Saturday, November 09, 2019

क्या अब राजनीति की दिशा बदलेगी?


अयोध्या के बहु-विवादित बाबरी मस्ज़िद-राम जन्मभूमि विवाद के कानूनी पटाक्षेप के बाद क्या उत्तर प्रदेश समेत पूरे भारत में राजनीति का केंद्र धर्म की बजाय मानव-विकास बन सकेगा? जिस राम मंदिर के बहाने उग्र हिंदुत्व को राजनीति का केंद्र बनाकर भाजपा ने न केवल केंद्र की सत्ता हासिल की बल्कि अखिल भारतीय पार्टी के रूप में विस्तार पाया है, उसके निर्माण का मार्ग प्रशस्त होने के बाद क्या राजनीति की उसकी दिशा बदलेगी? ऐसा तो नहीं कि धर्म की राजनीति काशी-मथुरा की तरफ बढ़ने लगे?

अयोध्या के विवादित भूमि पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णायक फैसले का स्वागत इसलिए भी अवश्य किया जाना चाहिए कि इससे शांति और सद्भाव का वातावरण बनने, साम्प्रदायिक उन्माद शांत होने और वास्तविक विकास की दिशा में तेज़ी से बढ़ने की राह खुलती है.

इसका कोई ठीक-ठीक हिसाब नहीं बन सकता कि 1980 के दशक से राम मंदिर-बाबरी मस्ज़िद का जो विवाद वोटों की राजनीति में बदला उसने मानव-विकास का कितना बड़ा नुकसान किया. उत्तर प्रदेश के सरकारी खज़ाने पर तो इस विवाद ने डाका डाला ही, उत्तर भारतीय राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भी बड़ा नकारात्मक असर पड़ा. सरकारों की जितनी ऊर्जा और सम्पत्ति इस विवाद ने खर्च कराई, वह हमारे जैसे पंथ-निरपेक्ष देश के लिए तो शर्मनाक है ही, शिक्षा, चिकित्सा, आवास और ग्रामीण-विकास जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र विकास की दौड़ में पिछड़ते जाने का बड़ा कारण भी है.

उत्तर प्रदेश को ही लें तो यहां सरकारी विद्यालयों में पांचवीं में पढ़ने वाले 43 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का हिंदी पाठ नहीं पढ़ पाते. सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा का हाल इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में प्रति व्यक्ति चिकित्सा-व्यय मात्र 1112 रु सालाना है और पिछले नौ साल से इसमें वृद्धि नहीं हुई है. गोरखपुर समेत पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार से हर साल सैकड़ों बच्चे मरते और उससे ज़्यादा अपंग हो जाते हैं. राजधानी लखनऊ के अस्पतालों में भी आवश्यकता से बहुत कम वेण्टीलेटर हैं. खेती और किसान लगातार उपेक्षित हैं. तमाम दावों के बावज़ूद गंगा नदी इतनी गंदी है कि कुम्भ के दौरान संगम पर थोड़ा साफ पानी पाने के लिए नदी किनारे के सभी कल-कारखाने बंद करने पड़े. गंगा को वास्तव में प्रदूषण-मुक्त करने की मांग के लिए अनशन पर बैठे दो बड़े संत अपने प्राण त्याग चुके हैं. उद्योगों के मामले में यह देश के सबसे पिछड़े प्रदेशों में गिना जाता है. विकास के कुछ मानकों पर तो बिहार से भी पीछे है.

पिछड़ेपन का एकमात्र कारण अयोध्या विवाद नहीं रहा लेकिन यह भी सच है कि इस झगड़े ने सरकारों और प्रशासन को विकास-केंद्रित होने के दबाव से मुक्त रखा. इससे उपजी अशांति ने, वोटों के लिए इसकी राजनीति ने समाज को गहरे बांटा. परिणामस्वरूप जिस जनता को अपनी मूल आवश्यकताओं के लिए सरकारों पर दवाब बनाना था, विकास को चुनावी मुद्दा बनाना था, वह मंदिर-मस्ज़िद की भावनाओं के ज्वार बहती रही.
एक सुखद तथ्य यह रहा कि 1992 में बाबरी मस्ज़िद-ध्वंस के बाद भी अयोध्या ने साम्प्रदायिक सद्भाव नहीं खोया. जब देश उबल रहा था और अयोध्या के पड़ोसी जिले भी तनावग्रस्त थे, तब भी अयोध्या शांत रही और विवाद के  हिंदू-मुस्लिम वादी-परिवादी एक ही रिक्शे पर बैठकर कोर्ट आते-जाते रहे. साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की साजिशें अयोध्या विफल करती रही. हां, 1992 से पहले बाबरी मस्ज़िद और साथ का राम चबूतरा एवं सीता रसोई तक लोगों का आना-जाना सहज था, वहीं छह दिसम्बर 1992 के बाद विवादित स्थल के इर्द-गिर्द केंद्रीय बलों की छावनी कायम हो गई. रामलला के दर्शन दुर्लभ हो गए.

1990 के दशक से ही अयोध्या में जन्मभूमि न्यास की कार्यशाला में बाहर से आए चंद कारीगर मंदिर निर्माण के लिए शिलाएं काढ़ते रहे हैं. यह काम सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पूर्व संध्या पर बंद कर दिया गया. अब नई स्थितियों में आगे की रणनीति बनेगी. चौदह कोसी परिक्रमा के लिए आए हजारों श्रद्धालुओं को अयोध्या छोड़नी पड़ी. उसका आर्थिक नुकसान अयोध्या के ही हिस्से आना है. वैसे, बाबरी-मस्ज़िद ध्वंस के बाद रामलला के अस्थाई पण्डाल  के दर्शन को आने वालों की संख्या बढ़ी ही. अयोध्या को व्यावसायिक लाभ ही हुआ. भव्य राम मंदिर के निर्माण और नई मस्ज़िद बनने के बाद अयोध्या को धार्मिक पर्यटन कई गुना बढ़ने का लाभ मिलेगा.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले किए गए भारी सुरक्षा बंदोबस्त से ज़रूर अयोध्या कुछ सहमी रही. फैसले के बाद सुरक्षा प्रबंध कुछ ढीले होंगे, इसकी आशा फिलहाल नहीं है. अयोध्यावासियों को पता नहीं कब तक अपनी सद्भावपूर्ण विरासत का इम्तहान देना होगा. राम मंदिर तो अब भव्य बनेगा ही, क्या उम्मीद की जाए कि बढ़िया स्कूल-कॉलेज- विश्वविद्यालय और सर्व-सुलभ बेहतरीन चिकित्सा देने वाला अस्पताल भी अयोध्या के हिस्से आएगा? 

पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में दुनिया कितनी बदल गई. हम भी आगे बढ़े लेकिन हमारे पैरों में धार्मिक भावनाओं की बेड़ी पड़ी ही रही. क्या अब यह बेड़ी कमजोर होगी और आर्थिक उन्नति की राह पर हमारी रफ्तार बढ़ेगी?

(8 नवम्बर, 2019)     

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