Friday, December 20, 2019

हिंसा बड़ी साजिश है, मूल मुद्दा ही बदल देती है


सबसे पहले हिंसा की कठोर निन्दा. किसी भी तरह के विरोध-प्रदर्शन में हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. हिंसा से विरोध-प्रदर्शन का उद्देश्य ही विफल हो जाता है. मुद्दा बदल जाता है. अगर आप नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का विरोध कर रहे हैं तो हिंसा होने से मूल मुद्दे की बजाय हिंसा और हिंसा फैलाने वाले चर्चा में आ जाते हैं. विरोध जितना शांतिपूर्ण होगा, उसकी ताकत उतनी बड़ी होगी और आवाज़ दूर तक जाएगी. गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत में यही भाव है.

लेकिन गुरुवार को हिंसा हुई और कम नहीं हुई. जिस तरह की हिंसा हुई और कई जगह हुई, उससे लगता है कि उसकी तैयारी थी. वे कौन थे? सामाजिक संगठन हमेशा से शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करते रहे हैं. गुरुवार को भी वे पुलिस बैरिकेडिंग पर शांतिपूर्ण जमा होकर नारे लगा रहे थे. पुलिस ने ज़ल्दी ही उन्हें तितर-बितर कर दिया था. क्या हिंसा में कुछ राजनैतिक दलों का हाथ था? या, क्या सरकार को बदनाम करने के लिए हिंसा की गई? या, इस हिंसा का मकसद सरकार-विरोधी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध जनमत बनाना था? मीडिया रिपोर्ट कह रही हैं कि इसमें नकब पहने कुछ बाहरी लोगों का हाथ था. ये बाहरी लोग कौन थे? प्रशासन उनसे सतर्क क्यों नहीं था? उनकी पहचान क्यों नहीं की गई? इन सवालों सही का ज़वाब मिलना आसान नहीं है.

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि लोकतंत्र में असहमति या विरोध प्रदर्शन की न केवल अनुमति दी जानी चाहिए, बल्कि विरोध करने वालों का पक्ष धैर्यपूर्वक सुना भी जाना चाहिए. इतनी जगह और इज़ाज़त मिलनी चाहिए कि राजनैतिक दल हों या सामाजिक संगठन, वे किसी मुद्दे पर अपना अहिंसक विरोध दर्ज़ कर सकें. जहां विरोध-प्रदर्शन करने दिए गए, विरोधियों के ज्ञापन लिए गए या उनके प्रतिनिधिमण्डल की बात सुनी गई, वहां हिंसा की सम्भावना ही नहीं रही. मुम्बई सबसे अच्छा उदाहरण रहा, जहां प्रदर्शनकारियों को अगस्त क्रांति मैदान में जमा होने और अपनी आवाज़ उठाने की अनुमति दी गई थी. हिंसा वहीं फैली जहां विरोध-प्रदर्शन करने ही नहीं दिए गए. इसी से हिंसा फैलाने वालों को अवसर मिला.

इन पंक्तियों के लेखक को प्रशासन की अनावश्यक सतर्कता का अनुभव हुआ. 19 दिसम्बर काकोरी काण्ड के शहीदों का शहादत दिवस होता है. फैज़ाबाद का अशफाकुल्ला खान मेमोरियल शहीद शोध संस्थान इस मौके पर  प्रतिवर्ष फैज़ाबाद जेल में एक समारोह करता है, जैस जगह शफाकुल्ला को फांसी दी गई थी. इसमे निबंध-प्रतियोगिता के विजेता स्कूली बच्चों और कुछ व्यक्तियों को पुरस्कृत-सम्मानित करके देश के लिए बलिदान देने वालों की याद की जाती है. इस लेखक को उस कार्यक्रम में शामिल होना था. ऐन मौके पर जेल एवं जिला प्रशासन ने कार्यक्रम की अनुमति रद्द कर दी. किसी तरह यह कार्यक्रम दूसरी ज्गह सम्पन्न कराया गया. परिणाम यह हुआ कि कार्यक्रम में शहीदों के बलिदान की गाथा से कहीं अधिक प्रशासन के रवैए की तीखी निंदा की गई.

शहीद अशफाकुल्ला खान की याद में आयोजित कार्यक्रम से भला प्रशासन को क्या आपत्ति हो सकती थी? लेकिन चूंकि उस दिन देश भर में नागरिकता कानून के विरुद्ध प्रदर्शन होने थे, सम्भवत: इस कारण उसकी अनुमति वापस ले ली गई, जबकि वहां बच्चों और अभिभावकों के बीच देश-प्रेम और त्याग के बारे में बताया जाना था. प्रशासन के रवैए ने ही इस आयोजन को एकाएक सरकार-विरोधी आयोजन में बदल दिया.

सरकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि विरोधी-विचार का आदर लोकतंत्र की आत्मा है. बहुमत का अर्थ अल्पमत वालों की अनसुनी करना नहीं होना चाहिए. विरोध अवश्य सुना जाए और हिंसा फैलाने वालों की निष्पक्षता से पहचान कर उन्हें दण्डित किया जाए.  

  (सिटी तमाशा, नभाटा, 21 दिसम्बर, 2019)

    


  

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