Saturday, November 23, 2019

गठबन्धन यानी मोल-भाव की राजनीति



चुनावी राजनीति के खेल अजब-गजब ही होते हैं. थोड़ी हार-जीत भी शेर को बिल्ली और बिल्ली को शेर बना देती है. महाराष्ट्र ताज़ा और सबसे अच्छा उदाहरण है. भाजपा बहुमत पा गई होती तो शिव सेना चुपचाप उसकी सारी बातें मान लेती. वह पिछला प्रदर्शन भी दोहरा पाती तो बात इतनी बिगड़ती नहीं. थोड़ी-बहुत तनातनी के बाद समझौता हो जाता. महाराष्ट्र में ही नहीं हरियाणा में भी भाजपा को उम्मीद से बहुत कम सीटें मिलीं. शिव सेना और उसके बीच इतनी रस्साकशी हुई  कि रिश्ता ही टूट गया. हरियाणा में भी नई-नई बनी जननायक जनता पार्टी ने गठबंधन करने के लिए भाजपा से उप-मुख्यमंत्री का पद झटक लिया. इस राज्य में उसकी जीती सीटों की संख्या पहले से काफी कम हो गई थीं, इसलिए उसे दुष्यंत चौटाला की शर्त माननी पड़ी. इसके बावज़ूद मंत्रिमंडल विस्तार कई दिन टला.

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों में भाजपा का कद घटना कितनी दूर तक असर कर रहा है, यह देखना हो तो झारखण्ड के राजनैतिक परिदृश्य पर नज़र डालिए. वहां एनडीए में भाजपा के सहयोगी दलों ने सीटों की मांग के लिए उस पर बहुत दबाव डाला और जब बात नहीं बनी तो वे भाजपा के ही विरुद्ध चुनाव मैदान में हैं. अखिल झारखण्ड छात्र संघ (आजसू), केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और नीतीश कुमार का जनता दल (यू) भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं. अंतिम समय तक सीटों के तालमेल की बात इन क्षेत्रीय संगठनों के दबाव में टूट गई. कारण सिर्फ यही है कि भाजपा हाल के दो विधान सभा चुनावों में कमजोर होकर उभरी. कमजोर होती बड़ी पार्टी से अधिकाधिक वसूल लेने की प्रवृत्ति गठबंधन के छोटे दलों में अब अनिवार्य रूप से पाई जाती है.

थोड़ा पीछे चलें तो गठबंधन की मज़बूरियां पर्त-दर-पर्त खुलती दिखती हैं. 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले आम धारणा यही थी कि भाजपा 2014 के चुनावों जैसा प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी. खुद भाजपा के भीतर ऐसा माना जा रहा था, हालांकि प्रकट तौर पर वे बड़े-बड़े दावे कर रहे थे. इसलिए उस समय भाजपा ने गठबंधन के सहयोगी दलों की मांगें आसानी से मान ली थीं. बिहार में जनता दल (यू) ने भाजपा के बराबर सीटें मांगी तो उसे देनी पड़ीं क्योंकि नीतीश कुमार वहां बड़ी ताकत हैं. लेकिन वहीं छोटे से दल लोजपा ने भी अपनी मांग बढ़ाकर रखी और खूब दबाव बनाया. परिणाम यह रहा कि भाजपा ने अपने हिस्से की सीटें कम करके लोजपा की मांग पूरी की थी. जद (यू) अपने हिस्से से एक भी सीट छोड़ने को तैयार न था.

शिव सेना- भाजपा  की ताज़ा तनातनी लोक सभा चुनाव के समय भी दिखाई दी थी. तब भी शिव सेना बराबर सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए अड़ी रही. अंतत: दो कम सीटों पर राजी हो गई थी. विधान सभा चुनाव से पहले भी इसी तरह की रस्साकशी हुई. चुनाव परिणामों में जैसे ही भाजपा की सीटें कम हुई हुए शिवसेना मुख्यमंत्री पद के लिए ज़िद ठान बैठी.

उत्तर प्रदेश में दो छोटी-छोटी जाति-आधारित पार्टियों से भाजपा का गठबंधन था. कुर्मियों के अपना दल ने 2014 में भाजपा के सहयोग से मिली दोनों से सीटें जीती थीं. 2019 में वह दो से ज़्यादा सीटें मांगने लगी जबकि भाजपा दो भी नहीं देना चाहती थी. अंतत: दो सीटें देनी ही पड़ीं. इसी तरह, सुहेलदेव राजभर पार्टी, जो सिर्फ विधान सभा चुनाव में भाजपा के साथ थी, लोक सभा की सीटें भी मांगने लगी और अंतत: मांगें नहीं पूरी होने पर भाजपा की प्रदेश सरकार से अलग हो गई. यह अलग बात है कि लोक सभा चुनाव नतीजों ने भाजपा का सिक्का जमा दिया.

