नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की
प्रचण्ड विजय ने न केवल मुख्य विरोधी दल कांग्रेस को हतप्रभ किया है बल्कि
भाजपा-विरोध का झण्डा उठाए ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों के पैरों तले की ज़मीन भी
खिसका दी है. ये दल पराजय से उबरने और नए सिरे से उठ खड़े होने की बजाय और भी बिखर
रहे हैं. उनके खेमे में हताशा ही नहीं, भगदड़ भी
मची है. आने वाले चुनावी अखाड़ों में उनके सामने जहाँ भाजपा का तगड़ा पहलवान होगा, वहीं उनका अपना पहलवान बाहरी-भीतरी दाँवों से अभी से चित दिख रहा है.
दूसरी तरफ वे प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता,
जिन्होंने मोदी-विरोध का परचम नहीं उठा रखा था या जो भाजपा की तरफ
झुके हुए थे, उनके खेमे सकुशल और आनंद में हैं. न उनके
सेनानी पाला छोड़कर भाग रहे हैं, न ही बाहरी ताकतें वहाँ सेंध
लगा रही हैं.
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन,
बंगाल में ममता बनर्जी और आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबू नायडू मोदी
को दोबारा सत्ता में न आने देने के लिए सबसे ज़्यादा कमर कसे हुए और मुखर थे. लोक
सभा चुनाव में इन सबने ही मुँह की खाई. कहने को ममता बनर्जी ठीक-ठाक सीटें जीतने
में कामयाब रहीं लेकिन भाजपा ने उनके किले में अप्रत्याशित रूप से भारी सेंध लगा
दी है. सपा-बसपा गठबंधन पूरी तरह विफल रहने के बाद टूट चुका है और मोदी के खिलाफ
राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा बनाने में सक्रिय रहे चंद्रबाबू नायडू के पैर अपनी ज़मीन
से उखड़ गए हैं.
चुनाव सम्पन्न होने के बावज़ूद इन क्षत्रपों
की विपदाओं का अंत नहीं हुआ, बल्कि बढ़ गया है.
मोदी के खिलाफ दहाड़ने वाली ‘बंगाल की शेरनी’ सबसे ज़्यादा संकट में हैं. उनके छह विधायक, नगरपालिकाओं
के दर्ज़नों सदस्य और बड़ी संख्या में कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके
हैं. यह सिलसिला जारी है. बिना चुनाव लड़े भाजपा बंगाल में पहली बार एक ज़िला पंचायत
में बहुमत हासिल कर चुकी है. यह संकेत है कि तृणमूल कांग्रेस में भारी हाला-डोला
मचा है.
बंगाल में दो साल बाद विधान सभा चुनाव
होने हैं. ममता परेशान हैं कि भाजपा से अपना साम्राज्य बचाने के लिए वे क्या करें.
यह विडम्बना ही है कि जिन हथकण्डों से उन्होंने बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों का
सफाया किया, वैसे ही हथकण्डे भाजपा उनके साथ आज़मा
रही है. उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा. कभी वे आरएसएस के संस्थापक श्यामा प्रसाद
मुखर्जी को बंगाली अस्मिता से जोड़ने का दाँव खेलने की कोशिश कर रही हैं और कभी ‘जय श्रीराम’ के ज़वाब में ‘जय
माँ काली’ का नारा उछालने का बचकाना प्रयास करती दिख रही
हैं.
ममता की तरह ही राजनैतिक चक्रव्यूह में
फंसे हुए सपा और बसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष क्रमश: अखिलेश यादव और मायावती भी हैं.
उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए उन्होंने जो गठबंधन किया, वह विफल रहा. इस तथ्य के बावज़ूद कि देश के सबसे बड़े राज्य में भाजपा को
चुनौती दे सकने वाली आज भी यही दो पार्टियाँ हैं, मायावती ने
हार की ज़िम्मेदारी सपा पर डालते हुए गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया है. पहले तय था
कि आगामी विधान सभा चुनाव तक गठबंधन कायम रहेगा. अब दोनों आने वाले चुनावों में
एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकेंगे. यह स्थिति भाजपा के लिए परम सुखदायक है.
