Saturday, November 16, 2019

एक तमाशा यह भी हुआ



कोई महीने भर पहले का दृश्य याद कीजिए. हर दो पहिया चालक हेलमेट लगाए है. कार-चालक सीट-बेल्ट कसे प्रदूषण जांच केंद्रों की तरफ भागा जा रहा है. वहां लम्बी लाइन लगी है. चार-चार घण्टे इंतज़ार करने के बाद किसी तरह प्रमाण-पत्र मिल पा रहा है. चौराहों ही नहीं बीच सड़क या कहीं ओने-कोनों में भी सिपाही तैनात हैं जो गाड़ियों के कागजात जांच रहे हैं. होमगार्ड जवानों के हाथ में स्मार्ट फोन हैं जो गाड़ियों के नम्बर प्लेट की फोटो खींच कर चालान काट रहे हैं. लग रहा है कि सरकार और प्रशासन जाग गए हैं. शहरों का यातायात सुधर जाएगा, सड़कें अपेक्षाकृत सुरक्षित हो जाएंगी और वाहनों से होने वाला प्रदूषण भी कुछ नियंत्रित हो जाएगा.

मोटर वाहन अधिनियम में हुए संशोधनों की बड़ी चर्चा थी. यातायात नियमों के उल्लंघन पर ज़ुर्माने की रकम कई गुणा बढ़ा दिए जाने के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया जा रहा था. एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा था कि भारी ज़ुर्माने और सख्ती से ही जनता नियमों का पालन करेगी. इस कारण ज़ुर्माना बढ़ाने और सख्ती से लागू करने का स्वागत किया जा रहा था.

इसके विपरीत इस व्यवस्था को जानने-समझने वाले कह रहे थे कि कुछ दिन बाद देखिएगा, नया कानून और सख्ती सब धरे रह जाएंगे. महीने-दो महीने बाद यही पुलिस कुछ और कर रही होगी. जनता ही नहीं प्रशासन भी सारे नियम-कानून भूल चुके होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि पुरानी अराजकता वापस लौटने लगी है. कानून कागज में और जनता-पुलिस पुराने ढर्रे पर आते जा रहे हैं.

कोई भी सरकार हो, हर बार ऐसे ही अनुभव होते हैं. पॉलीथीन का चलन बंद कराना हो या अतिक्रमण हटाना, बीचबीच में प्रशासन को जोश आता है. वह सक्रिय होता है लेकिन कुछ ही समय बाद सब-कुछ पुराने ढर्रे पर आ जाता है.

 बहुत आश्चर्य होता है कि हम अपनी सुरक्षा के लिए भी सतर्क नहीं है. समझ की बड़ी कमी है. सामाजिक दायित्व बोध के मामले में हालत दयनीय है. अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं तो दूसरे की चिंता क्यों होने लगी!  पर्यावरण किसी की चिंता के दायरे में नहीं. यातायात विभाग के ज़िम्मेदार कह रहे हैं कि जनता को जागरूक कर रहे हैं. असल बात यह कि यातायात नियमों के पालन की ज़िम्मेदारी सम्भालने वाले स्वयं जागरूक नहीं है, न नियमों के प्रति न अपने दायित्व के प्रति. यह अलग बात है कि नियमों की समझ होने से उनके पालन करने का कोई सम्बंध नहीं है.

पॉलीथीन बंद करने का तमाशा कबसे हो रहा है. कितनी सरकारें आईं-गईं लेकिन उसका उत्पादन बंद नहीं हुआ. उत्पादन होगा तो पॉलीथीन बिकेगी और इस्तेमाल होगी. नियम-कानून बनाते रहिए. अतिक्रमण सबकी आंखों के सामने होता है. होता और बढ़ता रहता है. कभी-कभार उसे हटाने का ड्रामा होता है. अतिक्रमण करने और हटाने वाले दोनों जानते हैं कि शाम होते-होते सब कुछ वापस अपनी जगह पर आ जाना है.

