Tuesday, January 18, 2022

भीलों का जीवन, राजा से रंक होने और विद्रोह का इतिहास


हमारी दुनिया में स्थान विशेष के मूल निवासियों/ जनजातियों का इतिहास दमन-शोषण और साजिशन हाशिए पर धकेले जाने का इतिहास रहा है। आस्ट्रेलिया के मूल निवासी (एबोरिजनल) हों या अमेरिकी 'रेड इण्डियंस' या हमारे देश के विभिन्न इलाकों के आदिम निवासी, जनजातीय कबीले, बाहरी लोगों की चतुराई, साजिश और आक्रमण के कारण वे अपने इलाकों से खदेड़े गए, गुलाम बनाए गए और शिक्षा एवं अन्य सुविधाओं से वंचित रखे गए। 

विदेशी हमालवरों ने ही नहीं, देसी राजे-रजवाड़ों, जमींदारों और तथाकथित उच्च वर्गीय सभ्य समाजों ने मूल निवासियों को द्त्कारा और खदेड़ा। कुछ कबीले अपना अस्तित्व बचाने के लिए लड़े और कुछ ने सहज ही आत्म समर्पण कर दिया। आदिवासियों के पास अपनी धरती, अपनी संस्कृति और प्राकृतिक संसाधन बचाए रखने और उनके साथ तादात्म्य बनाकर जीवन जीने के मौलिक व मानवीय तरीके थे। मनुष्य की विकास यात्रा में इस धरती और प्रकृति को बचाए रखने में उनका मौलिक योगदान रहा है।  

'सभ्य समाज' ने इन मूल निवासियों को उनके इलाकों एवं संसाधनों से ही नहीं खदेड़ा बल्कि उनके जीवन, संघर्ष और योगदान को इतिहास से भी बाहर कर दिया या उनका अपने मन माफिक गलत चित्रण किया। पिछले कुछ दशकों से सामाजिक-शैक्षिक चेतना के फैलने के साथ वंचित समाजों का यथासम्भव वस्तुपरक इतिहास सामने लाने की कोशिशें तेज हुई हैं। 

हाल ही में प्रकाशित 'भील विद्रोह- संघर्ष के सवा सौ साल' (हिंद युग्म) ऐसी ही एक पुस्तक है। हिंदी कहानी  के चर्चित हस्ताक्षर सुभाष चंद्र कुशवाहा की यह किताब 'चोर-लुटेरे-डकैत-हत्यारों' के रूप में वर्णित, सरल लेकिन बहादुर भीलों के जीवन और अस्तित्व के लिए उनके संघर्ष को ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ नई दृष्टि से प्रस्तुत करती है। 

कुशवाहा जी अपनी साहित्यिक सक्रियता के साथ-साथ वंचितों के वास्तविक इतिहास की पड़ताल का  गुरुतर कार्य भी कर रहे हैं। पहले प्रकाशित उनकी दो इतिहास परक किताबें- 'चौरी-चौरा और स्वतंत्रता आंदोलन' एवं 'अवध का किसान विद्रोह' भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। दोनों पुस्तकें इन प्रसिद्ध घटनाक्रमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लेकिन उपेक्षित रखे गए वंचित जातियों के नायकों के योगदान को रेखांकित करती हैं।

मध्य भारत और गुजरात-राजस्थान के विस्तृत पहाड़ी इलाकों में किसी समय भीलों का साम्राज्य था। उनके मुखिया अपने-अपने इलाकों के राजा थे। सातवीं सदी से चौदहवीं सदी के बीच मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा खदेड़े गए राजपूत अफगानिस्तान के रास्ते राजस्थान और गुजरात पहुंचे। सैन्य बल से मजबूत इन राजपूतों ने भीलों को खदेड़ना शुरू किया। अरबों, पिण्डारियों, होल्करों, मराठों, आदि ने भी भीलों के इलाके लूटे और उन्हें खदेड़ा। बाद में अंग्रेज आए तो उन्होंने भीलों के स्वतंत्र जीवन में बहुतेरे हस्तक्षेप किए और उन्हें दबाया।

अस्तित्व रक्षा के लिए भील पहाड़ों और घने जंगलों में जा बसे। बहादुर और लड़ाके भील चुपचाप नहीं रहे, बल्कि सभी हमलावरों से लड़ते रहे। स्वाभाविक ही उनकी लड़ाई छापामार शैली की थी। गांवों-खेतों और उत्पादन के संसाधनों से वंचित कर दिए गए भील लूट-पाट, चोरी-डकैती करके जीवन यापन करने को मजबूर हुए। वे बहादुर थे और तीरों-भालों, पत्थरों, पेड़ों से युद्ध करने में माहिर। धीरे-धीरे उनकी पहचान पूरी तरह खूंखार चोरों-डकैतों के रूप में बना दी गई। इसी कारण उनकी हत्याएं की गईं या फांसी पर लटकाए गए। इतिहास में वे इसी रूप में दर्ज़ किए गए।

