Friday, August 16, 2019

पकवानों की तश्तरियां गोलियों में बदल गईं !


इस समाचार से कतई आश्चर्य नहीं हुआ कि इंदिरा नगर में एक व्यक्ति ने अपने पड़ोसी पर सिर्फ इसलिए गोली चला दी कि पड़ोसी के बच्चे ने उसकी कार को छू लिया या हलकी खरोंच लगा दी. गोली से पड़ोसी का घरेलू सेवक घायल होकर अस्पताल पहुँच गया. पड़ोसी पति-पत्नी से गाली-गलौज और अभद्रता की शिकायत भी दर्ज हुई है.

कहने को ये सब पढ़े-लिखे, अच्छी नौकरीपेशा लोग हैं. उनके पास ठीक-ठाक मकान हैं और कार, वगैरह भी. सड़क पर कभी किसी के वाहन से खरोंच लग जाए या सामान्य टक्कर, तब तो हंगामा-फसाद होता ही है. पड़ोसियों में भी कार खड़ी करने या किसी के छूने से खरोंच लग जाने पर मार-पीट और मुकदमे बाजी के किस्से आम हो चले हैं.

जब लोगों के पास बड़े मकान और गाड़ियां नहीं थीं तब वे बेहतर इनसान और अच्छे पड़ोसी थे. आपस में सुख-दुख का नाता था. मिलते-जुलते थे, त्योहार मिलकर मनाते थे. रुमाल से ढकी पकवानों की तस्तरियां बच्चे एक-दूसरे के घर पहुंचाते थे. चाचा-चाची, दादा-दादी के रिश्ते बनते थे और पड़ोसी बच्चों में भाई-बहन का रिश्ता दूर-दूर चले जाने पर भी राखियों से जीवंत रहता था.

जब इंदिरानगर कॉलोनी बस रही थी, जहां पड़ोसियों में नामालूम-सी बात पर गोली चल गई, निर्माणाधीन मकानों के लिए पड़ोसी एक-दूसरे की मदद करते थे. चाय-पानी को पूछना तो आम था, सीमेण्ट और बिजली का सामान सुरक्षित रखने के लिए पड़ोसी अपना एक कमरा भी कुछ दिन को खाली कर देते थे. पड़ोस में मकान बनना और आबाद होना खुशी की बात होती थी.

अब मकान बड़े हो गए. इनसान खो गाया. कारें खड़ी करने की जगह के लिए तू-तू-मैं-मैं होती है. कुछ ही महीने पहले एक परिचित का फोन आया कि उनके पड़ोसी ने हमारी कार का शीशा पत्थर मारकर तोड़ दिया. क्यों? इसलिए कि उनकी कार पड़ोसी के गेट के सामने खड़ी थी. वे पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने में मदद चाहते थे. हमने कहा- कहां मुकदमेबाजी करेंगे. बातचीत से सुलटा लीजिए. वे बिदक गए कि ऐसे बेहूदे इनसान का मुंह नहीं देखेंगे, बात करना तो दूर.

बहुत समय नहीं हुआ जब एक अखबार के सम्पादक जी का मामला दूर तक गया था. उनके पड़ोसी ने ट्रक भर मौरंग उनके ठीक गेट के सामने गिरा दी. हटवाने को कहने पर झगड़ा किया. उनके कोई रिश्तेदार पुलिस में थे. सो, डराया-धमकाया भी. यह सोचकर बहुत तकलीफ होती है कि कोई कैसे अपने पड़ोसी का रास्ता बंद करा सकता है और लड़ने पर उतारू भी हो जाता है..

आखिर किस बात का इतना गुमान है? मकान और गाड़ियों दिमाग पर सवार हैं. बुद्धि-विवेक रसातल में. जिसके पास जितनी बड़ी गाड़ी और जितना बड़ा बंगला है, वह उतना ही ज़्यादा नशे में है. रिश्तेदारी किसी नेता या पुलिस अफसर से है तो नशा डबल. घर से बाहर निकलने की उनकी अदा, ड्राइवर और नौकरों पर हुक्म चलाने का उनका अंदाज़ और चेहरे पर दूसरों के प्रति उपेक्षा देखकर लगता है जैसे सारी कायनात उनकी है और उन्हीं के साथ जानी है.

उन्होंने अपनी गाड़ी में ऐसा सायरन लगवा रखा है जो गाड़ी छूते ही बजने लगता है. पड़ोसी के बच्चे के लिए यह आनंददाई खेल है. वह हर बार गाड़ी छू लेता है. मासूम बच्चे के इस खेल पर मोहित होने की बजाय उसे डपटने, उसके माता-पिता से झगड़ा कर गोली चला देने वाले पड़ोसी को क्या कहेंगे? ऐसे लोगों पर गुस्सा नहीं तरस आता है. उनका जीवन मिथ्या अभिमानों, तनावों, कुण्ठाओं और आत्ममुग्धता से भरा है! उनके पास ज़िंदगी है ही नहीं.

सीधा और सरल इनसान बने रहना क्या इतना मुश्किल हो गया है?   
  
(सिटी तमाशा, नभाटा, 17 अगस्त, 2019) 
  

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

सच्चाई बयान करता हुआ सुन्दर लेख !