नीतीश कुमार ने पवन कुमार वर्मा और
प्रशांत किशोर को जनता दल (यू) से निकाल दिया है. कभी ये दोनों उनको विशेष प्रिय
थे. राजनीति में ऐसा होता रहता है.
राजनीति में जो अक्सर नहीं होता,
वह नीतीश कुमार का कुछ बेहतरीन मौके गंवा देना है. नीतीश ने खुद
सुंदर मौके गंवाए, इससे ज़्यादा सही यह कहना होगा कि भाजपा ने
उनसे छीन लिए. आज नीतीश को भाजपा ने इस तरह फंसा कर निरुपाय कर दिया है कि वे
छटपटा तो सकते हैं लेकिन बाहर आने का रास्ता नहीं दिख रहा.
नीतीश को कहां होना था और हैं कहां!
उन्हें मोदी के मुकाबले विपक्ष का सर्वाधिक विश्वसनीय एवं प्रतिष्ठित चेहरा होना
था. देश के राजनैतिक मंच पर जो बहुत बड़ा भाजपा-विरोधी स्पेस है,
उस पर नीतीश को छाए रहना था. उसकी बजाय आज वे भाजपा के लिए एक मोहरे
से ज़्यादा कुछ नहीं हैं. मोदी के सामने उनकी कोई हैसियत नहीं है. विपक्ष के लिए वे
‘भाजपा की गोद में बैठे’ मौका परस्त
नेता से ज़्यादा नहीं रह गए हैं. जद (यू) में रहकर भाजपा को कोसते रहने वाले अपने
दोनों नेताओं को निकालने के अलावा उनके पास चारा क्या था.
शानदर अवसर गंवा देने या भाजपा के
हाथों लुटा बैठने की कसक नीतीश को अवश्य सताती होगी. पवन कुमार वर्मा ने नीतीश
कुमार की बेचैनियों और हताशा की जो बातें उन्हीं के हवाले से लीक की हैं,
वह निराधार नहीं.
किस्सा 2017 में शुरू हुआ. जब नीतीश
ने लालू यादव और कांग्रेस के साथ बना महागठबंधन, जिसने
बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा को हराकर बहुमत पाया था, अचानक
तोड़ दिया और भाजपा से एक बार फिर अपनी डोर बांध ली. नीतीश ने उस समय सोचा था कि
लालू से पिण्ड छुड़ाकर वे अपनी ‘मिस्टर क्लीन’ की छवि बचा रहे हैं लेकिन वे सिर्फ मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचा पाए.
एक बड़े विपक्षी नेता का दर्जा, विश्वसनीयता और आने वाले समय
में भाजपा-विरोधी स्पेश पर छा कर मोदी से बराबर की टक्कर लेने के शानदार अवसर
उन्होंने गंवा दिए.
भाजपा ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी
थीं. वह दूर तक देख रही थी. नीतीश कुमार की नज़र वहां तक नहीं गई या उनका हिसाब
गड़बड़ा गया था.
मोदी सरकार ने लालू यादव पर उनके किए
पुराने घोटालों के कारण सीबीआई का ऐसा शिकंजा कसा कि नीतीश को उनके साथ रहना अपनी
स्वच्छ छवि पर बड़ा दाग लगने लगे. लालू जैसे ‘महाभ्रष्ट’
का साथ देने के लिए भाजपा नीतीश को खूब लताड़ती भी थी. लालू के बेटे
और तकालीन उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के कारण नीतीश के लिए स्थितियां और कठिन हो
गई थीं.
महागठबंधन के भीतर इसका कोई रास्ता
निकालने की बजाय तब नीतीश भाजपा के बुने जाल में फंस गए. उन्होंने महागठबंधन से
नाता तोड़ कर भाजपा के साथ सरकार बना ली. भाजपा की इसके पीछे बड़ी चाल थी,
जिसे नीतीश नहीं भांप पाए.
2017 आते-आते मोदी सरकार के खिलाफ कई
राष्ट्रीय मुद्दे खड़े हो गए थे. नोटबंदी के दुष्परिणाम से गरीब-गुरबे और छोटे
उद्यमी त्राहि-त्राहि कर रहे थे. बेरोजगारी लगातार बढ़ रही थी. किसान असंतोष चरम पर
था. गुजरात में पटेल और महाराष्ट्र में मराठा जैसे तातकतवर समुदाय आक्रोशित थे.
खुद भाजपा को लग रहा था कि 2019 का आम चुनाव उसके लिए बहुत कठिन होने वाला है.
उसका आन्तरिक चुनावी आकलन चिंताजनक था.
उधर, विपक्ष
एक जुट होने की कोशिश कर रहा था. दिल्ली में विपक्षी नेताओं की कई बैठकें हो चुकी
थीं. एक संयुक्त मोर्चा बनाने की पहल हो रही थी. नीतीश कुमार इनमें अग्रणी थे.