पिछले दिनों की सख्ती में जिन्हें हेलमेट खरीदना पड़ गया था, उनमें से कई ने उसे घर में रख दिया है. कुछ आने वाले दिनों में लगन छोड़ देंगे. प्रदूषण जांच केंद्र कुछ अच्छा बिजनेस करने के बाद दूसरा काम तलाश रहे होंगे. स्कूलों में बच्चों को यातायात नियमों से लेकर नैतिकता तक का पाठ पढ़ाया जा रहा है. इस सबका पालन नहीं करना है, यह पाठ बिना पढ़ाए वे सीख रहे हैं.

दूसरों की ही नहीं, हम अपनी आंखों में भी धूल झोंकना कितनी अच्छी तरह जानते हैं. 

(सिटी तमाशा, 16 नवम्बर, 2019)        
 


सिटी तमाशा

कोई महीने भर पहले का दृश्य याद कीजिए. हर दो पहिया चालक हेलमेट लगाए है. कार-चालक सीट-बेल्ट कसे प्रदूषण जांच केंद्रों की तरफ भागा जा रहा है. वहां लम्बी लाइन लगी है. चार-चार घण्टे इंतज़ार करने के बाद किसी तरह प्रमाण-पत्र मिल पा रहा है. चौराहों ही नहीं बीच सड़क या कहीं ओने-कोनों में भी सिपाही तैनात हैं जो गाड़ियों के कागजात जांच रहे हैं. होमगार्ड जवानों के हाथ में स्मार्ट फोन हैं जो गाड़ियों के नम्बर प्लेट की फोटो खींच कर चालान काट रहे हैं. लग रहा है कि सरकार और प्रशासन जाग गए हैं. शहरों का यातायात सुधर जाएगा, सड़कें अपेक्षाकृत सुरक्षित हो जाएंगी और वाहनों से होने वाला प्रदूषण भी कुछ नियंत्रित हो जाएगा.
मोटर वाहन अधिनियम में हुए संशोधनों की बड़ी चर्चा थी. यातायात नियमों के उल्लंघन पर ज़ुर्माने की रकम कई गुणा बढ़ा दिए जाने के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया जा रहा था. एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा था कि भारी ज़ुर्माने और सख्ती से ही जनता नियमों का पालन करेगी. इस कारण ज़ुर्माना बढ़ाने और सख्ती से लागू करने का स्वागत किया जा रहा था.
इसके विपरीत इस व्यवस्था को जानने-समझने वाले कह रहे थे कि कुछ दिन बाद देखिएगा, नया कानून और सख्ती सब धरे रह जाएंगे. महीने-दो महीने बाद यही पुलिस कुछ और कर रही होगी. जनता ही नहीं प्रशासन भी सारे नियम-कानून भूल चुके होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि पुरानी अराजकता वापस लौटने लगी है. कानून कागज में और जनता-पुलिस पुराने ढर्रे पर आते जा रहे हैं.
कोई भी सरकार हो, हर बार ऐसे ही अनुभव होते हैं. पॉलीथीन का चलन बंद कराना हो या अतिक्रमण हटाना, बीचबीच में प्रशासन को जोश आता है. वह सक्रिय होता है लेकिन कुछ ही समय बाद सब-कुछ पुराने ढर्रे पर आ जाता है.
 बहुत आश्चर्य होता है कि हम अपनी सुरक्षा के लिए भी सतर्क नहीं है. समझ की बड़ी कमी है. सामाजिक दायित्व बोध के मामले में हालत दयनीय है. अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं तो दूसरे की चिंता क्यों होने लगी!  पर्यावरण किसी की चिंता के दायरे में नहीं. यातायात विभाग के ज़िम्मेदार कह रहे हैं कि जनता को जागरूक कर रहे हैं. असल बात यह कि यातायात नियमों के पालन की ज़िम्मेदारी सम्भालने वाले स्वयं जागरूक नहीं है, न नियमों के प्रति न अपने दायित्व के प्रति. यह अलग बात है कि नियमों की समझ होने से उनके पालन करने का कोई सम्बंध नहीं है.
पॉलीथीन बंद करने का तमाशा कबसे हो रहा है. कितनी सरकारें आईं-गईं लेकिन उसका उत्पादन बंद नहीं हुआ. उत्पादन होगा तो पॉलीथीन बिकेगी और इस्तेमाल होगी. नियम-कानून बनाते रहिए. अतिक्रमण सबकी आंखों के सामने होता है. होता और बढ़ता रहता है. कभी-कभार उसे हटाने का ड्रामा होता है. अतिक्रमण करने और हटाने वाले दोनों जानते हैं कि शाम होते-होते सब कुछ वापस अपनी जगह पर आ जाना है.
पिछले दिनों की सख्ती में जिन्हें हेलमेट खरीदना पड़ गया था, उनमें से कई ने उसे घर में रख दिया है. कुछ आने वाले दिनों में लगन छोड़ देंगे. प्रदूषण जांच केंद्र कुछ अच्छा बिजनेस करने के बाद दूसरा काम तलाश रहे होंगे. स्कूलों में बच्चों को यातायात नियमों से लेकर नैतिकता तक का पाठ पढ़ाया जा रहा है. इस सबका पालन नहीं करना है, यह पाठ बिना पढ़ाए वे सीख रहे हैं.
दूसरों की ही नहीं, हम अपनी आंखों में भी धूल झोंकना कितनी अच्छी तरह जानते हैं.        
 


