Friday, January 31, 2020

घने अंधेरों से लड़ते हुए वसंत की प्रतीक्षा का दर्शन


इस बार जाड़ा कुछ लम्बा खिंच गया. शिशिर और हेमंत ने खूब कंपाया. अब वसंत आ गया है लेकिन जैसे अभी कुछ दिन अपने बड़े भाइयों का साथ नहीं छोड़ना चाहता. पहाड़ों पर वर्षा और हिमपात का एक और दौर चल रहा है. मैदानों में भी बदली-बारिश रहे. वसंत का वर्षा से भी रिश्ता है.

अब कुछ दिन के लिए सुबह-शाम की गुलाबी सर्दी रह जाएगी. दिन में धूप हर दिन तीखी होती दिखेगी और तेज़ हवाएं वृक्षों की शाखाओं को पत्र-विहीन कर देंगी. उन्हीं रूखी डालों पर फिर वसंत वासंती वसन पहने इतराएगा. वसंत का आना मौसम का त्वरित गति से बदलना होता है. शीत-सुप्तता से जागती सम्पूर्ण प्रकृति का आनन्दोत्सव. उसका सबसे मोहक और प्रजनक रूप.

लखनऊ का शाहीनबागबन गए घण्टाघर में हलकी फुहारों का सामना करते हुए वसंत पंचमी की शाम लगा कि वसंत भी वहां उपस्थिति दर्ज़ कराने आया है. उस बारिश से वहां कोई डरा-भागा नहीं. जो वसंत लाने के लिए लड़ते हैं, वे मौसमों के बदलने का स्वागत करते हैं.

प्रकृति के सहज-स्वाभाविक कायान्तरण की तरह मानव का जीवन भी चल पाता तो क्या बात थी! वहां कभी एक मौसम समय बीत जाने के बाद भी टलने का नाम नहीं लेता और कभी सारे मौसम एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो धमक पड़ते हैं. और, सबके लिए अलग-अलग. किसी के लिए वसंत का उल्लास छाया रहता है तो किसी को पतझड़ शोक संतप्त किए होता है.

मानव-समाज की प्रगति-यात्रा इन व्यक्तिगत मौसमों की परवाह नहीं करती. वह एक लम्बे दौर में तमाम विपरीत मौसमों, झंझावातों से लड़ती यहां तक पहुंची है. आग, पहिए और अब इण्टरनेट जैसे आविष्कारों ने उसकी दुनिया को बेहतर भविष्य की तरफ गति दी तो परिवार, समाज और राज्य की संरचना ने उसे सभ्यता सिखाई. हमें सभ्यबने कितना लम्बा समय गुजर गया लेकिन क्या सभ्यता का वसंत आ पाया?

जिसे हम मानव की विकास यात्रा कहते हैं, वह कितनी सारी विपरीत शक्तियां अपने साथ लिए चलती है. एक-दूसरे को दबाती-धकेलती हुई ये ताकतें कभी हमें पीछे की ओर ले जाती भी लगती हैं. ऐसा भी होता है, जैसे आजकल लग रहा है, कि यह पीछे की ओर जाना बहुत सारे लोगों को आगे की ओर जाना लगता है.

प्रतिगामी शक्तियां हर युग में रही हैं, कभी अन्तर्धारा की तरह चुपचाप, तो कभी हावी होती हुई. धर्म-जाति-नस्ल के झग़ड़े खत्म होते नहीं लगते और विनाशकारी युद्ध दुनिया में हर वक्त कहीं न कहीं चलते रहते हैं. हिटलर भी हमारे बीच पैदा होते हैं और गांधी भी. कोई गांधी की हत्या भी कर सकता है, यह कल्पनातीत लगता है लेकिन वह कोई अकेला सिरफिरा नहीं था, यह भी हम सब जानते हैं.

मानव सभ्यता का वसंत यदि सारे झगड़े मिट जाना है तो वह बहुत-बहुत दूर लगता है. सृष्टि ने तो इनसान को बांटा नहीं. इनसान ने ही अपने को तरह-तरह से बांट लिया और झगड़े खड़े कर लिए. झगड़ना ही जैसे जीवन का लक्ष्य बना हुआ है. कितने सारे झगड़े चारों ओर मचे हैं.

घण्टाघर में अकेले टहलते-सोचते, तरह-तरह की आवाजें सुनते हुए लग रहा था कि सब झगड़े मिटें, इसके लिए भी झगड़ना पड़ता है. कितनी सारी महिलाएं कितने दिनों से वहां जूझ रही हैं कि उनकी आवाज सुनी और मानी जाए. संविधान नाम की पवित्र पुस्तक में जो लिखा है, वह अमल में लाया जाए. उनकी आवाज को भी कितनी नज़रों से देखा जा रहा है.  वसंत लाने के लिए लड़ना पड़ता है. सतत.

हां! गहन शीत काल में शाखाओं-प्रशाखाओं के भीतर घने अंधेरों से कितनी बड़ी लड़ाई करके वसंत खिलखिला पाता है, यह हमें कहां दिखता है.  
   
(सिटी तमाशा, नभाटा, 01 फरवरी, 2020)  
 

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