Friday, January 14, 2022

‘दल बदलू’ नहीं, वंचितों की दावेदारी के ‘नायक’

 

चुनाव के ऐन मौके पर राजनैतिक दलों में पाला-बदल की भगदड़ अक्सर देखी जाती है। सभी करते थे लेकिन भाजपा ने विरोधी दलों में सेंध लगाने की नई ही परिपाटी डाली। अल्पमत में होने के बावजूद बड़े दल में तोड़-फोड़ मचाकर उसने अपनी सरकारें तक बना लीं। इस बार उत्तर प्रदेश में वह स्वयं इस दांव का शिकार हो रही है। चुनावों का ऐलान होते ही उसने न केवल कई विधायक बल्कि अपने कुछ मंत्री भी खो दिए। इनमें अधिकतर वे हैं जो दूसरे दलों को छोड़कर भाजपा में आए थे। राजनैतिक विद्वान और मीडिया इस प्रवृत्ति का कई तरह से विश्लेषण कर रहे हैं

पाला-बदल की ऐसी भगदड़ देखकर आम जनता क्या सोचती होगी? क्या उसके मन में भी इसी तरह की प्रतिक्रिया होती होगी कि अपने ही दांव से चित भाजपा’, ‘ओबीसी ने दिया झटका,’ ‘उग्र हिंदू राजनीति से पिछड़ा और दलित खफा’, या टिकट की सौदेबाजी नहीं चली तो पाला बदला’, वगैरह? जनता पाला बदलने वाले नेताओं की रणनीति समझने की कोशिश करती होगी या उनके अवसरवादपर हंसती-माथा पीटती होगी? और विशेष रूप से, दल बदल करने वाले नेताओं के मतदाताओं की क्या प्रतिक्रिया होती होगी?

यह सवाल इसलिए कि दल बदल करने वाले नेता अपने-अपने क्षेत्रों के दिग्गज हैं और जिस पार्टी में जाएं, अधिकतर चुनाव जीत जाते हैं। अर्थात उनके मतदाता उन्हें दल बदलू’, ‘अवसरवादी,’ ‘सत्ता के भूखे,’ आदि-आदि नहीं मानती। मतदाताओं के सोचने का तरीका फर्क होता है। मीडिया और विशेषज्ञ चाहे जो कहें।

पिछले दिनों हुए चौंकाने वाले दल-बदल का विमर्श इस विचार की पुष्टि करता है। वे दल बदलूकी संज्ञा की बजाय सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा पिछड़ा व दलित जनता की उपेक्षा के विरुद्ध बगावत करने वाले साहसीनेताओं का विशेषण पा रहे हैं। ताज़ा राजनैतिक विमर्श यह है कि भाजपा सरकार ने पिछड़ी एवं दलित जातियों का भला करने के दावों के विपरीत उनकी उपेक्षा की। इसलिए ये नेता पार्टी व सरकार छोड़कर इस समाज की व्यापक नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं। उनके मतदाता उन्हें हाथों हाथ ले रहे हैं।

इसके मायने यह हैं कि जिस साफ-सुथरी राजनीति की बातें लेखों, सेमिनारों और निजी बातचीत में भी होती हैं, जिसमें सत्ता पाने के लिए किया जाने वाला दल बदल सबसे निंदनीय होता है, वह व्यवहार में लागू नहीं होता। और, राजनैतिक दल जातीय गुणा-भाग के हिसाब से जो राजनीति करते हैं और जिसे विद्वतजन बढ़ती जातीयता और वैमनस्य के लिए धिक्कारते हैं, वही वास्तव में जमीनी विमर्श है। जनता इसी तरह सोचती है। इसे खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि जातीय भेदभाव और प्रभु वर्गों द्वारा वंचितों की सतत उपेक्षा हाल के वर्षों में राजनीति का महत्वपूर्ण विमर्श बन गया है।

मण्डल आयोग की रिपोर्ट खुलने और ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद से भारतीय राजनीति ने बिल्कुल नई करवट ली। अब पिछड़ों एवं दलितों में भी अति वंचित जातियों ने सामाजिक-राजनैतिक चेतना पाकर सत्ता की राजनीति में अपनी दावेदारी मजबूती से पेश की है। जिन नेताओं को आम तौर पर दल बदलू और सत्ता लोलुप कहकर धिक्कारा जा रहा है, वे इन्हीं वंचित जातियों की महत्वाकांक्षा के प्रतिनिधि बन गए हैं। इसीलिए वे चुनाव जीतने की ताकत पाते हैं। इसीलिए बड़े दल उन्हें अपनी तरफ खींचते हैं और वे अपनी कीमत वसूलते हैं।

जिस तरह पिछड़ा-दलित जातियों में वर्चस्वशाली जातियों ने पहले मलाई खाई और अब चुनौती का सामना कर रहे हैं, हो सकता है आने वाले वर्षों में इन नेताओं को भी अपने जातीय समूहों के भीतर से बड़ी चुनौती मिले। फिलहाल तो ये आंखों के तारे ही हैं।           

(चुनावी तमाशा, नभाटा, 15 जनवरी, 2022)

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