Friday, August 09, 2019

इस व्यवस्था में एक माँ का ‘ज़ल्लाद’ होना


घटना कोई बीसेक दिन पुरानी है लेकिन अक्सर अब भी चर्चा हो जाती है- कैसी माँ होगी वह! कैसा उसका कलेजा होगा! जिगर के टुकुड़े को मार डाला!

केजीएमयू में एक माँ ने अपने तीन मास के बीमार बच्चे को अस्पताल की चौथी मंजिल से फेंक दिया था. गोरखपुर में जन्मे उस शिशु को पीलिया रोग हो गया था. हालत बिगड़ने पर उसे केजीएम यू लाया गया. यहाँ डॉक्टरों ने बताया कि बच्चे का लिवर खराब हो गया है. बचना मुश्किल है. माँ ने रात में चुपके से बच्चे को ऊपर से फेंक कर मार डाला.

पति से लेकर डॉक्टरों-नर्सों, दूसरे तीमारदारों और खबर सुनने वाले सभी ने उस माँ को खूब धिक्कारा. मीडिया में यह एक सनसनी की तरह चली. एक माँ के ज़ल्लाद बन जाने की खूब-लानत-मलामत की गई. बंदरिया तक मरे बच्चे को छाती से चिपकाए रहती है. वह बच्चा तो ज़िंदा था!

असामान्य ही रही होगी वह माँ. या, घर-परिवार के हालात और बच्चे की लाइलाज बीमारी के सदमे ने उसे असामान्य बना दिया होगा. बाद में वह फूट-फूट कर रोई. उस परिवार के हालात और माँ के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश शायद ही की गई हो.

क्या इस लोमहर्षक घटना का कोई सम्बंध हमारी चिकित्सा व्यवस्था से है? क्या इसके मूल में गरीबी और असाध्य बीमारियों से न लड़ पाने की विवशता भी कहीं होगी? उस माँ को धिक्कारते हुए क्या हमारे चिंतन में यह मुद्दा भी आता है?  लाइलाज बीमारी से जूझते परिवारों में क्या अक्सर, परम विवशता में यह सुनने को नहीं मिलता कि इससे तो अच्छा था मर ही जाता.यह मृत्यु की कामना नहीं, इलाज न मिल पाने की कराह होती है. यह मूक चीख कौन सुनता है?

यह भयानक घटना 23 जुलाई की है. एक दिन पहले 22 जुलाई को मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने विधान सभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि प्रदेश में अप्रैल 2017 से अब तक यानी करीब सोलह महीने में 400 बच्चे परिवार वालों ने छोड़ दिए. इन परित्यकत बच्चों के भी माँ-बाप या निकट सम्बंधी रहे होंगे. इतने बच्चों का आखिर क्यों परित्याग कर दिया गया होगा?

परित्यकत शिशुओं में कितनी बालिकाएं हैं, यह उस उत्तर में शामिल नहीं है लेकिन तय है कि सब कन्याएं नहीं होंगी. जो होंगी वे सिर्फ कन्या होने के नाते ही छोड़ी नहीं गई होंगी. कितनी विवशताएं उन परिवारों के सामने रही होंगी, इसका हिसाब कौन लगा सकता है?

देश ने बहुत तरक्की की है लेकिन परमाणु बम और चंद्रयान की सच्चाई के बावज़ूद एक बड़ी आबादी किसी तरह जीवित रहने के संग्राम में फँसी है. साढ़े चार सौ रु में दो केले देने वाले होटल भरे हुए हैं. उसके बाहर जूठन बीनने वाली बड़ी भीड़ है. आलीशान अस्पताल में लाखों की लागत से शरीर की चर्बी गलाने का इलाज होता है और पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार से सैकड़ों बच्चे मरते और अपंग होते रहते हैं!

इस सच्चाई के आईने में सोलह महीनों में परित्यक्त 400 बच्चों के चेहरे याद कीजिए. पिछले वर्ष देवरिया के बाल-गृह में लावारिस बच्चों से हुए ज़ुल्म का ध्यान कीजिए और तब उस ज़ल्लादमाँ की विवशता को समझने की कोशिश कीजिए जिसने अपने लाइलाज बच्चे को अस्पताल की चौथी मंजिल से फेंक दिया. उसे हज़ार बार कोसते वक्त यह मत भूलिए कि उसने बच्चे को घर ले जाकर नहीं, अस्पताल से फेंका. अस्पताल, जहाँ अंतिम क्षण तक प्राण बचाने की कोशिश की आशा की जाती है. 
         
(सिटी तमाशा, नभाटा, 10 अगस्त, 2019) 

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