Friday, January 17, 2020

के के नय्यर: इक परिन्दा-सा उड़ा हो जैसे



नय्यर साहब अपनी एक ग़ज़ल का यह शेर सुना दिया करते थे, खासकर जब उनके साथ देर तक बैठने के बाद लौटने लगता था- उसने कुछ मुझसे कहा हो जैसे/ एक परिंदा-सा उड़ा हो जैसे.

16 जनवरी, 2020 की शाम वे सचमुच एक परिंदे की तरह उड़ गए, अपने पीछे तमाम यादगार कामों की अनुगूंज छोड़ते हुए.

अभी कुछ ही दिन पहले, चार दिसम्बर 2019 को अपना 90वां जन्म दिन मनाते हुए के के नय्यर चहक रहे थे. के के नय्यर यानी कि शायर, संस्कृतिकर्मी, पंजाबी एवं उर्दू साहित्य के विद्वान और किसी जमाने में रेडियो यानी आकाशवाणी की बेहतरीन आवाज अब हमारे बीच नहीं हैं. नए साल में कड़ाके की सर्दी में चंद रोज की बीमारी उन्हें हमसे जुदा कर गई.

उस दिन अपने जन्म दिन पर वे देर तक हाथ में माइक पकड़े, ह्वील चेयर में बैठे-बैठे अपने हर उस पुराने साथी या परिचित की विशेषताओं के बारे में बता रहे थे जो खूबसूरत गुलदस्तों, उपहारों और दुआओं के साथ उन्हें झुककर सलाम कह रहे थे. हरी दूब के उस बागीचे में गुनगुनी धूप खिली थी और सफेद-घनी दाढ़ी में उनका चेहरा दमक रहा था. उनकी जिंदादिली और हंसी-खुशी हमें आश्वस्त कर रही थी कि वे अभी लम्बे समय तक हमारे बीच रहेंगे. पिछले बाईस साल से कष्टकारी अपंगता का बहादुरी से मुकाबला करते हुए उन्होंने अपना मन-मस्तिष्क सचेत और सक्रिय रखा था. चलने-फिरने से लाचार लेकिन बहुत जीवंत और हमेशा धड़कते हुए.

सितम्बर 1998 में जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर रेडियो स्टेशन का स्वर्ण जयंती समारोह हुआ था. नय्यर साहब को लखनऊ से उस समारोह के लिए विशेष रूप से बुलवाया गया था. वे उस केंद्र के निदेशक भी रह चुके थे. मंच पर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज और फारूख अब्दुल्ला विराजमान थे. उसी मंच से अपना मार्मिक वक्तव्य देते हुए नय्यर साहब को ब्रेन-स्ट्रोक हुआ था. पहले श्रीनगर में आपात चिकित्सा और बाद में दिल्ली के बड़े अस्पताल में इलाज हुआ. सरकार अस्पताल भिजवा देने के बाद भूल गई. बेटी-दामाद ने उनके इलाज और देखभाल में कुछ भी उठा नहीं रखा. जान बच गई लेकिन उनका आधा शरीर निष्क्रिय हो गया. पिछले बाईस साल से वे ह्वील चेयर या बिस्तर पर थे. इसके बावजूद अपने गजब के जीवट से वे हमेशा जीवंत और यथासम्भव सक्रिय बने रहे. उनके पास बैठने और उनको सुनने वाले भी विपरीत हालात में जिंदादिली से जीना सीखते थे.

16-17 साल के थे और रावलपिण्डी (आज का पाकिस्तान) में पढ़ रहे थे जब देश का विभाजन हुआ. परिवार को लाहौर छोड़कर भारत आना पड़ा. वे सहमते और डरते हुए उस मार-काट के बारे में बताते थे और उस इनसानी भरोसे का जिक्र करते हुए उनकी आंखों में चमक आ जाती थी जब विधर्मीया काफिरहोकर भी पड़ोसी एक-दूसरे की जान बचा रहे थे. इन घटनाओं से इंसानियत पर उनका अटूट विश्वास बना. उनकी आंखों के सामने चलचित्र-सा चलता जो उनके शब्दों के जादू से हम भी देख पाते थे. 1958 में वे आकाशवाणी के मुलाजिम बने और दूरदर्शन के अपर महानिदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए. आकाशवाणी के लखनऊ और श्रीनगर समेत कई केंद्रों का निदेशक रहने के दौरान उन्होंने कई रचनातमक और नए काम किए. उनके 90वें जन्म-दिन पर जमा हुए आकाशवाणी के पुराने साथियों ने वह सब खूब याद किया था.

