Wednesday, January 08, 2020

सन 2020, हालात और चंद सवाल



सन 2020 की तारीख डालते हुए सहसा सन 1920 की याद आने लगी. ठीक सौ साल पहले भारत में कैसी उथल-पुथल मची थी? देश  कैसी सामाजिक-राजनैतिक करवट ले रहा था? बीसवी सदी के तीसरे दशक ने देश को कैसी दिशा दी? उस दौर को याद करना आज किस तरह प्रासंगिक है? क्या उस संदर्भ में आज के कुछ सवाल मौजू हो सकते हैं?   

सबसे पहले मोहनदास करमचंद गांधी नाम के एक वकील याद आते हैं जो दक्षिण अफ्रीका में असहयोग और प्रतिरोध के कुछ अभिनव प्रयोग करके चार वर्ष पहले भारत लौटे थे. ब्रिटिश दासता से आज़ादी का स्वप्न पालते देश में वे अपने प्रयोगों की विकास-भूमि तलाश रहे थे. चम्पारन के शोषित किसानों की व्यथा-कथा और उसके अहिंसक प्रतिरोध से सत्याग्रह का जो रास्ता निकला उसने 1920 के भारतीय दशक के सर्वथा अभिनव आंदोलन का अध्याय लिखा. असहयोग आंदोलन से लेकर नमक सत्याग्रह तक और आगे भी.

राष्ट्रीयता के उसी उफान भरे दौर में चौरी-चौरा काण्ड हुआ था जिसने सत्य और अहिंसा की शक्ति के बारे में गांधी की परीक्षा ली थी. अपने प्रति गुस्से और बगावत के तीव्र स्वरों के बावजूद गांधी उस कठिन परीक्षा में अव्वल नम्बर से पास हुए थे. विश्व ने हाड़-मांस के एक पुतले को महात्मा के रूप में स्वीकारे जाते देखा था. आधी धोती धारे महात्मा ने उस ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी थीं जिसके शासन में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था.

1905 में बनी मुस्लिम लीग और जवाब में 1915 में सामने आई हिंदू महासभा की साम्प्रदायिक राजनीति ने भी 1920 के दशक की राजनीति को उद्वेलित किया. 1925 में राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ बनने पर यही गांधी के जीवन की यह सबसे बड़ी चुनौती बन गई. 1917 में सोवियत क्रांति के बाद भारत में कम्युनिस्टों के उभार और राजनीति में छाने का दौर भी वही दशक लाया. खुद कांग्रेस के भीतर समाजवादी खेमा बना जिसने गांधीवादी नेहरू को वाम झुकाव दिया और बाद तक कांग्रेस की अंतर्धारा के रूप में मौज़ूद रहा.

1920 के दशक की शुरुआत भारत में किसान जागरण और आंदोलन के वर्ष भी थे. जमीदारों के शोषण-अत्याचार के खिलाफ बड़े आंदोलन हुए. मजदूर संगठनों के बनने और सक्रिय होने का दौर वही था तो छात्रों के राजनैतिक रूप से सक्रिय होने का भी. भगत सिंह सरीखे युवाओं का मानस उसी दौरान परिपक्व हो रहा था.

तो, जो गांधी 1920 की शुरुआत में सत्याग्रह और अहिंसा के प्रयोगों  से महात्मा बन रहे थे और जिनका रास्ता बाद के दशकों में देश-दुनिया की नई रोशनी बना रहा, सन 2020 की शुरुआत में उनके मूल्यों की कैसी विकट परीक्षा हो रही है? आज गांधी का नाम लेना कोई नहीं भूलता किंतु उनकी अवमानना करने में कोई पीछे भी नहीं रहता? गांधी जिसआज़ादी के लिए लड़े-जूझे और जैसा समाज बनाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे, वह आज़ादी और समाज आज किस हाल में हैं?

आज़ादी के बाद से देश ने बहुत तरक्की  है. आज हम दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और ताकतों में शुमार है लेकिन बहुलता में अद्भुत समन्वय वाला संविधान होने के बावज़ूद क्या वही चुनौती 2020 में विकराल होकर सामने नहीं आ खड़ी हुई है, जो सौ साल पहले सिर उठा रही थी? देश का विभाजन और हिंदू-मुस्लिम आज फिर हमारी राजनीति के केन्द्र में कैसे आ गए? इसीलिए क्या आज के भारत को या पूरी दुनिया को ही फिर एक साक्षात गांधी की आवश्यकता नहीं लग रही?

