सोशल मीडिया में पिछले कुछ समय से उत्तराखण्ड के लिए भू-कानून की मांग करने वाली कई पोस्ट दिखाई दे रही हैं। कुछ ही पोस्टों में बात अधिक स्पष्ट है- उत्तराखण्ड में हिमाचल प्रदेश के भू-कानून जैसे जैसे सख्त और स्पष्ट कानून की मांग। यह बात समझ में आती है क्योंकि उत्तराखण्ड की अब तक की कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने ऐसा भू-कानून बनाया और उसमें लगातार इस तरह के संशोधन किए जिससे पहाड़ की जमीनों की खुली लूट होने लगी। कोई भी, कहीं भी, कितनी भी जमीन खरीद सकता है और उसे भू उपयोग बदलवाने का भी कष्ट करना नहीं पड़ता। इसी भू-लुटाऊ कानून का परिणाम है कि उत्तराखण्ड में दूर-दराज के इलाकों में भी बड़ी-बड़ी जमीनें तार-बाड़ से घेर कर वहां बोर्ड टांग दिए गए हैं कि “प्रवेश वर्जित। यह निजी भूमि है।”
नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में अवश्य हिमाचल
की तर्ज़ पर भू-कानून बनाने की पहल हुई थी जिसे पक्ष-विपक्ष के विधायकों और दलालों
ने दबाव डलवा कर शीघ्र ही लचीला बनवा लिया था ताकि वे उसकी आड़ में जमीनों की लूट
करते रह सकें। बाद की भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने उस कानून में बार-बार ऐसे
बदलाव किए जो साफ-साफ बड़े कॉरपोरेट घरानों, दलालों और भू-माफिया के हित में हैं। आज
उत्तराखण्ड अकेला ऐसा पहाड़ी राज्य है जहां स्थानीय काश्तकारों, कृषि और बागवानी के पक्ष में कोई भू-कानून नहीं है। पड़ोसी हिमाचल प्रदेश
में पहले मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार ने जनता के हित में जो भू-कानून बनाया था,
वह आज भी कायम है। इसीलिए हिमाचल के किसानों की जमीनें लूट से बची
हुई हैं और वहां का फलोत्पादन पूरे देश में प्रसिद्ध है। उत्तराखण्ड के लिए हिमाचल
जैसे भू-कानून की मांग करना इसीलिए समझ में आता है।
सवाल यह है कि पृथक राज्य बनने के बीस बरस बाद अचानक
जन-हितैषी भू-कानून की मांग, सोशल मीडिया में ही सही, जोर-शोर से क्यों उठने लगी है? इतने वर्षों तक इस
बारे में लगभग मौन की स्थिति क्यों रही? यदि आम जनता यानी
काश्तकार के हक में जमीन का संरक्षण महत्त्वपूर्ण मुद्दा है तो राज्य बनने के बीस वर्षों
में भी वह जन संगठनों और परिवर्तनकामी राजनैतिक ताकतों का सबसे बड़ा मुद्दा क्यों
नहीं बन सका? यह मांग जन आंदोलनों का प्रमुख स्वर क्यों नहीं
बनी?