नय्यर साहब रेडियो इण्टरव्यू लेने में उस्ताद थे. आकाशवाणी के लिए उन्होंने पाकिस्तान जाकर मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां से लेकर बेनजीर भुट्टो जैसे कई कलाकारों-नेताओं-खिलाड़ियों के यादगार इण्टरव्यू किए. पृथ्वीराज कपूर, कुमार गंधर्व, राजकुमार, अमिताभ बच्चन, कपिल देव आदि के साथ उनकी बातचीत रेडियो पर खूब सुनी गई. आकाशवाणी के संग्रहालय में आज भी वे साक्षात्कार होने चाहिए, जिन्हें यदि अब तक डिजिटल रूप देकर सुरक्षित नहीं किया गया हो तो अब अवश्य करना चाहिए ताकि नई पीढ़ी साक्षातकार लेने का वह कौशल सीख सके. कहना न होगा कि इन बातचीत में खुद नय्यर साहब की विद्वता और तैयारी आवाज की सघनता के साथ बोलती थी जो सामने वाले का पूरा व्यक्तित्त्व खुलवा लेती थी.

संगीत की उन्हें बड़ी समझ थी और नामी संगीतकारों से बेहतरीन रिश्ते भी. दूरदर्शन के आ जाने के बाद उन्होंने इस माध्यम का खूबसूरत उपयोग किया. पंजाब के आतंकवाद पर 'होश' नाम से बड़ी संवेदनशील टेलीफिल्म बनाई. इत्र उद्योग पर बनी उनकी टेलीफिल्म 'बलखाती खुशबू' सचमुच महकती थी. ऐसी कुछ और यादगार छोटी फिल्में हैं, जिनमें नय्यर साहब की विशिष्ट पहचान बोलती है. दरअसल वे जिस काम को हाथ में लेते थे उसमें डूब जाते थे.  

भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान युद्ध-बंदियों की कुशलता के लिए परिवारीजनों की बेचैनी देखते हुए नय्यर साहब ने आकाशवाणी से एक कार्यक्रम शुरू किया था- खैरियत से हूं’. खुद नय्यर साहब ने पाकिस्तानी युद्ध बंदियों के इण्टरव्यू रिकॉर्ड किए. ये इण्टरव्यू सीमा के दोनों तरफ अत्यन्त उत्सुकता और सराहना के साथ सुने जाते थे. पाकिस्तान में इस कार्यक्रम की बहुत तारीफ हुई थी.  

उनके पास स्मृतियों का अमूल्य खजाना था और उनको सुनना लगभग एक सदी से गुजरना होता था. नूरजहां ने बातचीत के बाद उनसे पूछ लिया था कि आप कहां के रहने वाले हैं. रहता हिंदुस्तान में हूं लेकिन पैदा आपके शहर में हुआ था’- नय्यर साहब का यह जवाब सुनकर नूरजहां का चेहरा खिल उठा था और वे उर्दू छोड़ कर धारा-प्रवाह पंजाबी में बोलने लगी थीं कि उर्दू बोलते-बोलते जुबान पक गई है. मैं तो पंजाबी बोलते के लिए तरस रही थी.फिर नूरजहां बड़ी मुहब्बत से बम्बई और वहां की फिल्मी दुनिया को याद करने लगी थीं.

यह सब बताते हुए नय्यर साहब उन्हीं दिनों में लौट जाते. बेटी-दामाद एवं चंद साथियों ने अच्छा किया कि उनकी यादों की कुछ रिकॉर्डिंग करवा रखी है. कुछ यू-ट्यूब पर भी डाली हैं. योजना तो उनकी यादों की किताब बनाने की भी थी. सोचने और करने के बीच बड़ा फासला बना लेना हमारी कमजोरियां रही हैं. जब नय्यर साहब के पास वक्त था और बहुत कुछ कीमती भी तब हम वक्त को ठगते रहे लेकिन असल में ठगे हम ही गए.       

अब नय्यर साहब के पास फुर्सत नहीं है. हम उन्हें सिर्फ सलाम भेज सकते हैं और इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि ज़वाब में वे अपनी उसी ग़ज़ल का दूसरा शेर सुना देंगे-

दूर जाते हुए कदमों के निशां
आके वो लौट गया हो जैसे.

  
(नभाटा, 18 जनवरी, 2020 में प्रकाशित श्रद्धांजलि का यह तनिक विस्तार है. )  

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