Tuesday, January 07, 2020

जेएनयू में बहा खून देखकर कोई चुप कैसे रह सकता है?



कल शाम से जेएनयू से मिल रही तस्वीरों और खबरों ने रात भर सोने न दिया. ये तस्वीरें बहुत विचलित कर देने वाली हैं. भीतर तक हिला दे रही हैं. छात्र-छात्राओं और अध्यापकों के फटे सिरों से बहता खून इस देश के लोकतंत्र का लहू है.

हमला सिर्फ जेएनयू पर नहीं हुआ है. यह दक्षिणपंथी आंखों में खटकने वाले देश के सर्वश्रेष्ठ शैक्षिक संस्थान पर ही हमला नहीं है. यह भारत के विचार पर, असहमति और विमर्श को पोषने वाले लोकतंत्र पर और देश के संविधान पर भी वहशियाना हमला है.

हाथों में डंडे, सरिया और घातक हथियार लिए हुए, मुंह पर कपड़ा बांधे और मार डालो सालों कोचीखते हुए कैम्पस और हॉस्टल में घूमते, खून-खराबा करते गुण्डे अकेले नहीं थे. उन्हें मूक खड़ी पुलिस का समर्थन था. यह सत्ता-पोषित गुण्डई है, यह बताने के लिए प्रमाण नहीं चाहिए.

महेंद्रा ग्रुप के चेरयमैन आनंद महेन्द्रा ने ठीक ही ट्वीट किया है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी राजनीति क्या है. कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी विचारधारा क्या है. फर्क नहीं पड़ता कि आपका धर्म क्या है. यदि आप भारतीय हैं, तो आप हथियारबंद, गैर-कानूनी गुण्डों को बर्दाश्त नहीं कर सकते. जिन्होंने रात में जेएनयू पर हमला किया उनकी पहचान कर फौरन पकड़ा जाना चाहिए और कोई रियायत नहीं...”

ये हमलावर कौन थे? पुलिस ने उन्हें क्यों नहीं रोका-पकड़ा? उसने जेएनयू के फाटक बंद कर और मूक रहकर हमलावरों को गुण्डई करने के लिए आज़ाद क्यों छोड़ दिया, यह जानना बहुत मुश्किल नहीं है.

पत्रकार आशुतोष का ट्वीट देखिए- “जेएनयू के बाहर एक हिंसक भीड़ है. जितने चेहरे मैं देख पाया उसमें से कोई छात्र नहीं लगा. जैसे ही लाइव रिपोर्टिंग में कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाए, भीड़ ने नक्सली, आतंकवादी कहकर मुझ पर और कैमरामैन पर हमला कर दिया. मेरा कैमरा तोड़ा. माइक छीना. पुलिस चुप थी.”

फिल्म अभिनेत्री सोनम कपूर ने  व्यथा और आक्रोश भरा किया- “अत्यंत क्षोभकारी, विचलित करने वाला और कायरतापूर्ण. अगर निर्दोषों पर हमला करना चाहते हो तो कम से कम अपना चेहरा दिखाने की हिम्मत तो करो.’’

हमलावरों ने चेहरे ढक रखे थे लेकिन उनको पहचानना क्या कठिन है. गुण्डे जो नारे चीख रहे थे, उन पर गौर कीजिए- अरबन नक्सल’, ‘टुकुड़े-टुकुड़े गैंग’, ‘मुगलों की औलाद’, देश के गद्दारों को-गोली मारों सालों.ये किसके नारे हैं? कौन हैं जो पिछले कुछ वर्षों से खुले आम इस तरह चीख रहे हैं? किसी सबूत की आवश्यकता है?

देश की राजधानी में अंतराष्ट्रीय ख्याति वाले विश्वविद्यालय में इतना बड़ा हमला हो गया. प्रोफेसरों समेत कई विद्यार्थी घायल हो गए. योगेंद्र यादव और कई पत्रकारों से भी मारपीट हुई. गुंडों के फोटो, वीडियो सोशल साइट्स पर वायरल हैं और एक भी पकड़ा नहीं गया. क्यों?

दिल्ली पुलिस किसके अधीन है? वह घटनास्थल पर मौजूद थी और मूक खड़ी थी. उसी के सामने हमलावर आराम से निकल गए. किसके इशारे पर? यह समझना क्या मुश्किल है.

कहां हैं स्वत: सज्ञान लेने वाली अदालतें? कहां है सुप्रीम कोर्ट की सजगता-सक्रियता?

और मीडिया? ज़्यादातर चैनल और अखबार कह रहे है- जेएनयू में छात्राओं के दो गुटों में मार-पीट.यह दो गुटों की मारपीट है? पत्रकारिता में विवेक और सच के पड़ताल की कोई जगह नहीं बची?

सच नहीं छुपेगा. दमन से आवाज़ नहीं दबेगी. यह लहू बोलेगा. बीज बनकर उगेगा. इस विविध और विशाल देश की संरचना में ऐसी उर्वरा शक्ति मौज़ूद है.

इसी विश्वास के सहारे बैठने का वक्त लेकिन यह नहीं है. यह देश, लोकतंत्र और संविधान के साथ खड़े होने का सही समय है. भारतीय समाज और उसकी वैचारिक विविधता खतरे में है. बर्बर दक्षिणपंथी सोच वाले लोग सत्ता के गुमान में इस देश की नींव उजाड़ने में लगे हैं. 

(05 जनवरी, 2020 , तड़के 5.30 बजे)


  

     


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