Friday, November 01, 2019

ये हालात ऐसे नहीं सुधरने वाले



सांस लेने में अगर हम अपने फेफड़ों में जहर भर रहे हैं और जब नासिका-रंध्र उसकी बेचैन करने वाली दुर्गंध दिमाग तक पहुंचा रहे हैं तो किसी और विषय पर कैसे सोचा-लिखा जा सकता है! खतरनाक हद तक प्रदूषित हवा की एक मोटी परत वातावरण पर छाई हुई है. खेतों में जलती पराली से लेकर, धूल-धुआं, वाहनों का उत्सर्जन, निर्माण-कार्यों की गर्द, ढाबों-होटलों-घरों की गैसें, और भी जाने क्या-क्या हवा में घुला है जो रातों को गिरती ओस से ऊपर नहीं जा पा रहा. दिन में धूप की मंद पड़ती किरणें उसे भेद नहीं पा रहीं और ठहरी हवा उसे उड़ा नहीं सकती. रोगी बेहाल हैं, स्वस्थ मनुष्य रोगी बन रहे हैं और बच्चे बड़े खतरे में हैं.

हमारी हवा की गुणवत्ता का स्तर बहुत चिंताजनक होता जा रहा है. सरकार और प्रशासन आपात बैठककरके उससे निपटने के उपायों पर विचार कर रहे हैं. आदेश हैं कि निर्माण कार्य बंद करें, धूल-धुएं वाली जगहों पर पानी का छिड़काव करें, डीजल वाहनों को चौराहे से दूर खड़ा करें, वगैरह-वगैरह. सब काम बंद कर देने और पानी का छिड़काव करने से हवा कितनी साफ हो जाएगी? इस मौसम में हस साल राजभवन, मुख्यमंत्री आवास, सचिवालय, जैसी वीआईपी जगहों पर फायर ब्रिगेड की गाड़ियां सड़क और पेड़ों को पानी से तर करने में लगी रहती हैं. महामहिमों को कुछ राहत मिलती होगी लेकिन बाकी इलाके तो दम-घोटू बने रहते हैं.

विकास का ढांचा और जीवन-शैली नहीं बदलेगी तो लाख पानी छिड़किए, हवा साफ होने वाली नहीं. वह दिन पर दिन बिगड़ती जाएगी. वैसे भी पानी खत्म हो रहा है. धरती के रहे-बचे पानी में जहर घुल रहा है. फिर कहां से पानी छिड़किएगा? जिनके पास पैसा है, वे घरों में एयर-प्यूरीफायर लगा रहे हैं. हवा साफ करने में सक्षम पौधों की विक्री बढ़ रही है. बच्चों से कहा जा रहा है कि अधिक से अधिक घर के भीतर रहें. ऐसा ही रहा तो स्कूलों की छुट्टी भी की जाएगी. सांस के रोगियों को सलाह दी जा रही है कि अनावश्यक बाहर न निकलें. 

घर के भीतर कब तक छुपे रहेंगे और कैसे बचेंगे? घर में भी हवा बाहर से ही आएगी. एयर-प्यूरीफायर और छोटे पौधे मन का भ्रम भर हैं कि हमें बेहतर हवा मिल रही है. विकास का जो ढर्रा चल रहा है वह शहरों को नरक-कुण्ड में बदलता जा रहा है, नदियों को मार रहा है, तालाबों को खा गया है, पेड़ों की बलि ले रहा है. हमारी जीवन-शैली ऐसी है कि हम बेहिसाब उपभोक्ता सामान खरीद कर कचरे के ढेर पैदा कर रहे हैं.

घरों की दीवारों-दरवाजों पर बड़े शान से महंगे पेण्ट लगवाने वाले, दिन-रात एसी चलाने वाले, बिना ज़रूरत गाड़ियां दौड़ाने वाले, आबादी में प्रदूषक कारखाने चलाने वाले, बेहिसाब पानी खर्च करने वाले, नदियों में मैला गिराने वाले और हरियाली के दुश्मन हम विकास और प्रगति के ऐसे रास्ते पर हैं जो मानव-सभ्यता की कब्र खोद रहा है. प्रगति का आधुनिक रास्ता प्रकृति और जीवन का शत्रु है.

पर्यावरणविद कह रहे हैं कि शहरों में 33 फीसदी हरियाली होगी तभी यह प्रदूषण रुकेगा. गौर किया जाना चाहिए कि 33 फीसदी हरियाली का पैमाना बहुत पुराना है जब धरती बेहतर हालात में थी. आज हमने जहरीली गैसों का उत्सर्जन इतना बढ़ा दिया है कि हरियाली का यह आवश्यक माना जाने वाला अनुपात बहुत कम पड़ेगा. 

हमें कंक्रीट के नहीं, चौड़ी पत्तियों वाले घने जंगल चाहिए. प्रकृति-सम्मत विकास का मार्ग चाहिए. गांधी जी की मूर्तियों पर फूलमाला नहीं, उनके रास्ते पर अमल चाहिए. है कहीं ऐसा चिंतन?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 2 नवम्बर, 2019) 

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