Sunday, August 04, 2019

कर्नाटक में कैसे लोकतंत्र की’ विजय’ हुई?


तो, कर्नाटक में येदियुरप्पा ने एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली है और फिलहाल सदन में विश्वास मत भी प्राप्त कर लिया. 2018 के विधान सभा चुनाव परिणाम आने के बाद से ही वे इस कुर्सी के लिए बहुत कसमसा रहे थे क्योंकि तब वे मात्र ढाई दिन के मुख्यमंत्री रह पाए थे. हालांकि कांग्रेस (65 विधायक) ने जद-एस (58 सीटें) के साथ मिलकर सरकार बनाने का ऐलान कर दिया था लेकिन राज्यपाल ने भाजपा को सबसे बड़ा दल (79 सीटें) होने के नाते न केवल सरकार बनाने का न्यौता दिया, बल्कि बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 15 दिन का समय भी दे दिया था. इससे पहले कि विधायकों की खरीद-फरोख्त में माहिर येदियुरप्पा अपना खेल शुरू करते, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें तीसरे ही दिन बहुमत साबित करने को कहा. आखिर विधान सभा में एक भावुक भाषण के बाद येदियुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया था.

कुमारस्वामी के नेतृत्व में बनी कांग्रेस-जद(एस) सरकार को गिराने की येदियुरप्पा की कोशिशें उसी समय से शुरू हो गई थीं जो अंतत: बीती 23 जुलाई को सफल हो गई. विधान सभा में कुमारस्वामी सरकार का विश्वास मत गिर जाने के बाद उत्साह से छलकते येदियुरप्पा ने कहा- यह लोकतंत्र की जीत है... कुमारस्वामी सरकार से जनता ऊब चुकी थी.”

येदियुरप्पा इस तरह चौथी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर बैठे हैं. पिछले तीन बार उन्हें बीच में ही यह कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. पहली बार 2007 में चंद महीने. फिर 2008 से 2011 तक, जब उन्हें भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों में लिप्त पाए जाने पर भाजपा ने ही हटा दिया था. और तीसरी बार 2018 में ढाई दिन.

येदियुरप्पा को शायद आशंका होगी कि कहीं इस बार भी उनका कार्यकाल पूरा न हो. इसीलिए उन्होंने न्यूमरोलॉजी का सहारा लिया है और अंग्रेजी में अपने नाम की स्पेलिंग से एक डीहटा दिया है. पहले वे येद्दीथे तो अब सिर्फ येदिरह गए हैं!  

आखिर यह कैसे लोकतंत्र की विजय है जो विपक्षी विधायकों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर उनसे इस्तीफा दिलवाने और बंगलूर से दूर मुम्बई के किसी होटल में कैद रख कर हासिल की जाती है?

किसी विधायक का सदन या अपनी पार्टी से इस्तीफा उसका निजी निर्णय हो सकता है लेकिन एक-एक कर करीब डेढ़ दर्ज़न विधायकों का अलग-अलग दलों से इस्तीफा देने का क्या कारण हो सकता है? अगर इतने विधायकों को एक साथ अपने-अपने दलों से मोहभंग भी हो गया तो इस्तीफा देने के बाद उनका अपने राज्य से बाहर जा छुपना किस कारण हुआ होगा? उन्होंने आखिर किस मज़बूरी में अपने इस्तीफे दूर से भिजवाए और विधान सभाध्यक्ष के बुलावे पर भी उनके सामने उपस्थित नहीं हुए? लोकतंत्र तो ऐसी लुका-छिपी, बाध्यता और संवादहीनता का नाम नहीं है.

येदियुरप्पा के शब्दकोश में लोकतंत्र की शायद यही परिभाषा है. उन्हें इसकी आदत हो चुकी है. याद कीजिए 2008 के विधान सभा चुनाव के बाद का घटनाक्रम, जब भाजपा को कर्नाटक में बहुमत से तीन सीटें कम मिली थीं. राज्यपाल ने स्वाभाविक ही उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था. किसी दक्षिणी राज्य में भाजपा की वह पहली सरकार थी और मुख्यमंत्री बने येदियुरप्पा को इसका श्रेय मिला था. वे बहुत उत्साहित थे लेकिन बहुमत के लिए कम से कम तीन और विधायकों के समर्थन की आवश्यकता थी.

तीन विधायकों का समर्थन हासिल करना किसी पार्टी के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए था लेकिन येदिरुप्पा ने दूसरा ही रास्ता निकाला. उन्होंने कांग्रेस के तीन और जद (एस) के चार विधायकों से सौदा कर लिया. ये सातों विधायक भाजपा सरकार को समर्थन देते या उस पार्टी में शामिल हो जाते तो दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित होकर उनकी सदस्यता चली जाती. फिर वे उस विधान सभा के कार्यकाल तक न उप-चुनाव लड़ सकते थे और न ही कोई संवैधानिक पद (जैसे मंत्री) पा सकते थे.

