Wednesday, January 29, 2020

संसदीय विशेषाधिकार पर प्रश्न


बीती 21 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी पर देश का विशेष ध्यान नहीं गया या उसका कम नोटिस लिया गया. नए नागरिकता कानून और एनआरसी पर जारी राष्ट्रव्यापी विवाद और गणतंत्र दिवस समारोहों की गहमागहमी एक कारण हो सकता है. या क्या पता, नेतागण इस स्थिति का सामना ही नहीं करना चाहते हों! 

उस दिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने देश की सर्वोच्च विधायी संस्था यानी संसद को सलाह दी कि उसे संविधान संशोधन करके सदन के अध्यक्षों से दल-बदल कानून के तहत किसी सदस्य (सांसद/विधायक) की सदस्यता खत्म करने या बनाए रखने का विशेषाधिकार वापस लेने पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए. यानी, दल बदल करने वाला सांसद/विधायक सदन की सदस्यता के योग्य रह गया है या नहीं, यह फैसला करने का अधिकार सदन के अध्यक्ष के पास अब नहीं रहना चाहिए.

दल-बदल कानून में व्यवस्था है कि सांसद अथवा विधायक की सदस्यता पर फैसला केवल और केवल सदन का अध्यक्ष ही कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट भी इस व्याख्या से सहमत होता आया है. अलग-अलग मामलों में वह कई बार निर्देश दे चुका है कि विधान सभाध्यक्ष को किसी विषेष मामले में उचित समय के भीतर निर्णय कर लेना चाहिए. अब उसकी राय इस व्यवस्था पर सिरे से ही पुनर्विचार करने की है.

ऐसी सलाह देने के कारण हैं. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि सदन के अध्यक्ष पद पर बैठा व्यक्ति अपने इस गरिमापूर्ण दायित्व के बावज़ूद एक पार्टी-विशेष से जुड़ा रहता है. इसलिए दल-बदल के मामलों में फैसला करते समय अध्यक्ष के आसन पर बैठे राजनैतिक व्यक्ति का विवेक प्रभावित होता है. अत: सदन की सदस्यता के योग्य या अयोग्य घोषित करने का अधिकार किसी बाहरी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को सौंप देना चाहिए जिसका प्रभारी सुप्रीम कोर्ट का अवकाशप्राप्त न्यायाधीश या किसी उच्च न्यायालय का पूर्व मुख्य न्यायाधीश या कोई अन्य व्यक्ति हो ताकि फैसला शीघ्र और निष्पक्ष ढंग से लिया जा सके.

सीधे-सीधे कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने साफ माना है कि दल-बदल कानून पर फैसला लेते समय सदन के अध्यक्षों के फैसले राजनैतिक स्वार्थ से प्रभावित होते हैं. इसी कारण दल-बदल कानून बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा. बल्कि, अनेक बार उसका मखौल बनकर रह जाता है.

सर्वोच्च न्यायालय ने यह सलाह पहली बार नहीं दी है, बीते नवम्बर मास में भी उसने ऐसी ही टिप्पणी की थी, जब कर्नाटक के कुछ विधायकों को दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का मामला विधान सभाध्यक्ष के पास लम्बित पड़ा था. फैसला सुनाने से पहले वे पूरी तरह आश्वस्तहोना चाहते थे और इसमें समय लग रहा था. तब सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने पर तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यहां तक कह दिया था कि अगर कोई विधान सभाध्यक्ष अपनीराजनैतिक पार्टी की इच्छा से अप्रभावित नहीं रह सकता तो उसे उस पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है.

पिछले सप्ताह भी तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ऐसी ही बात कही. पीठ ने सवाल उठाया कि विधान सभाध्यक्ष, जो एक राजनैतिक पार्टी से जुड़ा होता है, उसे राजनैतिक कारणों से दल-बदल करने वाले सदस्य की सदस्यता के बारे में फैसला करने का एकमात्र और अंतिम अधिकार क्यों होना चाहिए. इसीलिए शीर्ष अदालत चाहती है कि संसद इस संवैधानिक व्यवस्था पर पुनर्विचार करे.