मायावती अपने भाई-भतीजे को पार्टी की
ज़िम्मेदारियाँ देकर दलितों में अपनी पकड़ फिर मज़बूत बनाना चाहती हैं लेकिन बदली
परिस्थितियों और मतदाताओं के नये वर्ग की अपेक्षाओं के अनुरूप राह चुनने की शायद
नहीं सोच रहीं.
अखिलेश यादव से ज़्यादा ठगा हुआ और कोई
नेता आज अनुभव नहीं कर रहा होगा. उन्होंने मायावती का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार
ही इसलिए किया था कि भाजपा को हराने के लिए जिन दलित वोटों का सहारा मिलेगा वे आगे
भी उनकी राजनीति के सारथी बनेंगे. उनके लिए तो ‘माया
मिली न राम’ वाली स्थिति है. परिवार और चाचा से अखिलेश ने
वैर लिया, पिता को किनारे किया, विपरीत
सलाह के बावज़ूद बसपा से तालमेल किया और हाथ कुछ आया नहीं. उनके लिए आगे की राह
कठिन और अनिश्चित है, यद्यपि उनके पास लम्बी पारी है.
और, चंद्रबाबू
नायडू? पिछले साल तक एनडीए में मोदी के साथ रहे नायडू ने
आंध्र की राजनीति का गणित लगाकर न केवल मोदी का साथ छोड़ा,
बल्कि उनके खिलाफ आक्रामक रुख अपनाते हुए एक राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा बनाने की
सक्रियता दिखाई. आज वे अपने राज्य में लगभग पैदल हैं. तेलुगु देशम के छह में से
चार राज्य सभा सदस्य भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गए और नए मुख्यमंत्री जगन
रेड्डी उनकी की बनाई इमारत तक तोड़ने पर उतारू हैं. जगन ने जैसा समर्थन पाया है,
उसे देखते हुए नायडू को राज्य में अपना आधार बचाने के लिए बहुत पापड़
बेलने होंगे.
उधर, तीन
प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता ऐसे हैं जिन्होंने चुनावों में मोदी विरोध को अपनी
राजनीति का केंद्र नहीं बनाया था. उड़ीसा में नवीन पटनायक, तेलंगाना
में चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी ने या तो भाजपा के प्रति नरम
रुख रखा या कांग्रेस एवं भाजपा से बराबर दूरी बनाए रखी. इन्होंने नई स्थितियों में
मतदाता को समझने में सफलता पाई. ये तीनों
ही अपने-अपने राज्यों में निश्चिंत होकर शासन चला रहे हैं. उनकी पार्टियों में कोई
भितरघात नहीं है, कोई पार्टी छोड़ कर नहीं जा रहा, किसी तरह की ‘खरीद-फरोख्त’ की
शिकायत भी उनकी तरफ से नहीं आ रही.
तो क्या रह निष्कर्ष निकाला जाए कि
मोदी-विरोधी क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी राजनीति की कीमत चुकानी पड़ रही है और
भाजपा से बैर नहीं पालने वाले नेता इसी कारण अपने राज्यों में निश्चिंत हैं?
यह तो साफ है कि जो क्षेत्रीय क्षत्रप धारा के विरुद्ध तैरे या जो
जनता का मन समझ नहीं पाए या जो अपनी राजनीति के कैदी रहे, उन्हें
मुँह की खानी पड़ी.
ममता बनर्जी,
मायावती, अखिलेश यादव और नायडू को अपने-अपने
राज्यों में प्रासंगिक और प्रभावशाली बने रहने के लिए अपनी राजनीति बदलनी होगी
क्योंकि मतदाता बदल रहा है. कभी हैदराबाद को आईटी सिटी बनाने के लिए ख्यात नायडू
को सोचना होगा कि मतदाता ने उन्हें हाशिए पर क्यों धकेला. बेवजह गरजने की बजाय
ममता को इस पर मंथन करना चाहिए कि 2011 में वाम गढ़ ध्वस्त कर तृणमूल कांग्रेस को
सत्ता सौपने वाला बंगाल अब उनसे क्यों रूठ रहा है. मायावती और अखिलेश की निगाह
अपने जातीय वोट बैंक के भीतर उभरते महत्वाकांक्षी युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर होनी
चाहिए.
पारम्परिक वोट बैंक के सहारे आगे की नैया
आसानी से पार नहीं होगी. अगले विधान सभा चुनावों तक उनके पास पर्याप्त समय
है.
(प्रभात खबर, 27 जून, 2019)
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