किसी तरह प्रमाण-पत्र मिल पा रहा है. चौराहों ही नहीं बीच सड़क या कहीं ओने-कोनों में भी सिपाही तैनात हैं जो गाड़ियों के कागजात जांच रहे हैं. होमगार्ड जवानों के हाथ में स्मार्ट फोन है जो गाड़ियों के नम्बर प्लेट की फोटो खींच कर चालान काट रहे हैं. लग रहा है कि सरकार और प्रशासन जाग गए हैं. शहरों का यातायात सुधर जाएगा, सड़कें अपेक्षाकृत सुरक्षित हो जाएंगी और वाहनों से होने वाला प्रदूषण काफी नियंत्रित हो जाएगा.
मोटर वाहन अधिनियम में हुए संशोधनों की बड़ी चर्चा थी. यातायात नियमों के उल्लंघन पर ज़ुर्माने की रकम कई गुणा बढ़ा दिए जाने के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया जा रहा था. एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा था कि भारी ज़ुर्माने और सख्ती से ही जनता नियमों का पालन करेगी. इस कारण ज़ुर्माना बढ़ाने और सख्ती से लागू करने का स्वागत किया जा रहा था.
इसके विपरीत इस व्यवस्था को जानने-समझने वाले कह रहे थे कि कुछ दिन बाद देखिएगा, नया कानून और सख्ती सब धरे रह जाएंगे. महीने-दो महीने बाद यही पुलिस कुछ और कर रही होगी. जनता ही नहीं प्रशासन भी सारे नियम-कानून भूल चुके होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि पुरानी अराजकता वापस लौटने लगी है. कानून कागज में और जनता-पुलिस पुराने ढर्रे पर आते जा रहे हैं.
कोई भी सरकार हो, हर बार ऐसे ही अनुभव होते हैं. पॉलिथीन का चलन बंद कराना हो या अतिक्रमण हटाना, बीच–बीच में प्रशासन को जोश आता है. वह सक्रिय होती है लेकिन कुछ ही समय बाद सब-कुछ पुराने ढर्रे पर आ जाता है. क्यों होता है ऐसा?
एक बड़ा कारण तो यही कि हम अपनी सुरक्षा के लिए भी सतर्क नहीं है. समझ की बड़ी कमी है. सामाजिक दायित्व बोध के मामले में हालत दयनीय है. अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं तो दूसरे की चिंता क्यों होने लगी!  पर्यावरण किसी की चिंता के दायरे में नहीं. यातायात विभाग के ज़िम्मेदार कह रहे हैं कि जनता को जागरूक कर रहे हैं. असल बात यह कि यातायात नियमों के पालन की ज़िम्मेदारी सम्भालने वाले स्वयं जागरूक नहीं है. चौराहों पर यातायात सम्भालने वालों की परीक्षा ली जाए तो शायद कुछ ही पास हों. यह अलग बात है कि नियमों की समझ होने से उनके पालन करने का कोई सम्बंध नहीं है.
 




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