यह सलाह इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है कि हाल के वर्षों में ऐसे मामले बढ़ते आए हैं. अरुणाचल, उत्तराखण्ड, मणिपुर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आदि ताज़ा उदाहरण हैं. दल-बदल करने वाले सदन की सदस्यता के योग्य रह गए हैं या नहीं, हर बार यह प्रश्न विधान सभाध्यक्ष के पास पहुंचता है. वे अपने विवेक का पूरा उपयोग करते हैं. कई बार फैसला तुरन्त आ जाता है और कई मामलों में महीनों लम्बित रहता है.

विधान सभाध्यक्षों के विवेकपूर्ण फैसले से कभी कोई सरकार गिर जाती है और कोई अल्पमत में होने की सम्भावना के बावज़ूद बनी रहती है. अनेक बार तो अध्यक्ष का लम्बित फैसला और भी सदस्यों को दल-बदल करने के पर्याप्त अवसर देता लगता है. ऐसे में अक्सर प्रभावित पार्टी सुप्रीम कोर्ट पहुंचती है. वहां से यही फैसला आता है कि यह निर्णय करने का अधिकार सिर्फ विधान सभाध्यक्ष को है और उन्हें उचित समयके भीतर निर्णय दे देना चाहिए. यह उचित समय क्या हो, यह भी अध्यक्ष ही तय करता है. कई बार इसमें महीनों लग जाते हैं. कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने अध्यक्ष को एक समय-सीमा के भीतर निर्णय करने का निर्देश भी दिया, जिसे अध्यक्ष ने अपने अधिकारों में हस्तक्षेप माना.

जैसे-जैसे राजनीति में मूल्यहीनता आती गई, हमारी कई संवैधानिक व्यवस्थाओं की कड़ी परीक्षा होती रही. संविधान निर्माताओं ने व्यवस्थाएं बनाते समय यही सोचा होगा कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता से निरपेक्ष होकर यथासम्भव निष्पक्ष निर्णय देंगे. इसीलिए सदन के अध्यक्ष के आसन पर बैठने वाले व्यक्ति से अपेक्षा की गई है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रति समान भाव रखेगा. मूल्यहीनता के वर्तमान दौर में ऐसा होता नहीं.  तब क्या उपाय हो? क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदला जाना चाहिए, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय चाहता है?

दल-बदल कानून भी एक तरह से हाल के वर्षों की व्यवस्था है. वह 1985 में बना, जब आया राम, गया रामकी नई परिपाटी ने दलगत निष्ठा और मतदाता के चयन को ही खिलवाड़ बनाकर रख दिया था. कुछ समय तक लगा कि नए कानून से दल-बदल का अनैतिक और स्वार्थी खेल रुक रहा है या कम से कम कुछ अंकुश लग रहा है. शीघ्र ही इस कानून से बचने के संवैधानिक रास्ते भी निकाल लिए गए. तब? यदि सुप्रीम कोर्ट की राय के अनुसार सदन के अध्यक्ष का अधिकार किसी स्वतंत्र न्यायाधिकरण को दे दिया जाए, तो आज के दौर में क्या गारण्टी है कि वह यथासम्भव निष्पक्ष और दबाव-मुक्त रह ही सकेगा?

हमारे संविधान निर्माता बड़े दूरदर्शी थे. उन्होंने विचारों और मूल्यों की राजनीति की थी. ऐसी ही अपेक्षा वे आने वाली पीढ़ी से भी करते थे, हालांकि आशंकित भी थे. 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक में डॉ आम्बेडकर और डॉ राजेंद्र प्रसाद दोनों ने स्पष्ट चेता दिया था कि हम चाहे कितना ही अच्छा संविधान बना दें, यदि आने वाले लोग, जिन पर इस संविधान के पालन का दायित्व होगा, अच्छे नहीं हुए तो संविधान  भी अच्छा साबित नहीं होगा.

कमी कानून या संविधान में नहीं, उसकी असली मंशा समझने और उसे लागू करने वालों में है. ऐसे में क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदल कर उस मंशा की रक्षा की जा सकती है जो संविधान या कानून का मूल ध्येय है?
        
(प्रभात खबर, 30 जनवरी, 2020)  
 

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