गांधी की बहुत चर्चा है लेकिन गांधी कहीं नहीं हैं. जिन्हें वे वारिस बना गए थे उन जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस भी देश की राजनीति को कितना प्रभावित कर पाने की स्थिति में है? यह अलग चर्चा का विषय होगा कि जो कांग्रेस बची हुई है, वह कितनी गांधी की और कितनी नेहरू की रह गई है.

जो कम्युनिस्ट विचारधारा उस दौर में भारत के बड़े युवा वर्ग और राजनीति को काफी प्रभावित कर रही थी, वह हाल के दशकों में हाशिए से भी क्यों सिकुड़ गई है? वह आरोपित विचार रहा या भारत में अपने लिए आधार तैयार करने में विफल, जबकि यहां मजदूरों-किसानों-गरीबों के हालात भयानक गैर-बराबरी, शोषण, अत्याचार और दमन का शिकार रहे और आज भी हैं?1920 के दशक ने वाम राजनीति को अवसर दिए थे. इक्कीसवीं शताब्दि के तीसरे दशक की शुरुआत के युवा भारत में वह अप्रभावी है और ट्रेड यूनियन बिखरे हुए.        

इस सबके विपरीत जिस हिंदू महासभा और आरएसएस की राजनीति को 1920 के दशक से आज़ादी के दशकों बाद तक भारतीय मुख्यधारा ने उभरने के अवसर ही नहीं दिए, वह सन 2020 में सड़क से संसद तक छाई हुई दिखती है. जो एकांगी राजनीति 1960 के दशक तक बाकी दलों के लिए पूरी तरह अछूतमानी जाती थी, वह उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूरब तक सहज स्वीकार्य बन गई है. इसी स्वीकार्यता का परिणाम वह संसदीय बहुमत है जिसके बल पर  कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और नागरिकता के सवाल नए सिरे से तय करने जैसे विवादित फैसले किए जा सके हैं जिनसे समाज और राजनीति का पूरा विमर्श ही बदल गया है.

यह बदलाव सामान्य नहीं ही है. 1980 के दशक तक इस परिवर्तन की आहट विशेष नहीं थी. 1990 के दशक में जब बदलाव की धमक आर-पार सुनाई देने लगी थी, तब भी लगता था कि यह बहुत अस्थाई लहर है जो भारतीय राष्ट्र-राज्य के मूल चरित्र को छू भी न सकेगी. क्या ऐसा सोचने वाले राजनेता, विश्लेषक, अध्ययेता गलत थे? क्या वे परिवर्तन की हवा को क्रमश: ऊंची होती लहरों में बदलते नहीं देख पा रहे थे? वे नासमझ थे या अपनी जमीन से कटे हुए, अभिमानी, अति-विश्वास से भरे असावधान लोग?  

भारतीय लोकतंत्र, संविधान और समाज की बहुलता में बहुत ताकत और क्षमता है. इसकी गहराई और उदारता को ही श्रेय है कि जो लम्बे समय तक राजनीति के हाशिए पर थे, वे अब मुख्यधारा में हैं. मुख्यधारा वाले अपने पैंरों तले की खिसकती जमीन देखकर हैरान-परेशान क्यों हैं? बिना मेहनत वैचारिक जमीन के बंजर पड़ने का ही खतरा था. जिन्होंने लम्बे समय तक अपने विचार और जमीन के लिए काम किया है, उन्हें यह लोकतंत्र अवसर क्यों नहीं देता भला?

1920 का समय बहुत पीछे छूट चुका है. सामने जो नया दौर है वह जिन्हें चिन्ताओं और बेचैनियों से भर रहा है, उनके लिए यह हैरानी और विलाप का नहीं, उन सवालों के उत्तर तलाशने का समय है, जो पिछले दशकों में उनकी ही भूमिकाओं ने खड़े कर दिए हैं. गलतियां पहचानने और समयानुकूल सार्थक भूमिका तय करने से धाराएं पलटती हैं.


(प्रभात खबर, 09 जनवरी, 2020)

No comments: