उत्तर प्रदेश के संन्यासी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जितना ही यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्होंने प्रदेश का कायाकल्प कर दिया है तथा कोविड महामारी पर सफल नियंत्रण के अलावा किसानों, व्यापारियों, गृहिणियों, कर्मचारियों, बेरोजगारों, आदि की समस्याएं हल कर दी हैं, जमीन पर उनकी मुश्किलें उतनी ही बढ़ रही हैं।
वास्तविकता यह है कि किसान, व्यापारी, महिलाएं और सरकारी कर्मचारी सरकार से प्रसन्न नहीं हैं। सबसे ज़्यादा खफा
किसान हैं, जिनके आंदोलन को आठ महीने पूरे हो चुके हैं और
मीडिया से उनकी खबरें नदारद रहने के बावजूद वे डटे हुए हैं। 26 जुलाई को ही राकेश
टिकैत और योगेंद्र यादव ने लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान किया कि वे ‘मिशन यूपी-उत्तराखण्ड’ शुरू करने जा रहे हैं। यानी
यूपी-उत्तराखण्ड में किसान-आंदोलन तेज किया जाएगा। पांच सितम्बर को मुजफ्फरनगर में
महापंचायत से इसकी शुरुआत की जाएगी। उसके बाद हर मण्डल में पंचायत होगी। सभी जगह
भाजपा और उसके सहयोगी दलों के नेताओं का बहिष्कार किया जाएगा और दिल्ली की तरह
लखनऊ के रास्ते भी सील किए जाएंगे। योगेंद्र यादव ने आंकड़े पेश करके बताया कि यू
पी में रबी में 310 लाख टन गेहूं की पैदावार हुई लेकिन सरकार ने इसकी सिर्फ एक
चौथाई खरीद की। उस पर भी कई जगह किसानों को तय दर नहीं मिली।
कोविड महामारी के दूसरे दौर की कभी न भुलाई जा सकने वाली
खौफनाक यादें जनता के जेहन में ताज़ा हैं। जिला प्रशासनों ने नदियों के किनारे उघड़ी
पाई गई लाशों में से कई का अंतिम संस्कार भले करवा दिया हो और मोदी सरकार के
मंत्री संसद में बयान देते हों कि ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई, जनता
ने जो भोगा वह उसकी स्मृति से कैसे मिट सकता है? ये बयान
उसके घावों पर नमक छिड़कने जैसे हैं। मध्य-निम्न मध्य वर्ग पर मंहगाई की जैसी आफत
टूटी पड़ी है, वह लुभावने सरकारी वादों या आकर्षक घोषणाओं
वाले बड़े-बड़े विज्ञापनों से छुपाई नहीं जा सकती। अर्थव्यवस्था की बुरी हालत और
कोविड-लॉकडाउन के कारण आम जनता की रोजी-रोटी पर जैसा संकट आया है, वह कैसे छुपाया जा सकता है?
उधर, मुख्यमंत्री योगी हैं कि
सरकार की बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटे जा रहे हैं। जब से उनकी कुर्सी का
संकट टला है और प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय नेताओं ने उनके कसीदे काढ़े हैं, तब से वे कुछ ज़्यादा ही उत्साहित एवं सक्रिय हो गए हैं।
कारण यह कि उत्तर प्रदेश में कुछ महीने बाद चुनाव होने हैं।
प्रदेश के लगभग हर जिले का उन्होंने दौरा कर लिया है। अपने मंत्रियों से भी
कहा है कि वे अधिक से अधिक समय अपने क्षेत्र में दें, जनता
को बताएं कि हमारी सरकार ने क्या-क्या काम कर दिए हैं, कि
कोविड महामारी पर कितनी तेजी से काबू पा लिया है, कि दुनिया
कोरोना नियंत्रण में यू पी मॉडल की चर्चा कर रही है, कि राम
मंदिर शीघ्र बन जाने वाला है, कि प्रदेश में बेरोजगारी
समाप्त हो रही है, कि अपराधी डर कर भाग गए हैं या उनका सफाया
कर दिया गया है, कि विपक्षी दल चेहरा दिखाने लायक नहीं रह गए
हैं, वगैरह-वगैरह। प्रदेश में हर काम चुनाव-प्रचार की तरह हो
रहा है। छोटी से छोटी नौकरियों के नियुक्ति पत्र योगी जी स्वयं बांट रहे हैं। इसका
खूब प्रचार किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अभी सैकड़ों-हजारों नौकरियां दी जाने
वाली हैं।
सच्चाई यह कि है कि जमीन पर भाजपा के पांवों के नीचे जमीन
हिल रही है। पंचायत चुनावों के नतीज़ों ने ही बड़े जतन से गढ़ा गया योगी जी का प्रभा
मण्डल धूमिल कर दिया। जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने भाजपा
