Tuesday, July 20, 2021

यूपी चुनाव के लिए जातीय रस्साकशी


चुनाव जीतने की जातीय फॉर्मूला कितनी तेजी से बदलता रहता है
, यह आजकल उत्तर प्रदेश में खूब देखा जा सकता है। वहां अगले साल की शुरुआत में यानी कुछ ही महीनों बाद विधान सभा चुनाव होने हैं। दलितों-अति पिछड़ों की राजनैतिक गोलबंदी से राज्य की बड़ी ताकत बनी और चार बार सत्ता में आ चुकी मायावती एक बार फिर ब्राह्मणों को खुश करने की कोशिश में जुट गई हैं। उधर, सवर्णों की पार्टी के रूप में जानी जाने वाली भाजपा दलितों-पिछड़ों के लिए लाल कालीन बिछाए बैठी है। तीस साल से सत्ता से बाहर और हाशिए पर पहुंच चुकी कांग्रेस प्रियंका गांधी के सहारे ब्राह्मणों-दलितों-मुसलमानों के परम्परागत वोट बैंक को पुनर्जीवित करने की कोशिश में है तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने मजबूत यादव-मुस्लिम आधार में भाजपा से खिन्न चल रही जातियों को खींचने की रणनीति बना रहे हैं।

कांशीराम ने जिस दलित-अति पिछड़ा-मुस्लिम जातीय समीकरण से बहुजन समाज पार्टी को मजबूती से खड़ा किया था, उस आधार को बहुमत के लिए अपर्याप्त मानकर मायावती ने 2007 में उसमें ब्राह्मणों को बड़ी चतुराई से जोड़ा और पहली बार पूर्ण बहुमत पाया था। मनुवादियों को गले लगाने की इस चुनावी रणनीति को उनकी सोशल इंजीनियरिंगकहा गया था। 2012 के चुनावों में यही सोशल इंजीनियरिंग अपने तीखे अंतर्विरोधों के कारण उन्हें महंगी पड़ी। फिर 2014 आते-आते भाजपा ने अपने नए अवतार में इसी सोशल इंजीनियरिंग को सबका साथ, सबका विकासनारे के तहत बड़ी चतुराई से अपनाया। उसने अपने को गैर-जाटव दलित और गैर-यादव पिछड़ी जातियों की उद्धारक के रूप में पेश किया। इससे दलित एवं पिछड़ी जातियों-उपजातियों के अंतर्विरोध गहरे हुए और वे बड़े वोट बैंक से छिटक गए।

भाजपा ने इन अंतर्विरोधों को खूब हवा दी। परिणामस्वरूप दलित और पिछड़ी जातियों में वर्चस्व वाली जाटव और यादव जातियों को चुनौती देते हुए अति पिछड़ी जातियों का नेतृत्व उभरा जिसे भाजपा ने अपने पाले में खींच लिया। इससे बसपा और सपा दोनों का जनाधार कमजोर हो गया। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा की भारी जीत मुख्यत: इसी दलित-पिछड़ा जोड़-तोड़ के कारण सम्भव हुई।

अति-दलितों को बसपा और अति-पिछड़ों को सपा के पाले से खींच लाने की इस सफल रणनीति को भाजपा 2022 के लिए न केवल कायम रखने में लगी है, बल्कि उस पर और मजबूती से अमल करने का जतन कर रही है। हाल में केंद्रीय मंत्रिमण्डल का विस्तार साफ बताता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के लिए इस रणनीति को कितना महत्त्व दे रही है। जो सात नए मंत्री उत्तर प्रदेश से मोदी सरकार में शामिल किए गए उनमें छह पिछड़ा या दलित हैं, सवर्ण (ब्राह्मण) सिर्फ एक है। मोदी सरकार में उत्तर प्रदेश से अब 16 मंत्री हो गए हैं, यह न केवल अब तक की सबसे बड़ी संख्या है, बल्कि इसी जातीय समीकरण को पुष्ट करती है। उदाहरण के लिए, अपना दल (एनडीए का हिस्सा) की जो अनुप्रिया पटेल पहली मोदी सरकार में शामिल रहने के बाद 2019 में बाहर कर दी गई थीं, इस बार के विस्तार में उन्हें न केवल शामिल कर लिया गया, बल्कि बेहतर मंत्रालय भी दिया गया है। अपना दल यादवों के बाद सबसे ताकतवर कुर्मियों का प्रतिनिधित्व करता है।

क्या भाजपा के इस दलित-पिछड़ा प्रेमालाप से सवर्ण जातियां, विशेष रूप से ब्राह्मण खिन्न हैं? भाजपा को तो ऐसा नहीं लगता (यूपी में मुख्यमंत्री, एक उप-मुख्यमंत्री और कई मंत्री उच्च जातियों के हैं) लेकिन विपक्ष, खासकर मायावती ऐसा मानकर इसे खूब प्रचारित कर रही हैं ताकि ब्राह्मण एक बार फिर उन्हें समर्थन दे दें। बीते रविवार को मायावती ने ऐलान किया कि मुझे पूरा भरोसा है कि अब ब्राह्मण समाज बहकावे में आकर भाजपा को वोट नहीं देगा। उनके अनुसार ब्राह्मण अब पछता रहे हैं। बसपा के शासन में ही उनका हित सुरक्षित है,’ ब्राह्मणों को यह भरोसा दिलाने के लिए बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के नेतृत्व में 23 जुलाई को अयोध्या से एक अभियान भी शुरू किया जा रहा है। सतीश चंद्र मिश्र  मायावती के विश्वस्त और बसपा का बड़ा ब्राह्मण चेहरा हैं। 2007 में उन्होंने ही बसपा के ब्राह्मण भाईचारा अभियान का नेतृत्व किया था।

मायावती ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने के लिए तो रणनीति बना रही हैं लेकिन जो दलित जातियां उनके पाले से छिटक चुकी हैं, उन्हें वापस लाने के लिए उनकी क्या योजना है, इसका संकेत नहीं मिलता। हाल के वर्षों में उनके जाटव जनाधार में भी भीम आर्मी ने कुछ सेंध लगाई है। दलित आधार को एकजुट रखे बिना उच्च जातियों का समर्थन उन्हें सत्ता तक शायद ही पहुंचा सके।

अखिलेश यादव भी सपा से दूर हो गए पिछड़े नेताओं को साधने में सक्रिय हो गए हैं। उन्होंने किसी बड़े दल से चुनावी गठबंधन की सम्भावना से इनकार किया है लेकिन छोटे दलों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं। ये छोटे दलवास्तव में विभिन्न पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं के हैं जो सत्ता की वर्तमान जोड़-तोड़ में अपना महत्त्व समझकर बड़े दलों से समर्थन की अधिकाधिक कीमत वसूलने की फिराक में रहते हैं।

कुर्मियों के अपना दल का एक हिस्सा भाजपा के साथ है तो दूसरे को सपा और कांग्रेस रिझाने में लगे हैं। निषाद पार्टीजिसका मल्लाह, केवट, निषाद और बिंद जातियों में प्रभाव है, फिलहाल भाजपा के साथ होने के बावजूद अपनी नाराजगी व्यक्त करता रहता है जिस पर अखिलेश यादव की निगाह लगी है। मौर्यों, कुशवाहों और सैनियों के महान दल को समाजवादी पार्टी ने फिलहाल अपने साथ कर लिया है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटों में लोकप्रिय राष्ट्रीय लोक दल सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ना तय कर चुका है। आपके कुछ नेताओं से भी अखिलेश की बातचीत चर्चा में रही।

बिहार चुनाव में पांच सीटें जीतकर महागठबंधन का खेल बिगाड़ने वाले ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी भी यूपी में दांव आजमाएंगे। उन्होंने भाजपा से नाराज होकर एनडीए से अलग हुए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया है जिसमें बाबू सिंह कुशवाहा (कभी मायावती के विश्वस्त) की जन अधिकार पार्टी, प्रजापतियों की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी, राष्ट्रीय उदय पार्टी और जनता क्रांति पार्टी भी शामिल होंगी, ऐसे बयान आए हैं। आपऔर भीम आर्मी को भी इसमें शामिल होने की दावत दी गई है। ये छोटे-छोटे दल स्वयं चुनाव नहीं जीत सकते लेकिन उनका समर्थन बड़े दलों के लिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ये दल कब किसके साथ हो जाएं, यह कहा नहीं जा सकता। सपा के अलावा कांग्रेस भी इन दलों को अपने साथ लेने के लिए बातचीत कर रही है।

विभिन्न दलित एवं पिछड़ी जातियों के भीतर इस राजनैतिक जोड़-तोड़ ने छोटी या कम संख्या वाली जातियों में भी सामाजिक-राजनैतिक सशक्तीकरण का काम किया है। वे भी सत्ता में अपनी भागीदारी के लिए संगठित हुए हैं। वे किसी भी तरफ जा सकते हैं, जहां अधिक से अधिक भागीदारी का आश्वासन मिले। इससे यू पी का जातीय चुनावी रण बहुत रोचक हो गया है।

(प्रभात खबर, 21 जुलाई, 2021)                       

        

 

  

2 comments:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

सटीक विश्लेषण !

bhuwan said...

अत्यंत ज्ञानवर्धक लेख.