Monday, January 06, 2020

नागरिकता कानून – ज़रूरी सवालों का ज़वाब मिलना ही चाहिए


संशोधित नागरिकता कानून के बारे ''फैलाए जा रहे भ्रम'' को दूर करने के लिए भाजपा ने देश व्यापी अभियान शुरू किया है. उसके बड़े-बडे नेता जनता के बीच जा रहे हैं. बहुत अच्छी बात है. जनता को सब साफ-साफ मालूम होना चाहिए. कोई भ्रम या गलत जानकारी दी जा रही है तो उसे स्पष्ट अवश्य  किया जाना चाहिए.

जनता का एक बड़ा वर्ग, बहुत सारे संगठन और कई राजनैतिक दल इस कानून का लगातार विरोध कर रहे हैं. इनमें सरकार के कुछ सहयोगी दल भी हैं. शनिवार को भी हैदराबाद, गौहाटी और कई जगहों पर विरोध में बड़ी सभाएं हुईं. समझना चाहिए कि यह विरोध क्यों जारी हैं. विरोध करने वालों को भी जनता के बीच अपनी बात रखने देनी चाहिए. सरकार को उसे सुनना चाहिए.

सरकार विरोध को साजिश बता रही है. दमन पर उतारू है. शनिवार को कन्नन गोपीनाथ  को अलीगढ़ विश्वविद्यालय में सीएए के विरोध को स्पष्ट करने के लिए होने वाली मीटिंग में जाते समय पकड़ लिया गया. कन्नन ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त करने के फैसले के विरोध में आईएएस से इस्तीफा दे दिया था. वे मोदी सरकार की विभेदकारी नीतियों से जनता को जागरूक करने का काम कर रहे हैं.

सरकार को अपनी बात रखने का हक है तो कन्नन या सीएए के विरोधियों का यही हक क्यों छीना जा रहा है? क्या सरकार इस कानून के बारे में कुछ छुपा रही है? क्या वह डरती है कि वह छुपाई जा रही बात ये लोग जनता को समझा देंगे?

सीएए से उठते जरूरी सवाल

प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के सभी नेता बार-बार यही कह रहे हैं कि संशोधित नागरिकता कानून का कोई सम्बंध देश के किसी नागरिक से नहीं है. वह किसी की नागरिकता छीनने नहीं जा रहा. यही पूरा सच है तो फिर सवाल उठता है कि यह कानून लाया ही क्यों गया? क्या ज़रूरत थी
अफगानिस्तान, बांग्ला देश और पाकिस्तान में सताए गए गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध और ईसाई) को देश की नागरिकता देने के लिए यह कानून क्यों लाया गया है?

सवाल और भी हैं. श्रीलंका, नेपाल, भूटान, म्यांमार जैसे पड़ोसी देशों के सताए गए धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए कानून क्यों नहीं?  बौद्ध देश श्रीलंका में तमिल हिंदूओं का उत्पीड़न और उनका आंदोलन बहुत पुराना है. भूटान में ईसाई सताए हुए हैं. नेपाल में मधेशी प्रताड़ित हैं. म्यांमार में रोहिंग्या शरणार्थियों का कत्लेआम होता है. कानून में इनको भी शामिल क्यों नहीं किया गया?

फिर, किसी को भी नागरिकता देने या छीनने के लिए पहले से नागरिकता कानून, 1955 है. उसके तहत सरकार उचित आधार पर किसी को भी नागरिकता दे सकती है. पुराने कानून में संशोधन करके धार्मिक पहचान के आधार पर भेद क्यों किया गया?

हमारा संविधान धर्म या पंथ निरपेक्ष है. यानी वह धार्मिक आधार पर विभेदकारी  कानून बनाने की इजाजत नहीं देता. क्या संशोधित कानून संविधान की मूल भावना पर हमला नहीं है?