दूसरे दलों के विधायकों को तोड़ने और उन्हें  अयोग्यघोषित होने से बचाने के लिए येदियुरप्पा ने नया तरीका निकाला था.  उन सात विधायकों से सदन की सदस्यता से इस्तीफा दिलवा दिया. फिर उन्हें भाजपा में शामिल कर लिया. उनकी खाली हुई सीटों से उन्हें भाजपा के टिकट पर उप-चुनाव लड़वा दिया. सात में से पांच विधायक भाजपा के टिकट पर जीत गए. उन्हें मंत्री बना दिया गया. दल-बदल कानून का यह चोर दरवाजा खोलने का श्रेय येदियुरप्पा को जाता है. तबसे इस फॉर्मूले पर कुछ और राज्यों में अमल हो चुका है. 

2008 में मुख्यमंत्री बने येदियुरप्पा 2011 आते-आते भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों में फँस गए, लोकायुक्त ने उन्हें खनन घोटाले में दोषी पाया. तब भाजपा को उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना पड़ा था. इससे क्षुब्ध येदियुरप्पा ने भाजपा छोड़ दी और अपना अलग दल बना लिया. भाजपा से खफा येदियुरप्पा ने तब  2008 में बहुमत जुटाने के उस खेल की पोल खोलते हुए अफसोस जाहिर किया था कि मुझे वैसा अनैतिक काम नहीं करना चाहिए था. उन्होंने यह भी बताया था कि उस अभियान का नाम ऑपरेशन लोटसरख गया था.

2018 में कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस-ज (एस) की सरकार बनने के बाद येदियुरप्पा इसी ऑपरेशन लोटसमें लग गए थे. (2014 में वे फिर भाजपा में शामिल हो चुके थे.) कांग्रेस-जद(एस) गठबंधन के तीखे अंतर्विरोधों ने येदियुरप्पा की मदद की. गठबंधन सरकार से अपने-अपने कारणों से असंतुष्ट विधायकों से उनका सौदा पट गया. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने भी येदियुरप्पा को विधायकों से सौदेबाजी में पूरी मदद की. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी घोषित रूप से हर बाजी किसी भी प्रकार जीतने की ठाने हुए है. चुनाव में नहीं तो चुनाव के बाद दूसरे तरीकों से. उन्होंने गोवा, मणिपुर और अरुणाचल में यही किया. उत्तराखण्ड में भी ऐसा ही करने की कोशिश की थी लेकिन तब उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से उनकी बाजी उलटी पड़ गई थी.

कर्नाटक में जो हुआ वह लोकतंत्र की जीत किसी भी रूप में नहीं है, बल्कि उससे हमारा संविधान शर्मशार हुआ है. येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने की तिकड़मों से लोकतंत्र का मखौल उड़ा है. दल-बदल विरोधी कानून बन जाने के बावजूद सत्ता और शक्ति की लालच से दल-बदल के चोर दरवाजे खोलना और शीर्ष पदों पर बैठे लोगों का उसे प्रोत्साहित करना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. और मज़ाक देखिए कि वे इसे लोकतंत्र की रक्षा कहते हैं!

कर्नाटक विधान सभा में पिछले दिनों जो कुछ हुआ उस पर कई तरह के सवाल उठे. विधान सभाध्यक्ष को राज्यपाल के पत्र लिखने पर सवाल उठे तो सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर भी प्रश्न उठे कि क्या वह विधान सभाध्यक्ष को विधायकों के इस्तीफे पर निर्देश दे सकता है या पार्टियों को ह्विप जारी करने से रोक सकता है.

विधान सभाध्यक्ष के मंतव्य पर भी अंगुली उठी. इससे खिन्न होकर विधान सभाध्यक्ष ने येदियुरप्पा सरकार के विश्वास मत हासिल करने के साथ ही इस्तीफा दे दिया है. इससे पूर्व उन्होंने इस्तीफा देने वाले विधायकों को अयोग्य घोषित भी किया. अयोग्य घोषित किए गए विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट जाने का ऐलान किया है. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो वे कहीं के न रहेंगे. जिस लालच में उन्होंने कुमारस्वामी की सरकार गिराने में मदद की वह फिलहाल हासिल नहीं हो पाएगा.  प्रकारांतर से दूसरी मदद मिल जाए तो अलग बात है.  

चिंता की बात यह है कि यह पूरा नाटक लोकतंत्र और संविधान के नाम पर खेला गया. संविधान निर्माताओं ने क्या ऐसे समय और ऐसे नेताओं की कल्पना की होगी?   
     
(सण्डे नवजीवन, 4 अगस्त, 2019)     
      
    

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