Friday, August 30, 2019

राजधानी पर बढ़ता दवाब और टेक्नॉलजी




चंद रोज पहले नए बेसिक शिक्षा मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) सतीश द्विवेदी ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में घोषणा कर दी कि बेसिक शिक्षा परिषद का कार्यालय इलाहाबाद से लखनऊ लाया जाएगा. इलाहाबद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन आजकल इसलिए आंदोलित है कि शिक्षा सेवा न्यायाधिकरण की स्थापना लखनऊ में की जाने की तैयारी है. कुछ अन्य न्यायाधिकरणों को भी इलाहाबाद से लखनऊ लाने की चर्चा से नाराज़ कम्पनी लॉ ट्रिब्यूनल बार एसोसिएशन ने भी एक दिन की हड़ताल की.

वकीलों के अपने व्यावसायिक हित भी हो सकते हैं लेकिन असल मुद्दा यह है कि पहले से ही विभिन्न सरकारी कार्यालयों, विधान भवन, सचिवालय, और वीवीआईपी जमावड़े के कारण दिन पर दिन अस्त-व्यस्त होते लखनऊ पर इन कार्यालयों का अतिरिक्त बोझ क्यों डाला जाना चाहिए. महालेखाकार का विशाल दफ्तर लखनऊ लाने की कोशिश भी कई बार की जा चुकी है. 

राजधानी के मास्टर प्लान में यह सुझाव शामिल रहता है कि सरकारी कार्यालयों के नए बनने वाले भवन, मंत्री-आवास आदि मुख्य शहर से दूर बनाए जाएं ताकि मुख्य शहर में वीआईपी दवाब कम से कम बढ़े. मास्टर प्लान के कई बेहतर सुझावों-निर्देशों की तरह यह सलाह भी कभी मानी नहीं गई. सारा वीआईपी दवाब दो-चार किमी के दायरे में बढ़ता गया. लोक भवन बनने से पहले विधान सभा मार्ग आम जनता के लिए और अक्सर अपना दुखड़ा लेकर धरने पर बैठने वालों के लिए भी सुलभ था. अब यह सपना जैसा हो गया.

विधान भवन के चारों तरफ अब वीआईपी-अराजकता का राज है. लोक भवन के पड़ोस में भाजपा का प्रदेश मुख्यालय है जिसकी चकाचौंध और व्यस्तता अब अपने चरम पर है. परिणाम यह है कि विधान सभा मार्ग सहित यह पूरा इलाका दिन भर में कई बार देर तक वीआईपी सुरक्षा और माननीयों के वाहन काफिलों के कारण आम जनता के लिए निषिद्ध हो जाता है. सड़कों के दोनों तरफ वीआईपी वाहनों की पार्किंग बन जाने से खूब चौड़ा विधान सभा मार्ग भी दिन में संकरा हो जाता है.

सूचना-क्रांति के इस दौर में कार्यालयों की भौतिक दूरी कोई समस्या नहीं रह गई है. यह देख कर आश्चर्य होता है कि जिले के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की बैठकें आए दिन लखनऊ में हुआ करती हैं. सचिवालय भवनों के चारों तरफ उस दिन आम जनता का चलना दूभर हो जाता है. जिले के अधिकारियों के साथ वीडियो-कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं की जातीं? दूर के जिलों से अधिकारी गाड़ियां दौड़ाते हुए लखनऊ आते हैं. समय, ईंधन और भत्तों के बोझ से भी इस तरह बचा जा सकता है. जिलों के साथ ही क्यों, लखनऊ स्थित विभिन्न कार्यालयों के बीच भी वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग अत्यंत सुविधाजनक होगी. यातायात का दवाब भी कम होगा.

समस्या यह है कि सरकारी तंत्र के काम-काज में टेक्नॉलजी तो शामिल हो गई लेकिन मानसिकता नहीं बदली. निजी कम्पनियों और सरकारी दफ्तरों के काम-काज में इसीलिए जमीन-आसमान का फर्क है. सरकारी अफसरों को कम्प्यूटर-लैपटॉप मिले हैं लेकिन उसका इस्तेमाल करने के लिए उन्हें एक ऑपरेटर चाहिए होता है. ऑपरेटर जिस दिन नहीं आता उस दिन काम नहीं होता.

आज भी सरकारी कार्यालयों में ई-मेल से स्वीकृतियां नहीं दी जातीं या बहुत ही कम. लाल फीता बंधी फाइलों में नोटिंग करने की लचर व्यवस्था के सामने टेक्नॉलजी फेल है. फाइलें उसी सुस्त रफ्तार से चपरासियों-अर्दलियों के कंधों पर सवार होकर चलती हैं और अक्सर खोजाती हैं. उन्हें ढूंढने का मंत्र बाबू लोग खूब जानते हैं.
बहरहाल, बात राजधानी पर दवाब कम करने की है. वीआईपी को चूंकि कोई दिक्कत्त होती नहीं, इसलिए इस बारे में सोचा भी नहीं जाता. जब किसी बड़े को कष्ट होता है तभी कुछ चीजें हिलती हैं. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 31 अगस्त, 2019)        


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