क्या ये सवाल पूछना कानून के बारे में भ्रम फैलाना है? क्या संविधान-विरोधी कानून का विरोध करना विद्रोह है? क्या देश के मूल धर्म-निरपेक्ष चरित्र के लिए आंदोलन करना जनता को गुमराह करना है?

असली मकसद क्या है?

अब आइए, यह समझने की कोशिश करते हैं कि मोदी सरकार यह कानून क्यों लाई? वह असल में क्या करना चाहती है?

सरकार का हिंदू-एजेण्डा छुपा नहीं है. दूसरी बार बहुमत से सरकार बनाने के लिए बाद वह इस दिशा में खुलकर काम कर रही है. कश्मीर से अनुच्छेद 370 समाप्त करना और उससे एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य का दर्ज़ा छीनना इसी एजेण्डे का हिस्सा है. इस फैसले ने उसके हिंदू आधार को मज़बूत किया.

इसलिए स्वाभाविक ही है कि मोदी सरकार तीन पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित मुसलमानों को भारत की नागरिकता नहीं देना चाहती. लेकिन ऐसा वह पुराने कानून के आधार पर भी कर सकती थी. या, वह कानून में संशोधन करती लेकिन धार्मिक आधार पर पहचान का यानी सिर्फ गैर-मुसलमानों का उल्लेख न करती. कानून अमल में लाते समय यह करना बहुत आसान था कि मुसलमानों को छोड़कर बाकी उत्पीड़ितों को नागरिकता दे दी जाए. इससे कानून का विरोध करने का कोई कारण नहीं बनता.

तो, कानून क्यों बनाया? देश में अवैध रूप से रह रहे विदेशियों, अपराधियों, आतंकवादियों, आदि के लिए इस कानून की ज़रूरत नहीं. उनके लिए पर्याप्त एवं सक्षम कानून हैं. फिर?

एनआरसी और सीएए का रिश्ता

असम में नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) बना. उसी के बाद सीएए बनाना पड़ा. यहां इस रिश्ते को समझने से 
चीजें और साफ होंगी. असम में करीब 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर रह गए. इसमें 14 लाख हिंदू निकले और मुसलमान सिर्फ तीन लाख. मोदी सरकार 14 लाख घुसपैठिएहिंदुओं को देश से बाहर कैसे खदेड़ती? उसे तो उनकी रक्षा करनी है. सो, नागरिकता कानून में संशोधन किया गया. अब तीन लाख मुसलमानों को छोड़कर बाकी घुसपैठियोंको नागरिकता दी जा सकेगी. लगे हाथ, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सताए जा रहे हिंदुओं और सिखों के मुद्दे को भी भावनात्मक हवा मिल गई.

एनआरसीके साथ मिलाकर देखने से सीएएऔर भी भेदकारी हो जाता है. एनआरसी के बारे में प्रधानमंत्री और मंत्रियों के बयानों में स्पष्टता नहीं है. कभी वे कहते हैं कि एनआरसी पूरे देश में लागू की जाएगी. कभी कहते हैं कि अभी कोई योजना नहीं है.

भारत को हिंदू-राष्ट्र बनाना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घोषित उद्देश्य है. भारतीय जनता पार्टी उसकी राजनैतिक ईकाई है. वह उसी दिशा में काम कर रही है और खुल्लमखुल्ला. वह मुसलमानों की बढ़ती आबादीको हिंदुओं के लिए खतरा मानती है. उन पर पाकिस्तान परस्त और आतंकवादी होने का संदेह करती है. इस तरह हिंदुओं को अपने झण्डे तले जुटाए रखना चाहती है. वह कांग्रेस समेत दूसरे धर्म-निरपेक्ष दलों दलों को मुस्लिम-पार्टी कहती और तुष्टीकरण के लिए जिम्मेदार मानती है. संविधान में आस्था रखने वाले और उसके लिए संघर्ष करने वाले संगठनों, एक्टिविस्टों, आदि  को वह 'छद्म धर्मनिरपेक्ष' और 'अर्बन नक्सल' कहती है. यही लोग मुसलमानों के साथ मिलकर इस कानून का विरोध कर रहे हैं और हिंसा फैला रहे हैं, भाजपा यह साबित करने में लगी है. यही कारण है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की उपेक्षा की गई और हिंसा को खूब प्रचारित किया गया.
सीएए पर भ्रम दूर करने वालेभाजपा के अभियानों में भी यही कहा जा रहा है.   

बेमेल और गलत दस्तावेज़

असम की एनआरसी के नतीज़े सीएए के विरोध का एक और आवश्यक पक्ष सामने लाते हैं. हमारे देश में आज भी बड़ी संख्या में गरीब-गुरबे, बेघर, भूमिहीन, अशिक्षित, खानाबदोश, आदिवासी, वनवासी, दलित, वगैरह हैं जिनके पास अपनी नागरिकता प्रमाणित करने के कागजात नहीं हैं. भारत सरकार से लेकर राज्य सरकारों की अनेक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ भी इसीलिए उनमें से बहुतों को नहीं मिल पाता. 

किसी के पास कागजात हैं तो उनमें सही प्रविष्टियां नहीं हैं. किसी का नाम गलत लिखा है तो किसी की वल्दियत सही दर्ज़ नहीं है. गांव, मौजा, परगना, जिला, आदि के नामों के हिज़्ज़े गलत या बेमेल लिखा होना इस देश में आम है. प्रधानमंत्री आवास लेना हो या उज्ज्वला योजना में गैस सिलेण्डर या शौचालय के लिए अनुदान या बैंक कर्ज़, ऐसे बेमेल दस्तावेजों के कारण आम जनता भटकती है. दलालों के चक्कर में फंसती है या लाभ लेने से वंचित रह जाती है.

ऐसे में कोई कैसे अपनी नागरिकता प्रमाणित करे? देश भर से खबरें आ रही हैं कि आशंकित लोग दस्तावेज जुटाने के लिए दफ्तरों के बाहर लाइन लगा रहे हैं. दलाल उन्हें ठग रहे हैं. उन्हें डर है कि सरकार कहीं उन्हें डिटेंशन कैम्प में न भेज दे. स्वाभाविक ही मुसलमान सबसे ज़्यादा डरे हुए हैं. कागज सभी को दिखाने होंगे. मुसलमान नहीं दिखा पाएंगे तो डिटंशेन कैम्प भेजे जाएंगे. हिंदू नहीं दिखा पाएंगे तो नए नागरिकता कानून से बच जाएंगे. यह असंवैधानिक भेदभाव है.  इसलिए इस देश का बड़ा वर्ग विरोध कर रहा है. यह उसका लोकतांत्रिक अधिकार है.

देश के नागरिकों एक सही रजिस्टर बनाना है तो किसी धार्मिक भेदभाव के बिना किया जाना चाहिए. जनता के दस्तावेज़ सही-सही बनाने और गलतियां ठीक करने में सरकार स्वयं सबकी मदद करे.

देश की सबसे बड़ी ज़रूरत

वैसे, देश को इस समय बेरोजगारी दूर करने की बहुत ज़रूरत है. नौकरियां और रोजगार के अवसर बनाने की आवश्यकता है. भूख, गरीबी और बढ़ती आर्थिक असमानता से लड़ने की दरकार है. कृषि और किसानों की हालत सुधरना अत्यंत ज़रूरी है. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव चाहिए. ऐसा नज़रिया चाहिए जिससे देश वैज्ञानिक सोच के साथ प्रगति करे. 

इसकी बजाय पीढ़ियों से देश की साझा संस्कृति का हिस्सा रहे लोगों में आशंका और अलगाव पैदा करने वाले कदम क्यों उठाए जा रहे है?

सरकार संविधान की शपथ लेकर कार्य करती है. उसे इस शपथ की रक्षा करनी चाहिए.

yoyocial.news, Jan 05, 2020
   
  


 


 




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