हमारे देश में बहुत बड़ी आबादी है जो रोज कुआं खोदती और पानी पीती है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इसे विकास की मुख्य धारा का समाज बनना चाहिए था लेकिन आज भी यह हाशिए का ही समाज बना हुआ है। देश ने हर क्षेत्र में बहुत तरक्की की लेकिन हाशिए का समाज, जिसे निम्न वर्ग कहा जाता है, दो जून रोटी के लिए जूझता रहा है।
कोविड महामारी के पहले दौर में अचानक थोप दिए गए ‘लॉकडाउन’
के दौरान हमने हाशिए के इस समाज को नंगे पैर तपती सड़कों पर बच्चों को
कंधे पर बैठाए और साइकिल में गृहस्थी की गठरी लटकाए, अपने गांव
की ओर मीलों पैदल चलते और यहां-वहां दम तोड़ते देखा। इस विशाल कामगार भारत को तब सरकार
और राजनैतिक दलों एवं शहरी मध्य एवं उच्च वर्ग ने तनिक चकित होकर देखा। उनके लिए यह
दृश्य कमोबेश अजूबा था क्योंकि विकास की जो राह उसने चुनी उसमें यह भारत कहीं पीछे
छूट गया और बाकी देश इस समाज को भूल ही गया था। लॉकडाउन ने अचानक इस दृश्य से पर्दा
उठा दिया।
गांवों से लेकर महानगरों तक यह विशाल भारत फैला हुआ है। दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता
हो या लखनऊ-पटना-जयपुर जैसे शहर, शहरी मध्य एवं उच्च वर्ग का जीवन इस कामगार
भारत के बिना नहीं चलता। काम वाली बाई एक दिन नहीं आए तो देखिए बहुमंजिला अपार्टमएण्ट
के फ्लैटों में कैसी हाय-तौबा मचती है। एक दिन कचरा न उठे, बाबू
जी की कार साफ न हो पाए, ड्राइवर छुट्टी ले ले तो साहब-मेमसाहबों
को रोना आ जाता है। कारखाने उनके बिना नहीं चलते। उद्योग-धंधे उनकी अनुपस्थिति से ठप
पड़ जाते हैं। इसके बावजूद यह समाज अदृश्य रहता है। विकास की जो धारा स्वीकार कर ली
गई, उसमें इस भारत की जैसे कोई जगह ही नहीं, जबकि पूरा देश इन्हीं की बदौलत धड़कता है।
यह समाज समाचारों में नहीं होता। उसके लिए कोई सरकार आर्थिक
पैकेज जारी नहीं करती। उसकी दिहाड़ी कतई असुरक्षित है। उसके लिए कोई यूनियन नहीं है।
उसकी कोई बारगेनिंग पावर नहीं है। इसके बावजूद वहां जीवन धड़कता है। वे सपने देखते हैं
और उन्हें पूरा करने के लिए जूझते हैं। वे कोई प्रोजेक्ट नहीं बनाते और उन्हें किसी
बैंक से ऋण नहीं मिलता। उनके संकल्प ही उनकी पूंजी होते हैं। वहां सिर्फ दु:ख और संताप
नहीं होता, आगे बढ़ने का संकल्प और संघर्ष भी खूब होता है। बस, इसे देखने-समझने की दृष्टि चाहिए होती है।
वैज्ञानिक नजरिया रखने वाले संवेदनशील पत्रकार और हमारे पुराने
मित्र संजय मोहन जौहरी ने यह दृष्टि पाई है। ज़िम्मेदार पत्रकार के रूप में उन्होंने
लम्बी और सराहनीय पारी खेली और अब शिक्षक-निर्देशक के रूप में पत्रकारिता के विद्यार्थियों
को उसी दृष्टिकोण से प्रशिक्षित करने का दायित्व निभा रहे हैं। दैनंदिन जीवन में उन्होंने
अपने आस-पास जो हाशिए का समाज देखा, उसे अनदेखा नहीं किया। उनकी पैनी नज़र वहां गहरे
पैठी और तरह-तरह की मार्मिक कथाएं खोज लाई। यह किताब उसी दृष्टि और सम्वेदनशील मन का
परिणाम है।
दानिश, बुधई, दामिनी,
मानसी, मनु, बादल और इन जैसे
कई चरित्रों के जीवन, सपनों और संघषों की ये कथाएं जब आप पढ़ेंगे
तो जानेंगे कि ‘टर्निग पॉइण्ट’ सेलेब्रिटीज
के जीवन में ही नहीं आता। अपने आस-पास बिखरे उपेक्षित-वंचित समाज की ये कथाएं हम सबके
सामने लाकर संजय मोहन जौहरी ने बड़ा काम किया है।
साधुवाद और शुभकामनाएं।
(संजय मोहन जौहरी की किताब 'टर्निंग पॉइण्ट' की भूमिका)
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