Friday, December 27, 2019

लोकतांत्रिक मर्यादा रखना भी प्रशासन का दायित्व है

भारतीय समाज कठिन दौर से गुज़र रहा है. कठिन इस मामले में कि राजनैतिक-सामाजिक विचारों का जो द्वंद्व हमेशा सतह के नीचे रहता था, वह उग्र रूप में सतह के ऊपर निकल आया है. वैचारिक आलोड़न-विलोड़न में क्या दिक्कत थी यदि वह समाज के हिंसक विभाजन तक न पहुंचा होता. विचारों की विभिन्नता व्यक्तिगत-राजनैतिक द्वेष से भी आगे निकली जा रही है. वोटों की रोटी चूंकि इसी आग में सेंकी जा रही है, इसलिए वह शांत होने की बजाय उग्रतर हो रही है.

नागरिकता संशोधन कानून और नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर मतभेद अत्यंत स्वाभाविक हैं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति हिंसक और जवाबी दमन में होने लगना बहुत चिंताजनक है. शासन का दायित्व है कि वह हिंसा को रोके और हिंसा करने-भड़काने वालों से कानूनन सख्ती से निपटे. इसी में उसका यह गुरुतर दायित्व भी निहित है कि कोई भी निर्दोष उत्पीड़ित न हो, शासन-प्रशासन की कार्रवाई में तो कतई ऐसा नहीं होना चाहिए. शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को होने देना भी उसकी ज़िम्मेदारी है.

हाल के विरोध–प्रदर्शनों, जिनमें दुर्भाग्य से बड़ी हिंसा भी हुई, के बाद शांति एवं सद्भाव के लिए सक्रिय लोगों के खिलाफ भी प्रशासनिक और पुलिसिया कार्रवाई किए जाने की खबरें मिल रही हैं. ऐसे आरोप भी बहुत लग रहे हैं कि पुलिस बदले की भावना से काम कर रही है. लखनऊ ही का उदाहरण लें तो कुछ मामले चिंता में डालने वाले हैं और पुलिस की भूमिका पर गम्भीर सवाल उठाते हैं.

पूर्व आईपीएस अधिकारी एस आर दारापुरी और संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर को उपद्रव भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा जाना अफसोसनाक है. और भी होंगे लेकिन कम से कम ये दो नाम ऐसे हैं जिन्हें समाज में शांति, सद्भाव और रचनात्मक जागरूकता का काम करने के लिए जाना जाता है. कोई नहीं मानेगा कि वे हिंसा भड़का रहे थे. बल्कि, हर अशांति के समय ये अमन कायम करने के लिए आगे आते रहे हैं. विभिन्न क्षेत्रों से इनकी रिहाई की लगातार अपीलें भी इसीलिए हो रही हैं.

चूंकि प्रदर्शनकारियों का सबसे पहला सामना पुलिस से होता है, इसलिए वही सत्ता के प्रतीक रूप मे सामने आती है. इसी कारण कई बार वह गुस्से और हिंसा की चपेट में आती है. उपद्रवी जानबूझकर पुलिस पर हमला करके शांति भंग करते हैं. उनकी पहचान और पकड़ जरूरी है. लेकिन इसके जवाब में  पुलिस बदले की भावना से काम करेगी तो निर्दोष ही मारे जाएंगे, जैसा कि अक्सर होता है. सुरक्षा बलों को धैर्य और संयम की परीक्षा देनी ही होती है. उनका बर्बर हो जाना खतरनाक है.
ध्यान रहे कि कल का विपक्ष आज सत्ता में है तो कल फिर वह विपक्ष में होगा. तब क्या उसे लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शन के अधिकार की आवश्यकता नहीं होगी? यही पुलिसिया दमन तब उसके हिस्से आएगा, तो? राजनैतिक दमन के लिए पुलिस और कानून का इस्तेमाल कितना खतरनाक होता है, हम पहले देख चुके हैं.

हिंसा फैलाने वालों से सख्ती से निपटने के निर्देशों का अर्थ यह हरगिज नहीं होना चाहिए कि पुलिस को मनमानी करने या शांतिपूर्ण विरोध व्यक्त करने वालों के दमन की छूट दे दी गई है. हिंसा न हो, यह देखना उसका दायित्व अवश्य है. इसके लिए उसके पास पर्याप्त अधिकार और कानूनी आधार हैं. इसकी आड़ में शांतिपूर्ण विरोध भी व्यक्त करने न देना, महिलाओं-बच्चों तक को पीट देना, गिरफ्तार कर लेना, धमकाना और तरह-तरह से आतंकित करना जारी रहेगा तो इसके विरोध में आवाज़ें उठनी चाहिए. ऐसे में सभ्य नागरिक समाज चुप कैसे बैठेगा, जबकि इसके लिए संविधान उसे संरक्षण और स्वतंत्रता देता है.


समाज को यह आश्वस्ति सरकार से मिलनी ही चाहिए कि उसके संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार सुरक्षित एवं सम्मानित हैं. 


(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 दिसम्बर, 2019)

No comments: