Friday, December 20, 2019

बहुमत की दबंगई से संविधान के साथ खिलवाड़



सुदूर उत्तर पूर्व भारत की शांति जैसे एक धमाके से भंग हो गई है. असम जल रहा है. त्रिपुरा उबल रहा है. इनर-लाइन-परमिट की आड़ में वहां के जो राज्य फिलहाल नागरिकता संशोधन कानून से बचते दिख रहे हैं वे भी सशंक हैं. नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की तलवार तो लटक ही रही है. बंगाल में विरोध बढ़ता जा रहा है. दिल्ली में उग्र प्रदर्शनकारियों के निर्मम दमन के प्रति आक्रोश व्यापक हो रहा है. उत्तर प्रदेश, बिहार समेत लगभग सभी राज्यों में गुस्सा सुलग रहा है. छिट-पुट प्रदर्शन भी कुचले जा रहे हैं जो प्रतिरोध को और हवा दे रहे हैं.

केंद्र की मोदी सरकार जनता के आक्रोश को सुनने-समझने की बजाय उसके पीछे कांग्रेस और मुसलमान गुण्डोंका हाथ बता रही है. प्रदर्शनकारियों का बर्बर दमन किया जा रहा है. अमित शाह से लेकर आदित्यनाथ योगी तक बढ़-चढ़ कर घोषणा कर रहे हैं कि एनआरसी देश भर में लागू किया जाएगा. योगी ने तो एनआरसी को सरदार पटेल की कल्पना के एक भारत-मजबूत भारत से जोड़ दिया है.

दूसरी तरफ, देश भर के मुसलमानों में आशंकाएं और भय व्याप्त हो रहे हैं. विभिन्न राज्यों से खबरें मिल रही हैं कि मुसलमान अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए दस्तावेज जुटाने में लगे हैं, जिनके अभाव में उन्हें घुसपैठिया बताकर देश से खदेड़े जाने का खतरा पैदा हो गया है. 

संसदीय बहुमत के गुमान में चूर मोदी सरकार विवादित मुद्दों पर जनमत जानने या उस पर बहस आमंत्रित करने की बजाय अपने फैसले एकाएक और जबरिया थोप रही है. नोटबंदी का फैसला हो या कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर एनआरसी या नागरिकता संशोधन कानून, सभी फैसले बहुमत के जोर से थोपे गए हैं. सरकार ने आज तक नोटबन्दी के भारी नुकसान कुबूल नहीं किए, न ही वह एनआरसी और नागरिकता कानून की असंवैधानिकता की कोई चिंता कर रही है. संविधान की प्रति के सामने शीश नवाने और संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेकने वालों की सरकार वस्तुत: लोकतंत्र के नाम पर बहुमत की दबंगई चला रही है.

असम में एनआरसी लागू करने की कोशिश में जो उतावली की गई, उसके नतीजे में नागरिकता संशोधन कानून लाया गया. वहां जो 19 लाख से ज़्यादा लोग एनआरसी से बाहर रह गए थे, उनमें अधिसंख्य गैर-मुस्लिम निकले. नागरिकता संशोधन कानून उसी गलतीकी भरपाई के लिए लाया गया लेकिन यह चिंता भाजपा को है ही नहीं इस कानून के प्रावधान स्पष्टत: संविधान की मूल भावना और भारतीय समाज की विशिष्ट पहचान पर चोट करते हैं.

संयुक्त राष्ट्र से लेकर विभिन्न देशों में मोदी सरकार के इन फैसलों पर न केवल आश्चर्य, बल्कि विरोध भी व्यक्त किया जा रहा है तो उसके पर्याप्त कारण हैं. जिस धार्मिक-जातीय-सांस्कृतिक अनेकता में एकता के लिए भारत की पहचान रही है और जिस देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार देता है, उसमें किसी धार्मिक समुदाय के प्रति भेदभाव का कानून कैसे बनाया जा सकता है. नागरिकता कानून में किया गया संशोधन यह कहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से उत्पीड़ितहोकर भारत आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, पारसियों को देश की नागरिकता दी जासकती है. इसमें मुसलमानों को जानबूझकर छोड़ दिया गया है. तर्क यह दिया गया है कि ये देश इस्लामिकहैं इसलिए वहां मुसलमान उत्पीड़ित नहीं हो सकते.

इस तर्क में अनेक कुतर्क हैं. अगर दूसरे देशों के गैर-मुस्लिम उत्पीड़ितों की चिन्ता है तो नेपाल, म्यांमार, जैसे प‌ड़ोसी देशों को क्यों छोड़ दिया गया? फिर, इस्लामिक देशों में भी कोई मुस्लिम उत्पीड़ित क्यों नहीं हो सकता? विभाजन के समय पाकिस्तान गए बहुतेरे मुस्लिम आज भी वहां उत्पीड़ित हैं. कई वापस भी लौटे क्योंकि उन्हें वह पाकिस्तान नहीं मिला, जिसकी उम्मीद में वे वहां गए थे. अपना मूल मुल्क अगर उन्हें आज बेहतर लगता है तो वे यहां ससम्मान क्यों नहीं रह सकते? ऐसे मुसलमान यहां घुसपैठिए कहलाएं और बाकी सब नागरिकता दिए जाने योग्य शरणार्थी, कानून में संशोधन करके इस भेदभाव को संवैधानिक स्वीकृति कैसे दी जा सकती है?

गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में  बार-बार यह कहा कि इस देश का विभाजन धर्म केआधार पर हुआ. ऐसा नहीं हुआ होता तो यह कानून बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. यह अमित शाह की गलत बयानी है. पाकिस्तान की मांग धर्म के आधार पर थी, जिसका महात्मा गांधी ने तो खैर अंतिम समय तक रोकने की कोशिश की ही, कांग्रेसी नेताओं ने भी पूरा विरोध किया. अंतत: पाकिस्तान बना लेकिन जो भारत बचा रहा वह कहीं से भी धर्म के आधार पर नहीं है. मुसलमानों की बड़ी आबादी ने फिर भी इसे अपना देश माना और पाकिस्तान जाने से इनकार किया. गांधी, नेहरू, आम्बेडकर, राजेंद्र प्रसाद और अन्य महान नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष और सभी नागरिकों को हर स्तर पर समानता देने वाला  संविधान दिया. आज तक यहां किसी के साथ इस तरह का भेदभाव नहीं हुआ. भारत की बहुलता की प्राचीन परम्परा है. पाकिस्तान में यदि धर्म के आधार पर उत्पीड़न होता है तो भारत में भी क्यों होना चाहिए? मुसलमानों से भेदभाव वाला कानून बनाकर उनके साथ उत्पीड़न ही तो किया जा रहा है.

नागरिकता कानून में संशोधन से बहुत बड़ी आबादी प्रभावित नहीं होती लेकिन जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं वह है भारत की बहुलता और संविधान की मूल भावना जिसे सबसे बड़ा खतरा एनआरसी से है. भाजपा और संघ के नेता डंके की चोट पर कह रहे हैं कि एनआरसी  पूरे देश में लागू होगा. इसकी तैयारियां भी होने लगी हैं. देश की बड़ी मुसलमान आबादी भय और संशय में जी रही है. इण्डियन एक्सप्रेसमें हाल ही में प्रकाशित एक समाचार बताता है कि देश के कई राज्यों में मुसलमान अपनी भारतीय विरासत के प्रमाण जुटाने में लगे हैं. कई संगठन इसमें उनकी सहायता कर रहे कि दस्तावेज पुख्ता हों, जन्म-तिथि, नाम और वल्दियत सही दर्ज़ हो, हिज़्ज़ों की भी गलतियां न हों. महाराष्ट्र, कोलकाता, बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना सहित कई राज्यों में शिविर लगाकर मुसलमानों को आवश्यक दस्तावेजों के बारे में बताया जा रहा है, उन्हें जांचा जा रहा है ताकि एनआरसी  के वक्त किसी कमी या विसंगति के कारण उन्हें घुसपैठिया घोषित न कर दिया जाए. औरंगावाद के डॉ भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय के शोध-छात्र अता-उर-रहमान नूरी ने इस बारे में एक किताब ही लिख डाली है. एनआरसी - अंदेशे, मसले और हल नाम की इस पुस्तक के अब तक दो संस्करण बिक चुके हैं. हर संस्करण 1100 प्रतियों का है. तीसरा संस्करण छप रहा है. इससे साबित होता है कि मुसलमानों में कितनी चिंता है और वे किस कदर परेशान हैं.

भारत में जन्म होने का प्रमाण ही मुसलमानों के लिए नागरिकता के लिए पर्याप्त नहीं है. उन्हें बाप-दादों के और जमीन, आदि के मालिकाना हक के पुख्ता प्रमाण पेश करने होंगे. अन्यथा वे घुसपैठियाकरार दिए जाएंगे. अगर कोई गैर-मुसलमान अपने दस्तावेज नहीं दे पाता तो वह घुसपैठियानहीं, शरणार्थी माना जाएगा और नागरिकता का हकदार होगा.

इसमें शक नहीं कि यह मुसलमान-विरोधी अभियान है. एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य की पहचान खत्म की ही जा चुकी की है. यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होगा. समान नागरिक संहिता की चर्चा भी शुरू हो चुकी है. हिंदू-राष्ट्रके एजेण्डे पर जोर-शोर से काम चल रहा है, जिसमें मुसलमानों के लिए सम्मान की कोई जगह नहीं होगी.
देश में बढ़ता विरोध और उसकी आक्रामकता बताती है कि इन मंसूबों का सशक्त और व्यापक प्रतिकार होगा. 

(नवजीवन, दिसम्बर, 2019)    

        

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