महाराष्ट्र और हरियाणा में कमजोर साबित हुई भाजपा झारखण्ड में पूरा दम-खम लगा रही है. यह सिर्फ झारखण्ड की सत्ता बचाने की ही कवायद नहीं है, बल्कि इस चुनाव के परिणामों की सीधा प्रभाव अगले साल होने वाले बिहार विधान सभा के चुनावों पर पड़ेगा, यह उसे अच्छी तरह पता है. झारखण्ड में भी वह कमजोर पड़ी तो नीतीश कुमार ही नहीं, रामविलास पासवान भी सेर पर सवा सेर हो जाएंगे. यह ठीक वैसा ही है जैसे एक युद्ध में पराजित राजा दूसरे युद्ध में स्वाभाविक रूप से कमजोर माना जाता है और शत्रु उस पर मनोवैज्ञानिक रूप से भारी हो जाता है. राजनीति में शत्रु नहीं, मित्र अवसर पाते ही मित्रताकी अच्छी कीमत वसूलते हैं.

महाराष्ट्र  के अलावा झारखण्ड में भी सहयोगी दलों की मांगों के आगे नहीं झुकने की भाजपा की रणनीति से कुछ और प्रश्न उठते हैं. क्या भाजपा अब सहयोगी दलों को संसद की अपनी ताकत का अहसास कराकर उनके दबाव में झुकने से इनकार कर रही है? शिव सेना के एनडीए से बाहर निकलने और लोक सभा में विपक्ष में बैठने से मोदी सरकार की सेहत पर बहुत फर्क नहीं पड़ता. राज्य सभा में भी भाजपा क्रमश: बहुमत के करीब पहुंचती जा रही है. अयोध्या-प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय राम मंदिर के पक्ष में आ जाने से भी वह अपने को बहुत मज़बूत राजनैतिक भूमि पर पा रही होगी. कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने से उसे पहले ही बाकी देश में व्यापक समर्थन मिला है.

क्या इन स्थितियों में भाजपा सहयोगी दलों की मांगें मानने की बजाय उलटे उन्हें दबाव में लेना चाहती है कि हमारे सहारे ही तुम्हारा अस्तित्व है? क्या महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाकर वह शिव सेना को ऐसा ही संदेश नहीं दे रही? जब अमित शाह यह कहते हैं कि जिसके पास समर्थन हो, वह सरकार बना ले, तो क्या वे यही तेवर नहीं दिखा रहे? झारखण्ड में उन्होंने एक भी सहयोगी दल की मांग नहीं मानी. रामविलास पासवान को एक मजबूत वोट-बैंक के कारण उसे कभी नाराज़ नहीं किया लेकिन झारखण्ड में उन्हें भी लाल झण्डी दिखा दी. क्या यह नई राजनैतिक परिस्थितियों से पाया आत्मविश्वास है?

पिछले दिनों आए लोकनीती-सीएसडीएसके एक सर्वेक्षण के परिणाम भी भाजपा को नव-अर्जित शक्ति की अनुभूति करा रहे होंगे. इस सर्वेक्षण के अनुसार भाजपा का हिंदू-समर्थक-आधार बहुत व्यापक हुआ है. 2014 मे जहां उसे 36 प्रतिशत हिंदू वोट मिले थे, वहीं 2019 में यह प्रतिशत बढ़कर 44 हो गया. इसके मुकाबले उसके सहयोगी दलों को मात्र सात-आठ फीसदी हिंदू-वोट मिले. कश्मीर और अयोध्या के फैसलों ने यह आधार बढ़ाया ही होगा.

तो भी यह सोचना गलत होगा कि भाजपा को अब सहयोगी दलों की आवश्यकता नहीं रही. हम लम्बे समय से गठबंधन सरकारों का दौर देख रहे हैं, केंद्र में और राज्यों में भी. 2014 का चुनाव भाजपा ने करीब 35 विभिन्न दलों का गठबंधन बनाकर लड़ा था. 1996 में उसका 12 दलों से गठबंधन था, 1998 में यह संख्या 18 हुई जो 1999 में 24 तक पहुँच गयी थी. 2014 और 2019 में अकेले  बहुमत मिल जाने के बावजूद भाजपा ने सभी साथी दलों को जोड़े रखा. कुछ दल अन्यान्य कारणों से एनडीए से अलग भी हुए.

यूपीए शासन के दोनों कार्यकालों में बीस से ज़्यादा दल कांग्रेस के सहयोगी थे. आज भाजपा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को ज़्यादा से ज़्यादा सहयोगी दलों की ज़रूरत महसूस हो रही है. इसलिए भारतीय राजनीति में  गठबंधन अभी एक अनिवार्यता की तरह बना रहने वाला है. नेतृत्वकारी दल की मजबूती और कमजोरी के आधार पर समय-समय पर सौदेबाजी और रूठने-मनाने के दौर भी चलते रहेंगे.     
    
(नभाटा, मुम्बई, 24 नवम्बर, 2019)  
   


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