यह पिछले सप्ताह की बात है. हम के के
नय्यर साहब की पार्थिव देह लेकर भैंसाकुण्ड श्मशान घाट गए थे. विद्युत शवदाह गृह
वह खराब पड़ा था. नीचे घाट पर जहां चिताएं जलती हैं, इतनी
भीड़ थी जैसे बहुत विलम्ब से आ रही किसी ट्रेन को पकड़ने के लिए यात्री रेलवे
प्लेटफॉर्म पर ठुंसे हों. हर निर्धारित ठौर पर चिताएं जल रही थीं और कई शव
प्रतीक्षा में थे. उनके साथ आए शोकाकुल परिवारीजन-मित्र-सम्बंधी इधर-उधर दौड़ रहे
थे कि इंतज़ार लम्बा न हो.
तीन दिन से बारिश हो रही थी. लकड़ियां
गीली थी और आग नहीं पकड़ रही थीं. उन्हें राल डाल-डाल तक सुलगाने की कोशिश हो रही
थी. चिरायंध भरा काला-भूरा धुआं पूरे घाट पर छाया हुआ था. जमीन पर कीचड़ था. शव आते
जा रहे थे. उनके लिए बने विश्राम
स्थल भरे हुए थे. आने वाले शवों को उसी कीचड़दार जमीन में थोड़ी साफ जगह ढूंढ
कर प्रतीक्षा करने के अलावा लोगों के पास
कोई चारा नहीं था.
इनमें से कई अंत्येष्टियां विद्युत
शवदाह गृह में होनी थी लेकिन वह खराब पड़ा था.
खराब पड़ा है या जान-बूझ कर
बंद किया गया है- यह चर्चा चल रही थी. ‘सब लकड़ी ठेकेदारों से
मिले रहते हैं’- यह आम धारणा थी. हमारे सरकारी विभागों पर जनता का विश्वास रहा
ही नहीं. मशीन वास्तव में खराब रही हो तो भी यही कहा जाता.
नगर निगम द्वारा संचालित घाट और
विद्युत शवदाह गृह में कोई हलचल या संकेत नहीं थे जिनसे पता चले कि ज़िम्मेदारों को
उसे ठीक कराने की चिंता है. किसी को फिक्र नहीं थी कि श्मशान घाट पर अपने प्रिय
जनों के शव लेकर आए लोग किस कदर परेशान हैं. नगर निगम में ऊपर से नीचे तक सब उस
बदली-बारिश और शीतलहरी वाले दिन कहीं आराम फरमा रहे थे. ज़िम्मेदार अभियंता का फोन
बज रहा था लेकिन कोई उठा नहीं रहा था.
यह 2020 का साल है और लखनऊ नगर निगम
अपने एकमात्र विद्युत शवदाह गृह को चालू रखने की हालत में नहीं है. हम पर्यावरण
बचाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, हवा की
गुणवत्ता खतरनाक होने पर कल-कारखाने बंद करते हैं, हर साल
रिकॉर्ड पौधारोपण के दावे करते हैं लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश की
राजधानी में एक बिजली शवदाह घर नहीं चला सकते. कहां तो यह होना था कि भैंसाकुण्ड
के अलावा शहर के दूसरे श्मशान घाटों पर भी एक से ज़्यादा विद्युत शवदाह घर होते.
जनता को प्रेरित किया जाता कि वे इसी विधि से अंतिम संस्कार कराएं. वास्तविकता यह है कि जो विद्युत शवदाह गृह का
उपयोग करना चाहते हैं, उन्हें भी ग्यारह मन लकड़ी फूंकने के लिए विवश किया जा
रहा है.
चलते-चलते नगर निगम की एक और उपलब्धि
को सलाम कर दें. बीते शनिवार को विनय खण्ड, पत्रकारपुरम
के एक पार्क में कुत्ता मरा पड़ा होने की सूचना स्वच्छ भारत ऐप पर डाली. तस्वीर भी अपलोड की. दूसरे दिन किन्ही
पंकज भूषण जी की टिप्पणी ऐप पर थी-‘सेण्ट टु एसएफआई.’
इसका जो भी मतलब हो, उसी दिन अगली टिप्पणी
थी- ‘वर्क इज डन.’
देखा तो मरा कुत्ता उसी जगह वैसे ही पड़ा था. फीडबैक में हमने लिखा
कि "सॉरी सर, काम नहीं हुआ. रविवार 19 जनवरी को 11-06
बजे भी कुत्ता वहीं पड़ा है" इसका कोई ज़वाब नहीं आया. ऐप में हमारी शिकायत के
सामने लिखा है कि 'रिजॉलव्ड' और ‘सिटीजन संतुष्ट है.’ हमने फिर लिखना चाहा कि काम अब
भी नहीं हुआ है लेकिन ऐप कह रहा है कि आप अपना फीडबैक दे चुकेन्हैन यानी 'सिटीजन सेटिसफाइड.' हकीकत यह है कि 24 जनवरी की दोपहर भी मरा कुत्ता
उसी जगह सड़ रहा है.
पूरा तंत्र एक मज़ाक बना हुआ है.
हंसिए या रो लीजिए.
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