Friday, November 29, 2019

सड़क सिर्फ गाड़ियों के लिए, पैदल की कोई कद्र नहीं


चंद रोज पहले यह रिपोर्ट पढ़ने को मिली थी कि 2018 में भारत की सड़कों पर प्रतिदिन 62 पैदल यात्री मारे गए. 2014 में यह आंकड़ा 34 था जो चार साल में बढ़कर 62 हो गया. पैदल चलने वालों को सड़कों पर कुचले जने के ये भयावह आंकड़े केंद्रीय परिवहन मंत्रालय के हैं. स्वाभाविक है कि इसमें वही दुर्घटनाएं शामिल होंगी जो पुलिस थानों या सरकारी कागजों में कहीं दर्ज़ हुई होंगी. वास्तव में यह आंकड़ा इससे कहीं ज़्यादा होगा.

पैदल चलने वालों के इतनी बड़ी तादाद में सड़क-दुर्घटना में मारे जाने का कारण स्पष्ट करते हुए डाउन टु अर्थकी पिछले साल की एक रिपोर्ट कहती है कि हमारे देश में सड़कें पैदल चलने वालों की सुरक्षा को देखते हुए बनाई ही नहीं जातीं. पैदल यात्रियों के बाद सबसे बड़ी तादाद में साइकल वाले मारे जाते हैं. उनके लिए भी सड़कें और यातायात बहुत खतरनाक हैं. न तो योजनाकार इस बारे में सोचते हैं, न यातायात संचालित करने वाले और न ही वाहन चालक. पैदल चलने वालों को भारी यातायात के बीच किसी तरह अपनी राह बनानी पड़ती है. सड़क पार करने के लिए जूझना पड़ता है. अपने को बचना खुद उनकी ज़िम्मेदारी है. वाहन चालक कोई परवाह नहीं करते!

राजधानी लखनऊ और प्रदेश के बड़े शहरों की सड़कों का हाल यही साबित भी करता है. तीस-चालीस साल पहले हालात इतने बुरे नहीं थे. सड़कों के दोनों तरफ तनिक ऊंचे फुटपाथ होते थे जो कुछ तो बचाव करते ही थे. सड़कों को चौड़ा करने के लिए फुटपाथों की बलि ले ली गई. योजनाकारों ने ध्यान ही नहीं दिया कि पैदल जनता कहां चलेगी. पैदल को सड़क पर बिल्कुल असुरक्षित छोड़ दिया गया है.

चौराहों पर कहने को सड़क पार करने के लिए जेब्रा क्रॉसिंगबनी हैं. हज़रतगंज चौराहे का हाल देख लीजिए. जेब्रा क्रॉसिंग  से आगे तक वाहन खड़े हो जाते हैं. कार वालों की अकड़ का तो कहना ही क्या, दोपहिया सवार भी पैदल चलने वालों को रास्ता देने को तैयार नहीं होते. यातायात सिपाहियों को तो शायद जेब्रा क्रॉसिंग के बारे में कुछ सिखाया-बताया नहीं जाता. हेल्मेट और सीट बेल्ट पर जोर देने वाले दिनों में भी जेब्र क्रॉसिंग छेके खड़े वाहनों को रोका-टोका नहीं गया.

दुनिया के अधिकतर देशों में इस सिद्धांत का पालन किया जाता है कि सड़क पर सबसे पहला अधिकार पैदल चलने वालों का है. वहां फुटपाथ अनिवार्य हैं. सड़क पार करते लोगों को देखकर गाड़ियां काफी पहले रोक दी जाती हैं. अनेक देशों में पैदल लोगों को यह अधिकार है कि वे चलता ट्रैफिक रोक दें. इसके लिए जगह-जगह सड़क किनारे अलार्म-बटन लगे हैं. बटन दबाया और निश्चिंत होकर सड़क पार कर ली.  चलते वाहन ठहर कर रास्ता दे देते हैं.

पैदल यात्री का वहां इतना सम्मान है, सुरक्षा है. हमारे देश में वह सर्वाधिक लाचार और असुरक्षित है. योजनाकारों ने पुराने फुटपाथ हड़प लिए और सब-वे या ओवरहेड फुट ब्रिज बनाए नहीं. जहां बने भी हैं, जनता उनका इस्तेमाल लगभग नहीं करती. जान हथेली पर लिए पैदल सड़क पार करनी होती है और अंधा है क्या?’ , ‘मरना है क्या?’ जैसी घुड़कियां सुननी पड़ती हैं.

डाउन टु अर्थकी रिपोर्ट यह भी बताती है कि सड़क पर कुचलकर मरने वाले पैदल यात्रियों में अधिकतर गरीब-गुरबे होते हैं. दुर्घटना के बाद उनके परिवार और भी दयनीय हालत में पहुंच जाते हैं. मरने वाला कमाऊहुआ तो परिवार दर-दर की ठोकरें खाता है. इस तथ्य से यह भी संकेत मिलता है कि गरीब ही ज़्यादातर पैदल चलते हैं. साधन-सम्पन्न लोग पैदल चलना पसंद नहीं करते. गरीबों की परवाह कोई क्यों करे.       

(सिटी तमाशा, 30 नवम्बर, 2019)  
      

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