Wednesday, December 25, 2019

छोटा सहयोगी ही रहेगी कांग्रेस?



कांग्रेस खुश हो सकती है कि एक और राज्य,  झारखण्ड की सत्ता से भाजपा अपदस्थ हो गई और इसमें उसका भी हाथ रहा. इससे पहले महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की महायुतिको पूर्ण बहुमत मिलने के बावज़ूद यह गठबंधन टूटा और भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. वहां भी कांग्रेस सरकार में भागीदार बनी है. पिछले डेढ़-पौने दो साल में मध्य भारत के पांच राज्यों की सत्ता भाजपा के हाथ से निकल गई है. जम्मू-कश्मीर छठा राज्य मान सकते हैं, जहां सत्ता में उसकी भागीदारी जाती रही हालांकि वहां की स्थितियां अब बिल्कुल फर्क हैं. हरियाणा भी कांग्रेस के लिए थोड़ी खुशी लाया था, जहां उसने काफी अच्छा प्रदर्शन किया, हालांकि भाजपा सत्ता पर काबिज़ होने में कामयाब रही.


झारखण्ड में भाजपा को हराने का जश्न कांग्रेसियों ने इस तरह मनाया जैसे इस विजय के मुख्य नायक वे ही हों, जबकि सच यह है कि झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन में वह दूसरे नम्बर की अपेक्षाकृत छोटी हिस्सेदार है. महाराष्ट्र में वह शिव सेना और एनसीपी के बाद तीसरे नम्बर की सहयोगी है. कर्नाटक में वह बड़ा दल होने के बावज़ूद जनता दल (एस) के साथ छोटे पार्टनर की भूमिका में आई लेकिन अंतत: भाजपा ने उसकी यह खुशी ज़्यादा दिन नहीं रहने दी थी.

तो, क्या दशकों तक केंद्र और राज्यों में एकछत्र राज करने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी अब अपने अस्तित्व के लिए क्षेत्रीय दलों की आड़ लेने को विवश है? यह आज के राजनैतिक हालात का उसका स्वीकार या भविष्य की राह तलाशने की रणनीति?

यह निश्चित है कि कांग्रेस को अपनी सम्मानजनक जगह पाने के लिए सीधे भाजपा से टकराना और उसे पराजित करना होगा. सन 2014 के बाद से वह भाजपा के हाथों चुनाव मैदान ही में नहीं, राजनैतिक दाँव-पेचों में भी पिटती रही है. कुछ राज्यों में सबसे बड़ा विधायक दल होने के बावज़ूद भाजपा उसके मुंह से सत्ता का निवाला छीन ले गई. कहीं भाजपा ने सीधे उसके विधायकों को अपने पाले में करके मैदान मारा. पिछले छह साल का अनुभव बताता है कि कांग्रेस न मोदी-शाह की जोड़ी का मुकाबला चुनाव मैदान में कर पा रही है, न ही जोड़-तोड़ और सांगठनिक रणनीति में.
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की विजय अवश्य एक अपवाद की तरह रही. इनमें भी पहले दो राज्यों में भाजपा से वह बमुश्किल जीत पाई थी और अब तक भाजपा की जोड़-तोड़ वाली राजनीति से आशंकित रहती है. अरुणाचल और उत्तराखण्ड में भाजपा रचित भितरघाती चालें उसकी आशंकाओं का कारण बनी रहीं.

राष्ट्रीय दलों का क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाना हमारी चुनावी राजनीति में नई बात नहीं. स्वयं कांग्रेस ने कई बार कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों से तालमेल कर सरकारें चलाई हैं. हाल के वर्षों में भाजपा ने क्षेत्रीय दलों से मेल-बेमेल तालमेल किए. बिहार में जद (यू) से लेकर कश्मीर में पीडीपी जैसे कट्टर विरोधी दलों तक से उसने गलबहियां कीं. बिहार में वह अब तक दूसरे नम्बर की सहयोगी के रूप में गठबंधन निभा रही है. अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए भाजपा को पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भी ऐसा करना पड़ा है लेकिन उसके पास केंद्र की सत्ता में होने की बड़ी ताकत है.

