Saturday, July 24, 2021

नट-नटी-नक्कारे की खामोशी खला करेगी

अपने किशोर-युवा दिनों में हम स्थानीय समाचार पत्रों में के पी सक्सेना को खूब पढ़ते और उस पर चर्चा करते थे। वे दशकों तक व्यंग्य लिखते रहे और लोकप्रिय हुए। शहर में उनसे कद और प्रतिष्ठा में कहीं बड़े कई साहित्यकार सक्रिय थे जिनका हिंदी साहित्य में खूब नाम-सम्मान था। तो भी वे आम पाठकों या जनता के बीच उतने लोकप्रिय नहीं थे। एक तो अखबारों में उनका लिखना नहीं के बराबर होता था और  गम्भीर साहित्य के उतने पाठक भी नहीं होते जितने दैनिक अखबारों के होते हैं। दूसरा कारण यह कि हास्य-व्यंग्य सबसे अधिक पढ़े-सराहे जाते हैं। इसलिए के पी की पहचान एक सेलिब्रिटी की तरह थी।

हास्य-व्यंग्य लेखन में शहर से जो दूसरा नाम उभरा वह उर्मिल कुमार थपलियाल का है, जिन्होंने समाज और राजनीति पर कटाक्ष के लिए सर्वथा नई विधा चुनी। सुदूर गढ़वाल के एक गांव में जन्मे उर्मिल अपने साथ वहां की समृद्ध लोक संगीत और लोक नाट्य परम्परा लेकर आए थे लेकिन उन्हें उत्तर प्रदेश की लुप्त प्राय नौटंकी विधा ने सबसे अधिक आकर्षित किया। उर्मिल का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से रंगमंच बना लेकिन अखबारी लेखन में भी वे बराबर लगे रहे। वे लेखन के रास्ते ही रंगमंच में गए थे। नौटंकी का फॉर्मेट लेकर पिछले चालीस वर्षों से लखनऊ और बाहर के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने जितना एवं जैसा लिखा उसने उन्हें लोकप्रिय लेखक भी बनाया। उनकी सप्ताह की नौटंकीऔर विविध व्यंग्य-कवित्त खूब पढ़े-सराहे जाते थे।

उर्मिल के नौटंकी आधारित नाटक हरिश्चन्नर की लड़ाई के पिछले लगभग बीस साल में देश भर में एक सौ से अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं। आज भी वह उतना ही लोकप्रिय है। उसकी लोकप्रियता का कारण नौटंकी के आधुनिक मंचीय प्रयोग के अलावा यह भी है कि उसके हर प्रदर्शन में सम सामयिक घटनाओं पर तीखे तंज़ शामिल किए जाते रहे। वे राजनैतिक रूप से प्रतिबद्ध लेखक या रंगकर्मी नहीं थे। इसलिए उन्होंने हर तरह के नाटक किए लेकिन एक रचनाकार और कलाकार के रूप में अपने नाटकों एवं स्तम्भों में ताज़ा सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों पर तीखे कटाक्ष करते रहते थे। एक बार प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने एक दैनिक में प्रकाशित होने वाला उनका नौटंकी स्तम्भ इसी कारण बंद करवा दिया था।

रचनाधर्मियों का दायित्व है कि वे समाज की चेतना का अग्रिम दस्ता बने रहें। वे अपनी-अपनी विधाओं में अपने समय को दर्ज़ करके सार्थक भूमिका निभाते हैं और समाज को वैचारिक दिशा देने का काम करते हैं। आज के हालात हालांकि बहुत बदले हुए हैं। रचनाकार-कलाकार बिरादरी में इतना तीखा विभाजन पहले नहीं था। सामयिक मुद्दों पर समाज की राय बनाने में सहायक होने की बजाय आज यह बिरादरी अंध भक्ति की तरह राजनैतिक पाले पकड़ कर आपस में ही थुक्का-फजीहत करने में लगी है। इस बिरादरी में सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थक भी होते हैं और धुर विरोधी भी लेकिन माना यही जाता है कि वे समाज के ऐसे चौकीदार हैं जो सरकार और उसकी नीतियों से असहमति के बिंदुओं को उजागर करके जागते रहोकी पुकार लगाया करेंगे। कम से कम आंख मूंद कर सत्ता या पार्टी विशेष का समर्थन नहीं करेंगे।

उर्मिल थपलियाल के निधन से शहर के रंगमंच और पत्रकारिता में एक शून्य पैदा हुआ है। उनके व्यंग्य स्तम्भों की मार्फत समाचार-पत्रों में प्रछन्न ही सही, थोड़ा पैनापन बना रहता था जो अन्यथा उनसे गायब ही हो चुका है। बीमारी के पिछले चंद महीनों को छोड़कर अस्सी वर्ष की उम्र में भी वे बहुत सजग और सक्रिय थे। जुलाई मास की कुछ पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य स्तम्भ प्रकाशित होना इसका प्रमाण है।      

उर्मिल के नट-नटी और नक्कारे को भूलना मुश्किल होगा।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 24 जुलाई, 2021) 

 

     

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