महाराष्ट्र में ऊँट जिस भी करवट बैठे,
कांग्रेस की सतर्क सक्रियता से यह संकेत अवश्य मिलता है कि देश की
यह मुख्य विपक्षी पार्टी, जो आज अंदर-बाहर से बिखरी पड़ी है,
खुद को समेटने का जतन कर रही है. मुम्बई की गतिविधियों पर कांग्रेस
कार्यसमिति बराबर बातचीत करती रही. अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर अपना
रुख तय करने के लिए भी उसने त्वरित विचार-विमर्श किया. उसने यह प्रतिक्रिया देने में
विलम्ब नहीं किया कि वह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत करती है और अयोध्या में
राम मंदिर बनाए जाने के पक्ष में है.
इस सुचिंतित त्वरित प्रतिक्रिया की
तुलना संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के मोदी सरकार के फैसले
पर कांग्रेस के असमंजस से कीजिए. यह ठीक है कि सरकार ने वह प्रस्ताव बिल्कुल अचानक
ही पेश किया था, जिसकी किसी को भी भनक
नहीं थी, किंतु मुख्य विपक्षी दल होने के नाते वह न तत्कालअपने
को एकजुट कर सकी और न ही दूसरे विरोधी दलों के साथ विचार-विमर्श कर पाई. परिणाम यह
हुआ था कि अनुच्छेद 370 को हटाने और राज्य का दर्ज़ा छीन कर जम्मू-कश्मीर को दो
केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के निर्णय पर स्वयं उसके नेताओं में एक राय नहीं
बन सकी थी. कई नेताओं के सरकार-समर्थक बयानों से पार्टी की किरकिरी ही हुई थी.
तो,
क्या कांग्रेस की नवीनतम सर्कता और सक्रियता हरियाणा और महाराष्ट्र के बेहतर चुनाव
नतीज़ों से मिली ऑक्सीजन है? ऑक्सीजन की बहुत अच्छी खुराक तो
उसे 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ के चुनावों
में जीत से भी मिली थी. फिर क्यों वह लोक सभा चुनाव में बुरी तरह पिट गई? क्या यह सोनिया और
राहुल के नेतृत्व-कौशल और पार्टी में उनकी स्वीकार्यता
के स्तर का अन्तर है?
राहुल के त्यागपत्र से उपजे लम्बे
नेतृत्व-शून्य के बाद हाल के दिनों में सोनिया ने पार्टी की कमान पूरी तरह
सम्भाली
है. सोनिया की सक्रियता का एक प्रभाव कांग्रेस के पुराने नेताओं के प्रभावी होने
में भी दिखता है. राहुल-राज में जो भूपेंद्र सिंह हूडा हाशिए पर चले गए थे,
उन्हें हरियाणा में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय मिला
क्योंकि बहुर देर से ही सही उन्हें मोर्चे पर लाया गया. हूडा की वापसी और कुमारी
शैलजा के हाथ नेतृत्व सौंपने में गुलाम नबी आज़ाद और अहमद पटेल जैसेअनुभवी सयाने
नेताओं की सुनी गई. इसी तरह महाराष्ट्र में अशोक चह्वाण की जगह बालासहेब थोराट ने
कमान सम्भाली. आज यह माना जाता है कि यदि समय रहते ये परिवर्तन किए गए होते इन दो
राज्यों के परिणाम और बेहतर हो सकते थे.
क्या कांग्रेसियों को दिक्कत राहुल
से है? या पार्टी की युवा पीढ़ी सयानों के साथ
तालमेल नहीं बैठा पा रही? राहुल ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद
सम्भालने के बाद उसे नई ऊर्जा से भरने की कोशिश की थी. बुजुर्ग नेताओं के अनुभव का
ससम्मान लाभ उठाने की बातें कही गईं किंतु यह भी सच है हरियाणा में प्रभावशाली
हूडा जैसे नेता राहुल के कारण ही नेपथ्य में चले गए थे. राजस्थान और मध्य प्रदेश
में चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री के चयन पर नई और पुरानी पीढ़ी के बीच बहुत
रस्साकशी हुई थी. सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों ने बहुत
हाथ-पैर मारे थे. बाजी अंतत: सयाने गहलौत और कमलनाथ के हाथ आई.
कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी में बड़े
बदलाव कभी आसान नहीं रहे. इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी और सोनिया को भी जूझना पड़ा था लेकिन वे ज़ल्दी ही अपने
नेतृत्व का सिक्का जमा ले गए. क्या नेहरू-गांधी वंश का राज-दण्ड हाथ में होने के
बावजूद राहुल लड़खड़ाए? उत्तर प्रदेश जैसे
महत्त्वपूर्ण राज्य में कोई डेढ़ वर्ष तक पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष नहीं था.
सोनिया ने हाल ही में उस पद पर भी चयन किया है. जितिन प्रसाद जैसा राहुल खेमे का
प्रभावशाली युवा नेता लोक सभा चुनाव के समय क्यों इतना रुष्ट हो गया था कि उनके
पार्टी छोड़ने की चर्चा चल पड़ी थी?
नई राजनैतिक परिस्थितियों में तथा
शक्तिशाली भाजपा के मुकाबिल कांग्रेस को खड़ा करना बहुत चुनौतीपूर्ण काम है.
कांग्रेस इतिहास का यह सबसे कठिन दौर है. सोनिया के नवीनतम प्रयास और उनकी भूमिका 'अंतरिम' ही कहे जाएंगे. नेहरू-गांधी परिवार के बाहर
का अध्यक्ष चुनना कांग्रेसियों के वश की बात नहीं. कांग्रेस का नया नेता परिवार के
बाहर से चुना जाए, राहुल की यह बात अब भुला दी गई है. इसलिए
देर-सबेर राहुल को ही फिर मोर्चे पर आना है. क्या वे अपने को नए सिरे से तैयार कर
रहे हैं? राहुल स्वयं किनारे हुए हैं. पार्टी
उन्हें अपने अविवादित नेता के रूप में ही देखती-बरतती है. यही कारण है कि हरियाणा
और महाराष्ट्र में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय राहुल के हिस्से भी लगाया
गया था.
सोनिया से अधिक राहुल की चुनौती यह
है कि 2014 के बाद देश का राजनैतिक परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है. उग्र हिंदुत्त्व
और राष्ट्रवाद की राजनीति ने अपने लिए बड़ी जगह बना ली है. आयडिया ऑफ इण्डिया यानी
बहुलतावाद का विचार, जो कांग्रेसी
नीतियों के मूल में था, खतरे में है. संविधान के अनुच्छेद
370 को निष्प्रभावी कर देने और अयोध्या की विवादित भूमि पर राम मन्दिर का मार्ग
प्रशस्त होने से भाजपा और आरएसएस के दो पुराने एजेण्डे पूरे हो गए हैं. तीसरे बड़े
एजेण्डे, समान नागरिक संहिता की चर्चा तेज है. ये ऐसे मुद्दे
हैं जिन्हें भाजपा 1990 के दशक से बड़ी हुई
पीढ़ी के बड़े हिस्से को प्रभावित करने में सफल हुई है. वह पीढ़ी चली गई या सक्रिय
नहीं रह गई जो कांग्रेसी मूल्यों से जुड़ी हुई थी.
इस 'नए
भारत' को कांग्रेस ‘भारत के विचार’ की राह पर वापस कैसे लाए? यही उसकी सबसे बड़ी चुनौती
है. इससे भी पहले उसके नेताओं को अपने मूल
मूल्यों को अच्छी तरह आत्मसात करना होगा. पूर्व में उसने गलतियां कम नहीं कीं.
सबसे बड़ी चूक राजीव गांधी के समय शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट
देना थी, जिससे उपजी हिंदू-नाराजगी का प्रतिकार करने के लिए
अयोध्या में ताला खुलवाया गया और विहिप को राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति दी
गई. उसी के परिणामस्वरूप आज का बदला भारत उसे मिला है जिसमें उसे अपनी जगह बनानी
है.
उसके लिए अच्छी बात यही है कि आज भी
कांग्रेसी जनाधार कमोबेश कायम है. नए मुद्दों और मतदाताओं की नई पीढ़ी के साथ उसे
तालमेल बैठाना है. नेतृत्व को जनता से जोड़ने वाली उसकी कड़ियां टूट गई हैं. भाजपा
से उसे इतना अवश्य सीखना चहिए कि मजबूत संगठन से पार्टी कैसे शिखर चढ़ती है.
(प्रभात खबर, 14 नवंंबर, 2019)
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