किताब के शुरू में ही सुभाष लिखते हैं- "आदिवासी समुदाय के प्रति हमारी दृष्टि अभिजन बनाम अभिशप्तजन में विभाजित है। यह सुघड़ और फूहड़ के मनोरोग से ग्रसित रही है।" अपने शोध में वे इसी 'मनोरोगी' इतिहास दृष्टि के उलट भीलों के जीवन, उनके संघर्ष या विद्रोहों, उनकी कुरीतियों, विशेषताओं, बर्बरताओं, बहादुरियों, आदि को स्वस्थ दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं। वे पाते हैं कि "शिक्षा से वंचित इस सरल हृदय समुदाय ने छल-बल, तिकड़मों और धोखे से राजा से रंक तक की यात्रा तय की है।"   

भीलों का सबसे बड़ा और लम्बा विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध चला। भीलों की बहादुरी, जंगलों से छापामार युद्ध में उनके कौशल एवं विद्रोही तेवरों को समझते ही अंग्रेजों ने चालाकी से काम लिया। "उन्हें लग गया था कि पहाड़ी दर्रों पर जब तक भीलों का नियंत्रण रहेगा, मध्य भारत और राजपूताना पर ब्रिटिश साम्राज्य को आर्थिक लाभ नहीं होने वाला। उनके व्यापारिक मार्ग असुरक्षित रहेंगे। उन्होंने कुछ भील मुखियाओं से समझौता करना जरूरी समझा। कुछ की जागीरें लौटाईं, कुछ को पेंशन दी, कुछ को सीमांत चेक पोस्टों पर तैनात किया और अंतत: भीलों को अनुशासित सेना में बदल देने के लिए भील कॉर्प्स का गठन कर उन्हें ब्रिटिश सैन्य बल का अंग बना लिया।" 

इसके बावजूद भीलों का विद्रोह जारी रहा। कई बार तो भील सेना (कॉर्प्स या कोर) ही विद्रोही भीलों के खिलाफ इस्तेमाल की गई। 1857 के विद्रोह में भी भीलोंं की भूमिका थी। इस तरह अपने-अपने इलाकों में विभिन्न भील समूह सन 1800 से 1925 तक अंग्रेजों से लड़ते रहे। कुछ अंग्रेजों ने भीलों पर थोड़ा सामाजिक दृष्टि से लिखा और उनकी बहादुरी या बर्बरता दर्ज़ की। ब्रिटिश और आस्ट्रेलियाई अखबारों में कुछ भील नायकों पर खबरें और धारावाहिक लेख तक छपे।         

सुभाष चंद्र कुशवाहा ने भारतीय के अलावा ब्रिटिश और आस्ट्रेलियाई अभिलेखागारों से उस दौर की सामग्री तलाश करके भीलों के सवा सौ साल के इसी संघर्ष को पुस्तक में दर्ज़ किया है। उनका दावा है और सही ही होगा कि इस किताब की अधिकांश सामग्री और उससे सम्बद्ध दस्तावेज पहली बार सामने आए हैं। दो सौ से अधिक भील नायकों-योद्धाओं, उनकी लूटों-विद्रोहों और बलिदानों का उल्लेख इस किताब में आया है। लेखक के अनुसार, इससे पहले प्रकाशित पुस्तकों में एक दर्जन से भी कम भील लड़ाकाओं का जिक्र मिलता था। 

सम्भवत: सबसे बहादुर भील नायक खंडवा और निमाड़ क्षेत्र का टंट्या था, जिसने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए। उसकी गाथा विदेशों अखबारों में विस्तार से छपी। टंट्या भील पर इस किताब में ठीक-ठाक सामग्री है। उस पर कुशवाहा जी की अलग से पूरी किताब भी अब प्रकाशित हो गई है- "टंट्या भील- द ग्रेट इण्डियन मूनलाइटर।"   

सुभाष चंद्र कुशवाहा ने यह महत्वपूर्ण काम किया है। सहज-सरल भाषा में प्रस्तुति किताब को पठनीय बनाती है। 'हिंद युग्म' ने इसे अच्छी तरह प्रकाशित किया है। 352 पेज की किताब का 249 रु मूल्य प्रचलित दरों से सस्ता है। लेखक-प्रकाशक को बधाई।

- न जो, 19 जनवरी, 2022    

   

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