Wednesday, November 27, 2019

महाराष्ट्र-लोकतंत्र को बौना किया पार्टियों ने


महाराष्ट्र के राजनैतिक-संवैधानिक प्रहसन में एक बात पूरी तरह भुला दी गई है. जनादेश की अवहेलना की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा. राजनीति के नए चाणक्यऔर मराठा पहलवानसे लेकर लोकतंत्र की हत्याऔर संविधान के मखौलकी चर्चा में यह बात पूरी तरह भुला दी गई है कि राज्य के मतदाता ने बहुमत से किसे सत्ता सौंपी थी. अगर राजनैतिक दल उसकी राय के विपरीत आचरण करें तो चुनाव की सार्थकता क्या है?    

भाजपा और शिवसेना का चुनाव-पूर्व गठबंधन था. महाराष्ट्र के मतदाताओं ने इस गठबंधन को पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापस भेजा. स्वाभाविक रूप से उनकी सरकार बननी थी. वह क्यों नहीं बनी? ये दोनों ही पार्टियां महाराष्ट्र की जनता के प्रति ज़वाबदेह हैं. आखिर उन्होंने गठबंधन किसलिए किया था? यह अचानक भी नहीं किया गया था. दोनों महाराष्ट्र की राजनीति में तीन दशक से एक साथ हैं. कई विवादों के बावजूद दोनों ने मिलकर सरकार बनाई और चलाई है. इस बार चुनाव नतीज़े आने के बाद गठबंधन में खींचतान और अंतत: टूटन का कारण जनहित था या व्यक्तिगत? ऐसा क्या हुआ कि तीस साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया गया? मतदाता को यह जानने का हक क्यों नहीं है?

चुनाव परिणामों में व्यक्त जनता की भावनाओं के विपरीत अब शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार बन रही है जो स्वयं में एक विद्रूप और प्रहसन भी है. कांग्रेस-एनसीपी के गठबन्धन को जनता ने अस्वीकार कर दिया था. अब वही गठबन्धन उस शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बना रहा है जो जनादेश की उपेक्षा करने की बराबर उत्तरदाई है. फिर, अपनी मूल विचारधारा में शिवसेना की कट्टर विरोधी रही कांग्रेस अब उस शिव सेना-नीत गठबंधन सरकार में भागीदार बन रही है जो भाजपा से अधिक कट्टर हिंदुत्त्व और संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद के लिए जानी जाती है. सत्ता के लिए विचार की राजनीति की तो हत्या हो ही चुकी. अब राजनैतिक दल खुलेआम जनादेश का अपमान करने लगे हैं. विडम्बना देखिए कि यह लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर हो रहा है.     

चुनाव-पूर्व गठबंधन करने वाले दलों के लिए क्या चुनाव-पश्चात कोई गठबंधन-धर्म नहीं होता? ध्यान दीजिए कि मतदाता ने त्रिशंकु विधान सभा नहीं चुनी थी. लगभग समान विचारधारा वाले स्वाभाविक-सहयोगी दलों के गठबन्धन को सरकार बनाने का आदेश दिया था. उसकी जगह जो सर्वथा विपरीत-ध्रुवी दलों का अस्वाभाविक गठबंधन सरकार बनाने जा रहा है, उसके स्थायित्व की क्या गारण्टी है, जबकि सत्ता से वंचित सबसे बड़ा दल उसके अंतर्विरोधों से उपजने वाली फूट की ताक में सतत बैठा हुआ रहेगा?

एक अन्य पहलू, जिस पर खूब चर्चा हो रही है, संवैधानिक संस्थाओं/पदों  की गरिमा का है. संविधान और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ पहले भी होते रहे हैं लेकिन महाराष्ट्र में मूल्यों के पतन की नई सीमा बनी. यूं तो इस खिलवाड़ के पात्र सभी सम्बद्ध राजनैतिक दल हैं लेकिन सबसे बड़ी ज़वाबदेही केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की बनती है क्योंकि इसमें उसकी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बड़ी भूमिका रही. राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति भवन तक इस खिलवाड़ में इस्तेमाल किए गए. सदन में बहुमत साबित करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री का सदन का सामना करने से पहले ही त्यागपत्र दे देना निश्चय ही इन संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की भूमिका पर भी सवाल उठाता है.

