Wednesday, August 14, 2019

लोकतंत्र- गर्व और चेतावनी


ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद होने के हिलोरें मारती भारतीय तमन्ना से उपजे आंदोलन के दवाब में जब भारत को स्वतंत्र करने पर विचार किया जाने लगा था तो अधिकतर ब्रिटिश नेता मानते थे कि उनके चले जाने के बाद यह देश एक नहीं रह पाएगा. विंस्टन चर्चिल तो पहले से ही डंके के चोट पर कहते थे कि स्वतंत्र होते ही भारत के कई टुकड़े हो जाएंगे. अपने शुरुआती साल भारत में गुजारने और बाद में यहां के बारे में बेहतरीन कृतियाँ रचने वाले रुडयार्ड किपलिंग से लेकर अमेरिकी नेताओं-लेखकों तक को पक्का लगता था कि इतनी विविधताओं वाला देश एक रह ही नहीं सकता.

और तो और, 1969 में जबकि हमारे देश को स्वतंत्र होने के बाद अखण्ड रहते हुए 22 वर्ष हो चुके थे, ब्रिटिश पत्रकार डॉन टेलर ने लिखा था कि –सबसे बड़ा सवाल अब भी यही है कि क्या भारत एकताबद्ध रह सकेगा या इसके टुकड़े हो जाएंगे? जब हम इतने बड़े देश को देखते है, इसकी 52 करोड़ 40 लाख की आबादी, उसकी अलग-अलग 15 बड़ी भाषाओं, उसके टकराते धर्मों और कई-कई जातियों के बारे में सोचते हैं तो यह अविश्वसनीय लगता है कि यह एक देश के रूप में कायम रह सकेगा.”  लेकिन उसने यह भी लिखा था कि “फिर भी कोई बात है जो भारत के अस्तित्व के प्रति आश्वस्त करती है. उसे सिर्फ भारतीयता कहा जा सकता है.”

15 अगस्त 1947 से हम 15 अगस्त 2019 तक आ गए हैं. स्वतंत्र भारत की अखण्डता के बारे में ब्रिटेन ही नहीं पूरी दुनिया की आशंकाएं एवं भविषवाणियां कबके निराधार साबित हो गई और इस भारतीयता पर दुनिया हमें हैरत और गर्व से देखती है. यह भारतीयता न केवल कायम है और देश को एक सूत्र में पिरोए हुए है, बल्कि लोकतंत्र की अपनी बगिया भी हरी-भरी और रंगीन बनाए रखे है, जबकि भारतीय आज़ादी के आस-पास स्वतंत्र हुए कई देश अपनी एकता कायम रख सके न लोकतंत्र.

सन 1952 का आम चुनाव देखने के लिए कई विदेशी पर्यवेक्षक और पत्रकार भारत आए थे. हाल ही में सत्रहवीं लोक सभा के लिए सम्पन्न चुनावों की प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए भी कई विदेशी राजनयिक और पत्रकार- दल भारत भर में घूम रहे थे. उनके लिए यह एक आश्चर्यलोक की तरह है कि यहां किसी सुदूर वन में मात्र एक मतदाता के लिए पूरा मतदान केंद्र बनाया जाता है, हिम ढके पर्वत प्रदेशों की स‌ड़क-विहीन ऊंचाइयों में मतदान कराने के लिए चुनाव-दल मीलों पैदल या खच्चरों पर यात्रा करता है और कहीं नावों से अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें ले जाई जाती हैं ताकि एक भी मतदाता मतदान के अपने दायित्वपूर्ण अधिकार से वंचित न होने पाए.

जिन विकसित और तथाकथित सभ्य देशों ने अपने यहां अश्वेतों, महिलाओं और गैर-स्नातकों को मतदान का अधिकार देने में दशकों लगा दिए, उन्हें यह देखकर अचम्भा होना स्वाभाविक है कि भारत ने कैसे पहले ही दिन से अपने सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार दे दिया. सीधे-सादे, भोले-भाले अनपढ़ और गरीब ग्रामीण जब अपने सबसे अच्छे वस्त्रों में सज-धज कर मतदान केंद्रों की ओर जाते हैं तो किसी मेले का-सा कौतुकपूर्ण दृश्य भले रचते हों लेकिन लोकतंत्र के इन्हीं रखवालों ने तानाशाही प्रवृत्ति वाले शासकों ही नहीं, बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का दावा करने वाले सत्ताधीशों को धूल चटाने में कोई संकोच नहीं किया. सत्ता में बैठाए जाने के बाद नेता चाहे जितना इतराएं, उन पर नकेल कसने की ज़िम्मेवारी भारतीय मतदाता ने खूब निभाई है.