कांग्रेस के सामने अपनी पहचान बनाने का कोई संकट नहीं रहा. आज बड़े भू-भाग में सत्ताच्युत होने के बाद भी वह सब जगह सुपरिचित है. तब भी आज उसे अपने अस्तित्व के लिए छोटे क्षेत्रीय दलों या अपने से ही छिटक कर अलग हुए क्षत्रपों का जूनियर पार्टनर बनना पड़ रहा है. शायद यह नई रणनीति है.

महाराष्ट्र में शिव सेना-एनसीपी के साथ सरकार बनाने के प्रस्ताव पर उसका असमंजस स्पष्ट रूप से सामने आया था. सोनिया गांधी को यह फैसला करने में बहुत वक्त लगा. शरद पवार के कई प्रयास के बाद ही वे राजी हुईं. कांग्रेस के लिए दो कारणों से यह कड़वा घूंट था. एक तो भाजपा से भी कट्टर हिंदू पार्टी शिव सेना का साथ देना और दूसरे उस राज्य में तीसरे नम्बर का जूनियर बनना जहां कभी उसका एकछत्र राज था. अंतत: कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने शिव सेना नीत गठबंधन और सरकार में शामिल होने का फैसला किया.

उसके बाद झारखण्ड में झामुमो का जूनियर पार्टनर बनने में उसे ज़्यादा हिचकिचाहट नहीं हुई. इससे तो यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व अपनी इस विवशता को नई रणनीति में बदलना चाहता है. छोटे सहयोगी के रूप में ही सही, सरकार में शामिल होना पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और उन्हें जमीनी ताकत देने का काम करता है. अगर इससे मुख्य प्रतिद्वन्द्वी सत्ता से बाहर होता है तो दोहरा फायदा है.

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस तीन दशक से सत्ता से बाहर है. इसका परिणाम यह है कि उसके पास इन राज्यों में जमीनी कार्यकर्ता ही नहीं रह गए. राजनीति आज विचार-निष्ठा और सामाजिक सेवा नहीं रह गई है. नेताओं-कार्यकर्ताओं को सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी चाहिए होती है या अपना अवैध-अनैतिक साम्राज्य बचाने के लिए सरकार का संरक्षण. इसीलिए सत्तारूढ़ दल की तरफ उनकी भगदड़ मची रहती है. पुराने कांग्रेसी भी धीरे-धीरे दूसरे दलों में चले गए.

कांग्रेस ने धुर विरोधी शिव सेना के साथ जाना बेहतर समझा तो अब कम से कम वह अपने कई कार्यकर्ताओं-नेताओं को सत्ता-सुख दिला सकती है. और भाजपा को भी सत्ता से बाहर रखे है. यही झारखण्ड में भी होगा. इससे कांग्रेस को अपना संगठन खड़ा करने में मदद मिल सकती है.

इस रणनीति के खतरे कम नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को इसके कटु अनुभव हो चुके हैं. बिहार में वह वर्षों से राजद की बहुत छोटी सहयोगी से ऊपर नहीं उठ सकी. उत्तर प्रदेश में उसने एक बार बसपा से और दो बार सपा से गठबंधन किया. हर बार क्षेत्रीय दल लाभ में रहे. कांग्रेस का प्रभाव क्षेत्र और सीमित हो गया. आज तक दोनों राज्यों में कांग्रेस अपने खड़े होने लायक जमीन नहीं तलाश पाई है. बीते लोक सभा चुनाव में तो सपा-बसपा ने कांग्रेस को अपने गठबंधन में शामिल करने से ही इनकार कर दिया था.

छोटा सहयोगी बनने की रणनीति कांग्रेस के लिए तात्कालिक ही हो सकती है. भाजपा को टक्कर देने के लिए उसे किसी क्षेत्रीय दल की आड़ से बाहर निकला होगा. क्षेत्रीय दलों का बड़ा सहयोग भाजपा को कुछ राज्यों में अपदस्थ तो कर सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर का मोर्चा कांग्रेस को ही लड़ना होगा. इसके लिए जिस मजबूत पार्टी संगठन, जनता के बीच सतत सक्रियता और जन-मुद्दों को धार देने का कौशल चाहिए, उसकी तैयारियां भी कहीं हैं?   
            
(प्रभात खबर, 26 दिसम्बर, 2019)   
     


1 comment:

कविता रावत said...

शायद पाचन तंत्र गड़बड़ा गया लगता है, इसलिए अब खिचड़ी का जमाना ही लगता है।