सरकारी कैलेण्डर में एक जुलाई का बड़ा महत्त्व है। वैसे, सभी सरकारी कैलेण्डर विशेष ही होते हैं। उसमें तय रहता है कि किस दिन से मलेरिया की दवा का छिड़काव करना है, भले ही मलेरिया अपना प्रकोप दिखाकर विदा हो चुका हो। जैसे सड़कों और पार्कों की बत्तियों के जलने का एक समय निश्चित है- पांच बजे, तो वे ठीक पांच बजे ही जलेंगी भले ही सात बजे तक खूब उजाला रहता हो।
खैर, एक जुलाई से सरकारी वन महोत्सव शुरू होता है।
अब सूखा पड़ा हो या जुलाई में शहर का तापमान चालीस डिग्री से ऊपर पहुंच रहा हो,
तब भी वन महोत्सव तो मनाया ही जाएगा। वृक्षारोपण सप्ताह अब पखवाड़े में
बदल चुके हैं, क्योंकि करोड़ों ‘पेड़ लगाने’
होते हैं। वृक्षारोपण के लिए हर सरकार पिछली सरकार से बड़े लक्ष्य निर्धारित
करती है और उसे पूरे जोर-शोर से पूरा करती है।
पिछले चार-पांच साल में इतने ‘वृक्ष रोपे’
जा चुके हैं कि न इमारतों की जगह बचनी चाहिए न मकान-दुकान-बाजारों की।
फिर भी नए-नए लक्ष्य हासिल करने का चमत्कार हर साल किया जा रहा है और आने वाले वर्षों
में भी किया जाता रहेगा। अब और भी जोर-शोर से इसलिए कि कोविड महामारी ने ऑक्सीजन का
महत्त्व भली-भांति समझा दिया है। तीसरी लहर आए या चौथी, ऑक्सीजन
के लिए कोई हाहाकार नहीं मचेगा। सब जान गए हैं कि ऑक्सीजन का सबसे अच्छा स्रोत वृक्ष
ही हैं।
पिछले कई सालों में देश के विभिन्न भागों में ऐसे ‘वृक्ष मानव’
हुए हैं जिन्होंने एक धुन की तरह अकेले दम बड़े-बड़े वन विकसित कर लिए।
उत्तराखण्ड के सुदूर क्षेत्रों से लेकर दक्षिण और पश्चिम भारत में भी ऐसे विलक्षण धुनी
व्यक्ति ऐसा करिश्मा दिखा चुके हैं और अब भी लगे हुए हैं। उनके लगाए-पाले-बचाए वन देखे
जा सकते हैं। सरकारी वृक्षारोपण की विशेषता है कि उनसे तैयार हुए वन कहीं दिखाई नहीं
देते। आंकड़े और बजट अवश्य फाइलों में देखा जा सकता है।
इस एक जुलाई से लखनऊ में एक नई व्यवस्था शुरू हुई है। यातायात
नियमों का उल्लंघन करने वालों का स्वचालित चालान शुरू हुआ है। इस पहल का स्वागत किया
जाना चाहिए। शायद इसी से यहां के अराजक यातायात में कुछ सुधार आए। इसका सीधा सम्बंध
चौराहों पर लगी स्वचालित बत्तियों और कैमरों से है जो कप्यूटर सर्वर से सीधे जुड़े हैं।
मतलब यह कि यह स्वचालित व्यवस्था तभी ‘चालित’ रहेगी जब चराहों
की लाल-हरी बत्तियां और कैमरे काम करते रहें।
हमने अपने किशोर दिनों से लेकर इस बुढ़ापे तक लखनऊ के चौराहों
पर इतनी बार ट्रैफिक लाइट लगते और बिगड़ते देखी हैं कि भरोसा ही नहीं होता कि यह व्यवस्था
कभी एक साल तक भी सुचारू चल सकेगी। कभी विश्व बैंक के अनुदान से ये लाइटें लगीं, कभी किसी
केंद्रीय योजना के तहत। साल भर में लाइट तो छोड़िए, उसका खम्भा
भी गायब हो जाता रहा है। लखनऊ अब स्मार्ट सिटी बन गया है। इस बार उन उन चौराहों पर
भी लाइटें लग गई हैं जहां कोई आवश्यकता नहीं है। बहरहाल, यह देखना
अच्छा लगता है कि काफी लोग लाल बत्ती पर रुकने लगे हैं। चालान का ही डर होगा। जिन्हें
चालान का डर नहीं वे फर्राटा भरते चले जाते हैं, जैसे नेता गण,
पुलिस वाले, सरकारी कारें और नगर निगम की कचरा
गाड़ियां। स्वचालित चालान व्यवस्था करती रहे सरकारी गाड़ियों का चालान!
इस व्यवस्था को सचमुच चलाना है और यातायात नियमों के प्रति सम्मान
पैदा करना है तो सबसे पहले ‘वीआईपी’ को लाल बत्ती पर
अपनी गाड़ी रोकनी होगी। अन्यथा वह भी सरकारी वृक्षारोपण की तरह कागजों में दर्ज़ एक व्यवस्था
बनकर रह जाएगी।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 3 जुलाई, 2021)
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