कोलकाता के फुटपाथ और चौराहों पर पिछले
कुछ समय से एक नई भीड़ दिख रही है. यह भीड़ मूर्तियों की है. महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष बोस की प्रतिमाएं
कोलकाता के लिए अनजानी नहीं लेकिन इन दिनों अपेक्षाकृत कम चर्चित बांगला-नायकों की
भी बड़ी-बड़ी मूर्तियां बड़ी संख्या में दिखाई देने लगी हैं. कुछ के दर्शन सुलभ हैं
जबकि कई बड़ी-बड़ी पन्नियों में लिपटी हुई हैं. इन्हें उचित समय पर उद्घाटन की
प्रतीक्षा है. यह ‘उचित समय’ लगभग आ ही गया है. कोलकाता नगर निकायों के चुनाव चार महीने दूर हैं. बंगाल विधान सभा के चुनाव में भी 2021
में होने हैं. ये मूर्तियां चुनावों में बड़ी भूमिका निभाने वाली हैं.
‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार अकेले उत्तरी कोलकाता में बीस से अधिक नई
मूर्तियां प्रकट हो गई हैं. महानगर के दक्षिणी हिस्से के लिए और भी ज़्यादा
मूर्तियां तैयार हो रही हैं. इनमें महात्मा गांधी और सुभाष बोस तो हैं ही, रबींद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमंस, राम मोहन राय, सिस्टर निवेदिता, ईश्वरचंद विद्यासागर तथा कई
अल्पज्ञात बांगला-गौरव-नायक शामिल हैं. कुछ मूर्तियां 30-35 फुट ऊंची हैं तो कुछ
अपेक्षाकृत छोटी हैं. सभी मूर्तियों में एक बात समान है. उन्हें स्थापित करने का
श्रेय सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और उसके स्थानीय पार्षद या नेता को देने के लिए
शिलापट लगे हैं. इन नामों पर रात में भी रोशनी पड़ने का इंतज़ाम किया गया है.
जिस दिन यह समाचार सामने आया उसी दिन
उत्तर प्रदेश के समाचार पत्रों में प्रमुखता से यह प्रकाशित हुआ कि पूर्व
प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेई की 25 फुट ऊंची प्रतिमा ‘लोक भवन’ में स्थापित होने के लिए लखनऊ पहुंच गई है.
लखनऊ से पांच बार सांसद रहे अटल जी के जन्म दिन, 25 दिसम्बर
को इसका लोकार्पण किया जाएगा.
पिछले कुछ वर्षों से मूर्तियों की
राजनीति या राजनीति में महापुरुषों के नाम का इस्तेमाल बहुत तेजी से बढ़ा है. गुजरात
में सरदार पटेल की ‘विश्व की सबसे ऊंची’
प्रतिमा हाल के वर्षों में चुनावी-राजनीति का विशेष केंद्र बनी हुई
है. शायद ही कोई शहर हो जहां गांधी जी की प्रतिमाएं न हों. 1980 के दशक के बाद
आम्बेडकर की छोटी-बड़ी प्रतिमाएं शहरों ही नहीं, कस्बों,
देहातों और बस्तियों तक स्थापित हो रही हैं. उत्तर प्रदेश की
राजधानी लखनऊ में आम्बेडकर और अन्य दलित नायकों की मूर्तियों के अलावा जीवित
मायावती की मूर्तियां भी बड़ी तादाद में हैं जिनकी सुरक्षा के लिए विशेष बल तैनात
रहता है. इन मूर्तियों के अंग-भंग या अपमान की वारदात भी राजनीति का हिस्सा बनती
हैं.
महापुरुषों के मूल विचार नहीं,
उनकी प्रस्तर-प्रतिमाएं हमारे देश की चुनावी राजनीति का नया हथियार
हैं. जिन राष्ट्रीय या स्थानीय नायक-नायिकाओं की प्रतिमाओं से फुटपाथ और चौराहे
जगमगा रहे हैं, उनके विचार राजनीति दलों के लिए कितना
महत्त्व रखते हैं? उनको कितनो कितना सम्झा जाता है? आम जनता को ये मूर्तियां क्या संदेश देने के लिए स्थापित की जा रही हैं?
कोलकाता का उदाहरण लेते हैं,
जहां ज़ल्दी-ज़ल्दी बड़ी संख्या में मूर्तियां स्थापित की जा रही हैं. तृणमूल
कांग्रेस का कहना है कि ये मूर्तियां बांग्ला संस्कृति और साम्प्रदायिक एकता की
प्रतीक हैं और इनका उद्देश्य भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति का मुकाबला करना है.
