समर्थकों के बीच और पार्टी मुख्यालयों में नेताओं के आंसू बह रहे हैं। वे फफक कर रो पड़ते हैं, बच्चों की तरह गिड़गिड़ाते दिखते हैं- हमने पार्टी की कितनी सेवा की, क्षेत्र में हमारे बराबर काम किसी ने किया हो तो बताइए। फिर भी टिकट काट दिया!
वे हर पार्टी में हैं। टिकट पाने के लिए हर जतन किया। बड़ी उम्मीद
से थे। अब टिकट नहीं मिला तो रो पड़ रहे हैं। वे पूरी तरह टूट गए हैं। घर भर और समर्थक
भी वैसे ही हताश-निराश हैं जैसे बच्चे को कोटा भेजकर भी आईआईटी का रास्ता न खुला हो!
सब कुछ लुट गया हो जैसे!
वे इसलिए नहीं रोते कि रोने से पार्टी सुप्रीमो का दिल पिघल
जाएगा। रोना तभी आता है जब सारी सम्भावनाएं समाप्त हो जाती हैं। प्रतिद्वंद्वी टिकट
मार चुका होता है। इसलिए उस रोने को नाटक नहीं कह सकते। वह रुलाई अपने आप फूटती है, निराशा,
हताशा और दिल टूट जाने के चरम समय में।
रोते हुए नेता कैसे लगते हैं? जो इतनी सी बात
पर रो पड़े उसे ‘नेता’ कैसे कह सकते हैं? लेकिन आजकल ऐसे ही नेता मिलते हैं। अधिकतर तो वे जनता को ही रुलाते हैं लेकिन
चुनाव लड़ने का टिकट न मिलने पर खुद रोने लगते हैं। क्यों? एक
विधान सभा क्षेत्र से पार्टी एक व्यक्ति को ही टिकट दे सकती है। दावेदार बहुत सारे
होते हैं। जिसे नहीं मिला वह इतना टूट क्यों जाता है जैसे सब कुछ छिन गया हो?
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। पहले के नेता टिकट
के लिए इतना कलपते नहीं थे। वे कभी रोते नहीं दिखते थे। अमृत महोत्सव तक आते-आते विधायकी
और सांसदी इतनी कीमती चीज बन गई है कि नेता उसके लिए सब कुछ दांव पर लगा देता है और
दावेदारी नहीं मिलने पर बच्चों की तरह बिसूरता है। पहले टिकट जनसेवा का एक माध्यम भर
था और उसके बिना भी जन सेवा की जाती थी। अब वह क्या है कि उसके लिए पार्टी, विचार,
सिद्धांत, मूल्य, नैतिकता, आदि-आदि का कोई अर्थ नहीं बचा?
वैसे, आज के नेता सिर्फ टिकट के लिए ही नहीं रोते।
हमें कई कारणों से रोते हुए नेता दिखते हैं। कोई सदन में भावुक होकर आंखें पोछने लगता
है कि अफसर उसकी बात नहीं सुनते, कि पुलिस ने उसके साथ दुर्व्यवहार
किया, कि उसकी सुरक्षा छीन ली गई और उसकी जान खतरे में है,
वगैरह। कभी कोई सदन में इसलिए सिसक पड़ता है कि उसके खिलाफ झूठी धाराओं
में मुकदमा दायर करके उसे जेल में डाल दिया गया था।
निजी कारणों से रोने के अलावा कई बार रोने या गला भर आने के
अभिनय भी करने पड़ते हैं। टिकट कटने पर रोना अपने आप आ जाता है लेकिन रोने का अभिनय
आसान नहीं होता। यहां सिने कलाकारों की तरह कृत्रिम आंसू बहाने की रासायनिक सुविधा
उपलब्ध नहीं होती। इसलिए नेताओं को अभिनय में पारंगत होना पड़ता है। जैसे, कोविड
महामारी से मारे गए ‘फ्रंटलाइन वर्कर्स’ की याद करते हुए आखें भर लाना या वोट मांगते समय भावुक हो जाना।
वैसे, हमारे नेता बिल्कुल बच्चों जैसे ही हो गए हैं।
इस पाले में नहीं खिलाया तो फौरन पाला बदल लिया या भरभण्ड कर दिया या ईंटा मारकर भाग
गए या गाली-गलौच करने लगे या ‘अच्छा बेटा, देख लेंगे’ की धमकी देकर सीना ताने कुढ़ते रहे या घर में
उलटी-सुलटी चुगली लगा आए और कुछ नहीं तो बड़े-बड़े आंसू लुढ़काने लगे।
(चुनाव तमाशा, नभाटा, 29 जनवरी, 2022)
No comments:
Post a Comment