भाजपा-विरोधी विपक्षी खेमा उन्हें सोनिया और राहुल से ज़्यादा महत्त्व दे रहा था. राष्ट्रपति
चुनाव में राजग प्रत्याशी के मुकाबले संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार उतारने के लिए
नीतीश कुमार ही पहल कर रहे थे. इसके लिए 18 दलों का जो मोर्चा बन रहा था, नीतीश कुमार को उसका संयोजक बनाया गया था.
पूरी सम्भावना बन रही थी कि भाजपा
विरोधी संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व नीतीश कुमार के हाथ में आएगा. साफ-सुथरी छवि,
बिहार में अच्छा काम करने का रिकॉर्ड और साम्प्रदायिक राजनीति के
विरुद्ध खड़े रहने की उनकी रणनीति (बिहार में पहले भाजपा के साथ सरकार चला चुकने के
बावजूद उनकी ऐसी छवि कायम थी) उन्हें 2019 तक मोदी के बराबर खड़ा कर देगा. मोदी को
वे लगातार चुनौती दे भी रहे थे. दूसरा कोई विपक्षी नेता इस स्थिति में था नहीं.
सोनिया और राहुल पर कई क्षेत्रीय क्षत्रपों को आपत्ति रही है.
भाजपा क्यों चाहती कि नीतीश कुमार
जैसा प्रतिद्वंद्वी मोदी के खिलाफ खड़ा हो पाए. उसने बिहार में ऐसा दांव चला कि
नीतीश उसके पाले में आ गिरे. तब से नीतीश की हैसियत बिहार के मुख्यमंत्री से अधिक
कुछ नहीं है. मोदी और शाह उनके नेता है और वे इन दोनों के लिए एक राज्य का
मुख्यमंत्री भर.
2019 में कोई विपक्षी मोर्चा बनता और
नीतीश उसके नेता होते तो चुनाव का नतीज़ा क्या होता, यह
कयास लगाने का कोई अर्थ आज नहीं है. हो सकता है तब भी परिणाम वही होते, लेकिन नीतीश का कद एक बड़े राष्ट्रीय विपक्षी नेता का अवश्य होता और वे आज
भी मोदी को चुनौती दे रहे होते. देश भर की भाजपा-विरोधी आवाज़ का प्रतिनिधित्व वे
कर रहे होते.
यह अवसर खो देने का मलाल निश्चय ही
नीतीश को है. पवन कुमार वर्मा की चिट्ठी और कुछ दूसरी रिपोर्ट बताती हैं कि 2018
के उत्तरार्द्ध में ही नीतीश को यह लगने लगा था कि भाजपा ने उन्हें फंसा लिया है. ऐसे
तथ्य भी सामने आए हैं कि तब उन्होंने राहुल गांधी से चार मुलाकातें की थीं कि कोई
दूसरी राह खुले. पवन कुमार वर्मा के
अनुसार नीतीश ने कुछ महीने पहले उनसे कहा था कि भाजपा उन्हें अपमानित करती है और
यहां उनकी कोई हैसियत नहीं रह गई है. मोदी सरकार के कई फैसलों पर भी वे व्यक्तिगत
बातचीत में गुस्सा प्रकट करते रहे हैं.
नागरिकता कानून पर पहले सरकार का साथ
देने के बाद नीतीश कुमार ने शायद अपने कदम कुछ वापस इसीलिए खींचे हैं.
अब एनआरसी को गैर-जरूरी बताने लगे हैं. एनपीआर पर भी वे बिहार में कुछ
बदलाव करने की बात कर रहे हैं.
भाजपा आज भी नहीं चाहती कि नीतीश
कुमार उससे अलग हों. उसे नीतीश की बेचैनी और घुटन का अंदाज़ा अवश्य होगा. इसीलिए
अमित शाह ने पिछले दिनों घोषणा कर दी कि बिहार विधान सभा चुनाव के लिए नीतीश कुमार
ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. यह भाजपा की उदारता नहीं,
नीतीश कुमार को बांधे रखने की चाल है.
नीतीश की छटपटाहट स्वाभाविक है. इस
समय जब विपक्ष का कोई विश्वसनीय, सर्व स्वीकार्य
बड़ा नेता नहीं है, नीतीश एक बड़ी सम्भावना हो सकते हैं. 2019
में वे यह जगह बहुत अच्छी तरह भर सकते थे. तब भाजपा ने फंसा लिया था. आज नीतीश
एनडीए में कसमसा रहे हैं लेकिन भाजपा ने उन्हें बांध रखा है.
पवन कुमार वर्मा और प्रशांत किशोर को
निकाल कर नीतीश कुमार ने यही विवशता दिखाई है.
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