Friday, June 21, 2019

गुस्सा डॉक्टरों पर नहीं, व्यवस्था पर निकालिए


मरीज की मौत पर लापरवाही या गलत इलाज का आरोप लगाकर किसी झोला छाप या फर्जी डॉक्टर की पिटाई की खबर आज तक नहीं सुनी. अस्पतालों में आवश्यक सुविधाओं के अभाव, निदान एवं इलाज के लिए ज़रूरी मशीनों/उपकरणों की कमी या खराबी, डॉक्टरों की कमी, दवाइयों की अनुपलब्धता, आदि पर तीमारदारों का गुस्सा नहीं फूटता. अस्पतालों की बदहाली और स्वास्थ्य क्षेत्र के अत्यल्प बजट पर कभी आंदोलन तो छोड़िए, किसी मंत्री या विधायक का घेराव होते भी नहीं सुना. पीएचसी-सीएचसी की बदहाली और बंदी पर सिर्फ लाचारी सुनाई देती है, पब्लिक को गुस्सा नहीं आता.

गुस्सा आता है डॉक्टरों पर. इलाज में देरी या गड़बड़ी का आरोप लगाकर डॉक्टरों पर हमले की खबरें बराबर आती हैं और बढ़ती जा रही हैं. हाल में बंगाल में डॉक्टरों पर हुए घातक हमले के बाद देश भर के डॉक्टरों ने हड़ताल की. डॉक्टरों की हर समय कितनी ज़रूरत होती है, यह उनकी हड़ताल के दौरान ही समझ में आता है. एक ही दिन में त्राहि-त्राहि मच जाती है. सबसे ज़्यादा भुगतना आम मरीजों को होता है. इसलिए डॉक्टरों की हड़ताल की निंदा भी खूब होती है. डॉक्टरों का तर्क होता है कि हड़ताल के बिना न किसी का इस समस्या पर ध्यान जाता है न कोई सुनवाई होती है.

इस समस्या के कई पहलू हैं. निदान में कभी चूक या लापरवाही हो सकती है लेकिन ऐसा कोई डॉक्टर नहीं होगा जो पैसा कमाने के लिए मरीज की जान लेता हो. निजी नर्सिंग होमों में मरीजों से इलाज और जाँच के नाम पर लूट के मामले भी सामने आते हैं लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ भी किसी की जान लेने की साजिश की जाती हो. पैसा खूब खर्च होता है लेकिन स्वस्थ होकर घर जाने वाले मरीजों की संख्या मौतों की संख्या की तुलना में बहुत अधिक होती है.

सरकारी अस्पतालों  में जूनियर डॉक्टरों पर काम के दवाब की चर्चा भी इस संदर्भ में होती है. एक-एक रेजिडेण्ट डॉक्टर लगातार चौबीस घण्टे या उससे भी ज़्यादा ड्यूटी करते हैं. अधिकतर गम्भीर मरीज इधर-उधर इलाज कराने के बाद निराश होकर सरकारी अस्पतालों, संस्थानों में पहुँचते हैं. अक्सर देर हो चुकी होती है. तीमारदार गम्भीरता नहीं समझते या उन्हें बताया नहीं जाता. मीडिया भी बिना विशेषज्ञ जानकारी के गलत इलाज’, ‘लापरवाहीऔर उपेक्षाकी खबरें छापता-दिखाता है.

जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है उसकी चर्चा बहुत कम होती है. हमारी सरकारों ने चिकित्सा व्यवस्था को बदहाल बना रखा है. 2018 के आँकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर उत्तर प्रदेश सरकार मात्र 733 रु और बिहार सिर्फ 491 रु प्रति व्यक्त्ति सालाना खर्च करते हैं. 2018 के आँकड़ों के अनुसार इसका राष्ट्रीय औसत 1108 रु है. प्रति व्यक्ति डॉक्टर और अस्पताल भी अत्यंत कम हैं. भूटान, श्रीलंका और नेपाल हमसे कहीं बेहतर हैं.

स्वाभाविक है कि अस्पतालों में हर चीज की कमी है और आबादी की भरमार. ऐसे हालात हैं ही नहीं कि डॉक्टर चाह कर भी मरीजों को पर्याप्त समय और बेहतर सेवा दे सकें. सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और वीआईपी कल्चर ने हालात और खराब किए हैं. निजी अस्पतालों की बाढ़ के बावजूद सरकारी अस्पतालों, संस्थानों में ही अच्छा इलाज उपलब्ध है.

हाँ, डॉक्टर दूध के धुले भी नहीं हैं. और सेवाओं की तरह इस पेशे में भी बेईमानी, लापरवाही, लालच, आदि व्याप्त है लेकिन अपवादों के आधार पर पूरे पेशे को बदनाम नहीं किया जा सकता. रोड-रेजकी तरह हॉस्पीटल-रेजसे डॉक्टरों की सेवा पाना और कठिन होता जाएगा.  गुस्सा निकालिए तो इस व्यवस्था पर.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 22 जून, 2019)

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

समस्या की जड़ में प्रहार करने का संकेत देता एक ईमानदार और सटीक लेख। कमियाँ मूलतः व्यवस्था की हैं, जिन्हें दुरुस्त किया जाना चाहिए। बहुत से कम ज़रूरी या ग़ैरज़रूरी बज़ट प्राविधानों में कटौती कर स्वास्थ्य सम्बंधी व्यवस्थाओं पर खर्च किया जा सकता है। परिवर्तन एक ही दिन में नहीं आयेगा, पर उस दिशा में काम तो होना ही चाहिए।