राज्यपालों का राजनैतिक दुरुपयोग कांग्रेस की सरकारों ने भी खूब किया लेकिन शुचिता और पारदर्शी राजनीति से सुशासन लाने के बड़े-बड़े दावे करने वाली भाजपा ने भी न केवल उसी अनैतिक मार्ग का अनुसरण किया, बल्कि वह कुछ और आगे तक चली गई है. यह सवाल बहुत बाद तक पूछे जाते रहेंगे कि महाराष्ट्र में लागू राष्ट्रपति शासन हटाने के लिए मंत्रिमण्डल के सामूहिक निर्णय का सम्पूर्ण दायित्व अकेले प्रधानमंत्री ने क्यों उठाया और उस आदेश पर हस्ताक्षर के लिए राष्ट्रपति को तड़के नींद से क्यों जगाना पड़ा? ऐसी कौन सी इमरजेंसी आ गई थी? सरकार बनाने के फड़णवीस के दावे का सम्यक परीक्षण किए बिना ही राजभवन के एक कक्ष के लगभग एकांत में सुबह साढ़े आठ बजे मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री को पद और गोपनीयता की शपथ राज्यपाल को किस आपात स्थिति में  दिलवानी पड़ी?

भाजपा-समर्थकों के लिए भी यह ज़ल्दबाजी रहस्यपूर्ण और संदेहास्पद रही. सवाल अत्यंत स्वाभाविक है कि ऐसी कौन ही अनिवार्यता या संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया था? सुबह-सुबह प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष के ट्वीट में फड़णवीस और अजित पवार के सत्ता सम्भालने पर बधाई संदेश पढ़कर सारा देश चौंका था, जबकिसुबह के सभी समाचारपत्र शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन पर मोहर लगने की सुर्खियों से भरे हुए थे.

यूं तो सुप्रीम कोर्ट को बार-बार यह निर्देश देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि सरकार के बहुमत या अल्पमत में होने का फैसला सदन में ही होना चाहिए. संविधान इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है. 1994 में बोम्मई प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट इस संवैधानिक व्यवस्था की पक्की व्याख्या कर चुका है और वह एक मुकम्मल नज़ीर बन चुका है. राज्यपाल का विवेक महत्त्वपूर्ण है लेकिन बहुमत का निर्णय वह अंतिम रूप से नहीं कर सकता. इसके बावज़ूद  शपथ ग्रहण के बाद दल-विशेष के मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने के लिए इतना अधिक वक्त दे दिया जाता है कि सत्तारूढ-दल विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सके. हाल में कर्नाटक और कई राज्यों में हम यह देख चुके हैं. कई राज्यों में विपक्ष की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा है.

महाराष्ट्र में एक बार फिर यही दोहराया गया. सदन का सामना किए बिना ही फड़णवीस का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना साबित करता है कि उनके पास बहुमत नहीं था. आने वाले दिनों में वे इसका बंदोबस्त करते लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसका अवसर नहीं दिया. ऐसे में राज्यपाल के विवेक का क्या सम्मान रह गया और उनका भी जिन्होंने शीर्ष स्तर से इस प्रहसन के मंचन में सक्रिय भूमिका निभाई?

सत्ता में राजनैतिक पार्टियां आती-जाती रहेंगी. जनादेश कभी एक के पक्ष में होगा कभी किसी दूसरे के या कभी किसी के स्पष्ट पक्ष में नहीं होगा. लोकतंत्र में राजनैतिक दलों के मेल-बेमेल गठबंधन भी होते रहेंगे. स्थिर सरकार बनाने के लिए उनके अवसरानुकूल समझौते कोई नई बात नहीं. विजेता गठबंधन कुर्सी के लिए लड़े, स्वार्थवश  सरकार नहीं बनाए और हारे हुए दल एकजुट होकर सत्ता में आ जाएं, यह विधि सम्मत तो हो सकता है लेकिन जनादेश की दृष्टि से अनैतिक ही कहा जाएगा.

फिर, संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपनी दलगत प्रतिबद्धता के कारण संविधान के प्रावधानों को तोड़ें-मरोड़ें तो संविधान की क्या मर्यादा रह जाएगी? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के गर्वीले दावे लोकतंत्र की कसौटी  पर भी तो खरे उतरने चाहिए.
     
(प्रभात खबर, 28 नवम्बर, 2019) 
         

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