को न केवल कड़ी टक्कर दी, बल्कि उससे कहीं अधिक सीटें जीत लीं।
पश्चिम उत्तर प्रदेश में सपा-रालोद ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और बुंदेलखण्ड से
लेकर पूर्वांचल तक बसपा ने भी अपना दम दिखाया। भाजपा को अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयागराज जैसे जिलों में भी पराजय
मिली। यह किसानों के गुस्से के अलावा जनता के सभी वर्गों के असंतोष का परिणाम था।
इस पराजय को सत्ता और धन बल से किस तरह ‘भारी
विजय’ में बदला गया, वह भले ही मीडिया
में ठीक से न आया हो, जनता को भली-भांति पता है। जिला पंचायत
अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के निर्वाचन चूंकि सीधे जनता नहीं करती, निर्वाचित सदस्य करते हैं, इसलिए योगी सरकार और
भाजपा ने उन्हें साम-दाम-दण्ड-भेद से अपने पक्ष में कर लिया। कई जिलों से हिंसा,
निर्वाचित सदस्यों के अपहरण, विपक्षी
प्रत्याशियों को नामांकन न भरने देने, पुलिस पर हमले,
एस पी और फोटो-पत्रकार की पिटाई, जैसी खबरें
मिलीं। ऐसी घटनाओं के वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुए। सपा, बसपा और कांग्रेस ने इस पर खूब हल्ला मचाया। इसे लोकतंत्र की खुलेआम हत्या
बताया लेकिन योगी जी ने जिला पंचायत अध्यक्षों एवं ब्लॉक प्रमुखों के चुनाव में
भाजपा की ज़बर्दस्त जीत को अपनी सरकार की लोकप्रियता का परिणाम कहा और खुशी मनाई।
दिल्ली दरबार से उन्हें बधाइयां भी मिलीं।
वास्तविकता यह है कि महीने भर पहले तक योगी जी की कुर्सी पर
खतरा मँडरा रहा था। प्रदेश भाजपा के नेताओं में उनकी कार्यशैली को लेकर असंतोष था।
सरकार के काम-काज पर सवाल उठाए जा रहे थे। सबसे अधिक सवाल कोविड महामारी से निपटने
में हुई भारी लापरवाहियों एवं सरकार की अक्षमता पर उठाए गए, जिसके कारण इतनी मौतें हुईं कि शवों को
नदियों में बहाना या रेत में दफ्न करना पड़ा। जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में
भाजपा का पिछड़ना इसी सब का परिणाम माना गया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने एक
विश्वस्त अधिकारी ए के शर्मा को उत्तर प्रदेश भेजा। कहा गया कि शर्मा को योगी जी
के काम-काज पर नज़र रखने के लिए भेजा गया है। योगी जी दिल्ली तलब भी किए गए। जो भी
हुआ हो, अन्तत: प्रधानमंत्री समेत सभी नेताओं ने योगी जी की
भूरि-भूरि प्रशंसा की। तय हो गया कि यू पी अगला चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही
लड़ा जाएगा। उसके बाद योगी जी के दावों, घोषणाओंं और सरकार की
उपलब्धियों के प्रचार की उड़ान जोरों पर है।
जिला पंचायत चुनावों ने साबित किया कि नेताओं को खरीदा जा
सकता है,
जनता को नहीं। निर्वाचित नेताओं को खरीद कर या डरा-धमका कर जिला
पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के पद भले ही कब्जा लिए गए हों, जनता ने तो सीधे मतदान में बता दिया था कि वह क्या सोच रही है। योगी जी और
भाजपा के लिए यही चिंता का कारण है। विधान सभा चुनाव में जनता सीधे अपनी पसंद के
उम्मीदवारों को चुनेगी। पश्चिम बंगाल के हाल में हुए चुनावों के नतीजे भी भाजपा के
लिए चिंता का कारण हो सकते हैं, जहां मोदी जी का जादू नहीं
चला।
योगी जी के पक्ष में एक बात यह अवश्य है कि विपक्ष बिखरा और
बंटा हुआ है। मुख्य विपक्षी दल, समाजवादी पार्टी अपनी अपेक्षित भूमिका में
नहीं है। योगी सरकार की विफलताओं को वह आंदोलन में तब्दील नहीं कर पाई है। बसपा का
जनाधार काफी खिसक चुका है। वह अब फिर से ब्राह्मणों को रिझाने में लग गई है। कांग्रेस
प्रियंका गांधी के दौरों से जोर तो बांध रही है लेकिन जमीन पर उसके नेता हैं न
कार्यकर्ता।
(नवजीवन साप्ताहिक, 01 अगस्त, 2021)
No comments:
Post a Comment