जो मूर्तियां लगाई जा रही हैं, वे 19-20वीं शताब्दी के
बांग्ला पुनर्जागरण के नायकों की हैं जिन्होंने समाज में क्रांतिकारी बदलाव किए.
पूछा जाना चाहिए कि तृणमूल कांग्रेस
को आज अचानक अपने इन विस्मृत नायकों की याद क्यों आई?
इनकी मूर्तियों की स्थापना अब क्यों प्राथमिक एजेण्डा बन गया?
उत्तर की तलाश कतई कठिन नहीं. ममता बनर्जी के गढ़ में सेंध लगाने के
लिए भाजपा लम्बे समय से प्रयासरत है. हिंदू-ध्रुवीकरण का अभियान भी इसका हिस्सा
है. लोक सभा चुनाव के काफी पहले से वहां
व्यापक स्तर हनुमान जयंती और रामनवमी पर्व मनाए जाने का सिलसिला शुरू किया गया जिसकी
बंगाल में कोई परम्परा नहीं थी. तृणमूल इसे भाजपा के साम्प्रदायिक अभियान के रूप
में देखती है. इस बीच एनआरसी तथा नागरिकता संशोधन विधेयक लाए जाने से ममता बनर्जी
की चुनौती बढ़ रही है. इन नई चुनौतियों के मोर्चे पर भाजपा का सामना करने के लिए वह
बांग्ला-गौरव-नायकों की मूर्तियों का सहारा ले रही है. इस तरह ये मूर्तियां
राजनैतिक युद्ध का हथियार बन रही हैं, जैसे कि भाजपा ने ‘हिंदू-पर्वों’ को अपना अस्त्र-शस्त्र बनाया है.
याद कीजिए कि कोलकाता में लोक सभा
चुनाव के आक्रामक प्रचार के दौरान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी गई
थी. भाजपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों ने इसके लिए एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराया था
और दोनों ने ही नई और भव्य मूर्ति बनवाने का
वादा किया था. उसी रणनीति की अगली कड़ी अब कोलकाता में दिखाई दे रही है.
हमारे देश में सबसे अधिक प्रतिमाएं
आम्बेडकर की दिखती हैं. बड़े शहरों में लगी भव्य प्रतिमाओं से लेकर छोटी-छोटी
बस्तियों में लगी छोटी मूर्तियों तक. बहुजनवादी दलों के लिए ये मूर्तियां
दलित-राजनीति और सामाजिक चेतना की प्रतीक रही हैं. पिछले कुछ वर्षों से दलित-पिछड़ा
वर्ग में राजनैतिक पैठ बनाने के लिए भाजपा ने भी आम्बेडकर को अपनाया है. वर्तमान
में आम्बेडकर सभी दलों के प्रिय बने हुए हैं. प्रश्न यह है कि क्या आम्बेडकर के जो
विचार और मूल्य बहुजनवादी दलों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्या वही भाजपा के लिए भी हैं? भाजपा ने तो कश्मीर
से अनुच्छेद 370 हटाने के समर्थन में भी आम्बेडकर को खड़ा कर दिया था. विडम्बना यह
है कि बहुत बड़ी संख्या में आम्बेडकर-पूजन के बावजूद इस देश में दलितों से छुआछूत
और उनका दमन जारी है.
महात्मा गांधी को जो संघ-परिवार देश
के विभाजन और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के लिए दोषी ठहराता रहा है,
वह अब उनकी 150वीं जयंती धूमधाम से मना रहा है. लेकिन गांधी के
विचार इस राजनीति में कितने सम्मानित हैं? बात-बात में ‘बापू-बापू’ करने वाली कांग्रेस ने अगर स्वतंत्रता के बाद ही उनका रास्ता त्याग दिया
था तो अब भाजपा ने अपने आचरण और कर्म में उन्हें कितना अपना लिया है?
सरदार पटेल की विशालकाय प्रतिमा और
भी राजनैतिक विद्रूप पैदा करती है. भाजपा ने अपने सत्तारोहण दौर में सरदार पटेल को
जवाहरलाल नेहरू के मुकाबिल खड़ा किया है. यह देखने की चिंता किसे है कि पटेल और
नेहरू के वैचारिक मतभेद क्या थे, क्यों
थे? क्या पटेल सचमुच नेहरू के वैसे ही विरोधी थे या गांधी और
नेहरू ने पटेल को सचमुच उसी तरह किनारे किया जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है?
मूर्तियों की राजनीति नई पीढ़ी को इन
महापुरुषों के वास्तविक विचार और मूल्य समझा रही है या उन्हें अपनी सुविधा के लिए
नए नायक-खलनायक के रूप में स्थापित कर रही है?
(प्रभात खबर, 12 दिसम्बर, 2019)
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