Friday, June 28, 2019

मरी गोमती के लिए घड़ियाली आँसू क्यों?


अभी जिस दिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की मॉनीटरिंग कमिटी ने गोमती नदी को इतनी ज़्यादा प्रदूषित बताया कि उसका पानी पीना और उसमें नहाना तो दूर, उसके किनारे टहलने से भी मनुष्य बीमार पड़ सकते हैं, उस दिन से फिर गोमती चिंता और चर्चा के केंद्र में हैं. ऐसा बीच-बीच में होता रहता है. कभी नदी में ऑक्सीजन इतनी कम हो जाती है कि मछलियाँ तक मर जाती हैं. कभी किसी की नज़र खुले नालों के सीधे नदी में गिरने पर पड़ जाती है. तब गोमती की चिंता में आँसू बहाए जाते हैं. शासन-प्रशासन से लेकर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, एनजीओ  और संवेदनशील नागरिक तक कुछ हरकत में आते हैं. बयान दिए जाते हैं, घोषणाएँ की जाती हैं, स्वयंसेवा होती है. कुछ दिन बाद सब गोमती को भूल जाते हैं. गोमती का मरना फिर शुरू हो जाता है.

आखिर इस रिपोर्ट में चौंकने वाले बात क्या है कि गोमती नदी में ऑक्सीजन शून्य हो चुकी है और घातक बैक्ट्रीरिया 10 हज़ार गुणा बढ़ गए हैं? अब तो इसे नदीकहना अपने को और सम्पूर्ण प्रकृति को ठगना है. केंद्र से लेकर राज्य सरकार और उसके प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों तथा नगर निगम तक सबको पता है कि खुले नाले शहर का मल सीधे गोमती में गिराते हैं. वे पहले भी इसी तरह गिरते थे, आज भी खुले आम गिर रहे हैं और निकट भविष्य में उनके बंद होने या एसटीपी से साफ होने की कोई सम्भावना नहीं है.

वे सब यह भी जानते हैं कि पिछले कई वर्षों में नदी की सफाई के बहाने अरबों-खरबों रु बहा दिए गए हैं. पहले गंगा एक्शन प्लानऔर अबनमामि गंगेपरियोजना के अंतर्गत गोमती नदी को निर्मल बनाने के नाम पर भारी-भरकम बजट फूका जा चुका है. कितने वर्ष से हम एसटीपी का शोर सुन रहे हैं. नालों का पानी साफ करके ही नदी में डाला जाए, इस पर कितनी ही सरकारों के कितने ही मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों की घोषणाएँ हम सुनते-पढ़ते रहे हैं. बड़े-ब‌ड़े दावों के बीच शहर का मल-मूत्र नालों से सीधे गोमती में गिरना जारी रहा.

एनजीटी ने यह मॉनीटरिंग कमिटी चूँकि हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित की है, इसलिए रिपोर्ट में खरी-खरी कही गई है. सरकारी समितियाँ तो सिर्फ सच्चाई पर पर्दा डालने का काम करती हैं. इस कमिटी की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि गोमती की इस दुर्दशाके लिए राजनैतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और आला अधिकारियों की दायित्वहीनता ज़िम्मेदार है. प्रदेश सरकारों को सीधे ज़िम्मेदार बताया गया है क्योंकि नदी का प्रदूषण कम करने के लिए उन्होंने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया. इशारा तो यह भी किया गया है कि मॉनीटरिंग कमिटी अपना काम ठीक से न कर पाए, इसके लिए अड़ंगे लगाए गए.

नदियों को गंदे नाले और कचरा ही प्रदूषित नहीं करते. नदी को ज़िंदा रहने के लिए उसका पूरा पर्यावरण चाहिए. जल-ग्रहण क्षेत्र अवैध कब्जों से मुक्त हो, घास-पत्ती और पेड़-पौधे हों, उसके प्राकृतिक जल-स्रोत अबाध हों, मानव-हस्तक्षेप न्यूनतम हो, आदि-आदि. इस हिसाब से गोमती कबके मृतप्राय हो चुकी. पिछली अखिलेश सरकार ने गोमती रिवर फ्रण्ट के नाम पर नदी को कंक्रीट की विशाल दीवारों में बांध कर बिल्कुल ही मार दिया.

नदी के ज़िंदा रहने की शर्त यह है कि उसके दोनों ओर डेढ़-दो सौ मीटर के दायरे में प्रकृति से कोई छेड़-छाड़ न हो. वहाँ  किसी निर्माण का सवाल ही नहीं था.  शहर का कचरा शोधित किए बिना उसमें न बहाया जाए, यह काम बहुत मुश्किल नहीं था. किसी ने ज़िम्मेदारी के साथ यह काम किया क्या?

शासन-प्रशासन से अब भी कोई आशा बची है क्या?

(सिटी तमाशा, नभाटा, जून 29, 2019) 
   

     


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