तराई में वाम दलों, विशेषकर भाकपा-माले ने भूमि की लूट के
खिलाफ लम्बे समय से मोर्चा बांध रखा है जिसमें कभी उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी की
आवाज भी शामिल रहती थी। इन दलों ने हाल के वर्षों में पहाड़ी जिलों में सरकारी
संरक्षण में जमीनों की लूट के विरुद्ध भी आवाज उठाई है। जमीनों को लेकर अगर किसी
ने सरकार और भू-माफिया से सीधा मोर्चा लिया है तो वह पी सी तिवारी हैं, जो पहले उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, फिर उत्तराखण्ड
लोक वाहिनी और अब उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी की ओर से लगातार इस लड़ाई को जारी रखे
हैं। भू-माफिया और प्रशासन से उनकी लड़ाइयां लगभग अकेले लड़ी गई हैं। समानधर्मा
संगठनों ने कभी–कभार समर्थन में बयान जारी करने के अलावा आगे आकर उनका साथ नहीं
दिया और न स्वयं उस तरह का आंदोलन खड़ा किया। सन 2010 में अल्मोड़ा के डांडा कांडा
से लेकर द्वारसौं-नानीसार तक पी सी ने कागजी हेराफेरी से जमीनों पर अवैध कब्जों और
निर्माणों के विरुद्ध आंदोलन किए। 2016 में द्वारसौं-नानीसार में हरियाणा के जिंदल
ग्रुप द्वारा तत्कालीन कांग्रेस सरकार के संरक्षण में अवैध कब्जे और निर्माण के
विरुद्ध जोरदार आंदोलन और उसके दमन का किस्सा सभी को स्मरण होगा। ग्रामीणों को
एकजुट कर नानीसार में बड़ा आंदोलन चलाने के बाद पी सी ने अदालती स्थगनादेश हासिल
किया। उन पर जानलेवा हमला भी वहां हुआ, जिसके खिलाफ व्यापक आक्रोश
फैला अवश्य लेकिन जमीन की लड़ाई फिर भी सबका मुद्दा नहीं बनी। नानीसार बचाओ आंदोलन जन
हितैषी भू-कानून के लिए बड़ा संघर्ष छेड़ने का बेहतरीन अवसर था।
राज्य निर्माण की पूर्व संध्या पर कई संगठनों से बनी समन्वय
समिति ने मसूरी से जो अपील अंतरिम विधान सभा के सदस्यों के नाम जारी की थी उसमें
जमीनों का भी मुद्दा शामिल था लेकिन बाद में लोक वाहिनी (जो समन्वय समिति से ही जन्मी)
उस मांग को लेकर सक्रिय नहीं रही। तिवारी सरकार के प्रारम्भिक भू-कानून को बदले
जाने के समय भी आंदोलन नहीं हुआ। फिर खंडूरी, हरीश रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकारों
ने भू-कानून को खूब तोड़ा-मरोड़ा। तब भी लेखों, बयानों,
आदि से आगे कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं हुआ। ग्रामीणों, पंचायतों और जंगलात की जमीनें कहीं फर्जी अभिलेखों से तो कहीं सरकारी संरक्षण
में बिकती आईं हैं। ऐसी लूट किसी अन्य पर्वतीय राज्य में नहीं हुई, जबकि सजग और जुझारू जन संगठनों एवं जन आंदोलनों के लिए उत्तराखंड सबसे अधिक
चर्चा में रहा। यह कैसी विडम्बना है?
वनों की अंधाधुंध लूट के खिलाफ और अपने जंगल पर जनता के हक के
लिए 1972-73 से 1980 तक पूरे उत्तराखण्ड में चिपको आंदोलन चला जिसकी धमक देश-विदेश
तक सुनी गई। 1984 में कुमाऊं में नशे के षडयंत्र के विरुद्ध जोरदार ‘नशा नहीं,
रोजगार दो’ आन्दोलन हुआ जिसके आगे सरकार को झुकना
पड़ा था। पृथक राज्य बनने से पहले और बाद में भी गैरसैण को राजधानी बनाने के लिए सभी
संगठनों-दलों ने जबर्दस्त आंदोलन किए और शहादतें भी दीं। इतने आक्रामक तेवरों वाले
उत्तराखण्ड में भू-कानून को लेकर उदासीनता आश्चर्यजनक है, जबकि
वनों के बाद सबसे बड़ी लूट सम्भवत: जमीनों की ही होती आई है।
इसी उदासीनता, संगठनों-नेताओं के निजी मतभेद या व्यक्तिगत
द्वेष या नायकत्व की ख्वाहिश के चलते आंदोलन कमजोर होते आए हैं। कांग्रेस और भाजपा
दोनों दल इस कमजोरी को अच्छी तरह जानते हैं और आश्वस्त हैं कि राज्य की सत्ता
उन्हीं दोनों के पास आनी है। इसीलिए उत्तराखण्ड की जनता के कीमती संसाधनों की लूट
जारी है।
सोशल मीडिया में हिमाचल की तर्ज़ पर भू-कानून बनाने की मांग से
भला कौन-सा पत्ता हिल जाने वाला है?
न.जो, 18 जुलाई, 2021
1 comment:
लेखक महोदय, स्पष्ट है कि उत्तराखंड की इस स्थिति के लिए उसका (परम्परागत) समाज ही मुख्य रूप से दोषी है।
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