अपने लोकतंत्र पर गर्व से इतना इतरा चुकने के बाद उसकी चुनौतियों, आसन्न खतरों और अब तक अधूरे या भूले-बिसरे वादों-संकल्पों की चर्चा करना आवश्यक है ताकि हमें लोकतंत्र के आसन्न और सम्भावित खतरों का बराबर ध्यान रहे. ताकि हम सजग रहें.

अपनी लोकतांत्रिक शासन व्यव्स्था के संचालन के लिए हमने एक संविधान बनाया और उसे अपनो को ही अर्पित किया है. यानी संविधान के पालन का उत्तरदायित्व हमने अपने पर ही डाला है- “हम भारत के लोग, भारत को एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उनमें बंधुत्व बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं.”

पूछना चाहिए कि क्या सही अर्थों में हम ऐसा कर पाए हैं? क्या हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय मिल रहा है? क्या विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता वास्तव में सबको निर्विघ्न मिली है? सामाजिक प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हर नागरिक को उपलब्ध है, क्या इसका दावा किया जा सकता है? संविधान में लिखे उदात्त एवं उच्चतम मूल्य वाले शब्दों को हम व्यवहार में कितना उतार पाए हैं? क्या संविधान प्रदत्त कतिपय स्वतंत्रताओं पर अयाचित पहरे नहीं बैठ गए हैं?

ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं. यह भी देखना ज़रूरी है कि इन उच्चतम लोकतांत्रिक मूल्यों को अमल में लाने के मामले में हम प्रगति करते रहे हैं या स्वतंत्रता के बाद कहीं पिछड़े भी हैं? आगे बढ़ रहे हैं तो यात्रा धीमी ही सही अभीष्ट दिशा में है. पिछड़ रहे हैं तो स्थिति चिंताजनक और लोकतंत्र की सेहत के लिए  हनिकारक है.

अगर चुनींदा एक प्रतिशत आबादी देश की कुल सम्पत्ति के 73 फीसदी भाग पर कुण्डली जमाए है और यह अनुपात बढ़ता जा रहा है तो सवाल उठता ही है कि यह कैसी आर्थिक समानता है? अवसर की भी यह कैसी समानता कही जाएगी जब बहुत सारे लोगों के सिर पर छत नहीं है कई लोग दुमहले-चौमहले में रह रहे हैं? गरीबी को रातों-रात उअड़नछू नहीं हो जाता था लेकिन गरीबी-अमीरी की खाई चौड़ी क्यों होती जा रही है?

लोकतंत्र का सिद्धांत यह स्वीकार करता है कि सत्ता और शक्ति के लिए संघर्ष होगा किन्तु यह संघर्ष शांतिपूर्ण और वैचारिक होना चाहिए. सत्ता के लिए हमारी लड़ाई वैचारिक से अधिक जाति, उप-जाति और धर्म के आधार पर क्यों होने लगी? चिंताजनक है कि जैसे-जैसे देश विभिन्न मोर्चों पर प्रगति करता जा रहा है जनता का यह विभाजन भी बढ़ता जा रहा है. क्यों? इस पर विचार अवश्य होना चाहिए.

हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है. विभिन्न अंतरों वाले हमारे समाज को दृढ़ चरित्र वाले ऐसे दूरदर्शी नेताओं की आवश्यकता होगी जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न कर दें.”

हम भारत के लोगों को, जिनमें हमारे नेताओं की गिनती भी शामिल है, गम्भीरता से सोचना होगा कि 1949 में दी गई यह चेतावनी क्या हम सुन और समझ रहे हैं?     
   
(प्रभात खबर, 15 अगस्त, 2019)  
      
      

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