
तब तक उत्तराखण्ड राज्य नहीं बना था.
पर्वतीय विकास विभाग के बड़े बजट से, जिसमें
केन्द्र सरकार का भी अच्छा योगदान होता था, हवाई पट्टी बना
कर उत्तर प्रदेश सरकार उसे भूल चुकी थी. सन् 2000 में उत्तराखण्ड अलग राज्य बन
गया. राज्य बनने के 18 वर्षों में वहाँ कांग्रेस और भाजपा की सरकारें अदल-बदल कर
आती रहीं. कभी-कभार उन्हें इस हवाई-पट्टी की याद आती थी. कभी उसकी मरम्मत और कभी उद्घाटन
की औपचारिकता के साथ शीघ्र विमान सेवा शुरू करने की घोषणाएँ भी हुईं जिन्हें जल्दी
ही भुला दिया जाता रहा. बहरहाल, हवाई पट्टी बनने के दो दशक
से ज्यादा समय बाद नैनी-सैनी से हवाई सेवा शुरू हो गयी.
इस खबर से मन में झंझावात उठने का
सम्बंध बीस साल पहले उस हवाई पट्टी पर खड़े-खड़े देखे गये सपने से है. मैं सोचने लगा
था कि कंक्रीट के जंगल बन गये महानगरों में तमाम शारीरिक-मानसिक व्यथाएँ झेलते
रहने की बजाय हम अपने गाँव ही में रहते. गाँव अच्छी सड़कों से जुड़े होते. हम सुबह
अपनी छोटी कार से या बस सेवा से इस हवाई अड्डे तक आते. हेलीकॉप्टर या विमान से बड़े
शहरों की अपनी नौकरी में जाते और शाम को गाँव वापस लौट आते. गाँव का शुद्ध
हवा-पानी मिलता. अपने खेतों का कीटनाशक-रसायन-विहीन अन्न और शाक-भाजी खाते. सेहत
ठीक रहती और परिवार के साथ जीवन बीतता. शहर भी जनसंख्या के दवाब में चरमारने से
बचे रहते.
पहाड़ी शिखरों तक बढ़िया नेटवर्क होता. हमारे बच्चे इस तेज नेटवर्क के
सहारे दुनिया भर से जुड़े होते. फुर्सत में मैं भी अखरोट या बांज वृक्ष के नीचे बैठ
कर लैपटॉप पर कहानी या लेख लिख लेता और सम्पादकों को ई-मेल कर देता.... साथ आये
स्थानीय मित्रों ने वापस चलने का आग्रह करते हुए उस दिन मेरा स्वप्न भंग कर दिया
था.
इतने वर्षों में वह स्वप्न मैं कभी
भूला नहीं. लखनऊ की चौतरफा अराजकता, घातक
प्रदूषण, अनियंत्रित यातायात, मिलावटी
खान-पान और पत्थर होते आपसी रिश्तों से
त्रस्त मन अक्सर सोचता है कि आखिर मेरा सपना साकार क्यों नहीं हो सकता था. तरक्की
का वही रास्ता हमने क्यों चुना जिसमें शहर विकराल होते गये और गाँवों को लीलते गये?
तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं से गाँवों को विकसित करने की राह क्यों
नहीं चुनी गयी? प्रकृति को बचाते हुए उसकी गोद में सुखपूर्ण
मानव जीवन क्यों सम्भव नहीं था? गाँव में रहते हुए हम शिक्षा,
स्वास्थ्य, रोजगार और टेक्नॉलॉजी की सुविधाएँ
क्यों नहीं पा सके? क्यों भीख माँगने के लिए भी शहरों का रुख
करना पड़ता है? क्यों ऐसा हो गया कि घर के भीतर
एयर-प्यूरीफायर लगाकर फेफड़े बचाने पड़ रहे हैं? खूबसूरत सपने
के बाद हकीकत देख कर मन व्यथा से भर उठता है.
जब पिथौरागढ़ से विमान सेवा शुरू होने
का समाचार पढ़ा तो व्यथा और गहरी हो गयी. पिछले ही साल मैं अपने छोटे बेटे के आग्रह
पर उसे ‘अपना गाँव’ दिखाने ले गया था. पिथौरागढ़ जिले का वह हरा-भरा खूबसूरत दूरस्थ गाँव हमसे
कबके छूट गया. मोटर रोड से साढ़े तीन किमी का पहाड़ी रास्ता पार कर जब हम ‘अपने’ गाँव पहुँचे तो पलायन से उजड़े वीरान या खण्डहर
मकानों ने हमसे लाख उलाहने किये. कभी चहल-पहल से ग़ूँजता गाँव मात्र सात व्यक्तियों
के रहने से किसी तरह जीवित मिला. इन में एक साठ वर्ष से ऊपर और बाकी सत्तर-अस्सी
साल वाले हैं. सीढ़ीनुमा खेतों में फसलें नहीं, कंटीले झाड़-झंखाड़
उगे थे. जंगल फैलते-फैलते मकानों तक बढ़ आये हैं. गाँव के सारे कुत्ते बाघों के पेट
में चले गये. बाघों के डर से गाय-भैंस धूप में भी गोठ से बाहर नहीं बांधे जाते.
बंदरों और जंगली सुअरों के आतंक से क्यारियों में साग-भाजी उगाना भी बंद हो गया.
चार मील दूर राशन की दुकान से गल्ला ढोया जाता है.
हमने बहुत धीरे से अपने मकान का बंद
दरवाजा धकेला था. मकड़ियों के जालों से भरा ‘खोली’
का रास्ता पार कर हम भीतर दाखिल हुए. घर तो वह रहा नहीं लेकिन मकान
की दीवारें, बल्लियाँ और छत के पाथर ठीक-ठाक मिले. भीतर के
कमरे में जहाँ हमारे कुलदेवता का ठीया था, वहाँ स्थापित मेरे
हाथ की नाप की वेदी, जो मेरे यज्ञोपवीत के समय बनायी गयी थी,
मौजूद थी. क्या देवता अब भी वहाँ होंगे? पास
में ही वह थूमी तो साबूत है जिस पर बंधी रस्सी को नचा-नचा कर ईजा ‘नय्यी’ में दही फेंट कर मक्खन बिलोती थी. हथचक्की
पता नहीं कहाँ गयी लेकिन उसकी ‘घर्र-घर्र’ मेरे कानों में गूँजने लगी थी. उसी के साथ बचपन, किशोरावस्था
और जवानी के दिनों की सैकड़ों ध्वनियाँ भी...
“तुम्हारे मकान में नल लगाने वाले
मजदूर रहे. बिजली वाले भी. लीपते थे, चूल्हा
जलाते थे. उस धुएँ से मकान बचा है.” एक बहन ने बताया तो मैं
वर्तमान में लौटा. अच्छा, अब गाँव में बिजली आ गयी है, जब उजाला करने वाले नहीं रहे. घरों तक नल भी आ गये. आधे-अधूरे शौचालय बने
दिखे. मोबाइल का सिग्नल है. यह ‘विकास’ की निशानियाँ हैं. गाँव का उजड़ना किस ‘विकास’ की निशानी है?
लौटने के बाद से गाँव अक्सर मेरे
सपनों में आता है. विमान सेवा शुरू होने के बाद सपने बढ़ गये हैं और दर्द भी. जानता
हूँ, उन विमानों से पर्यटक, प्रवासी तथा अधिकारी उतरेंगे और ‘दौरा’ करके राजधानियों को लौट जाएंगे. उस हवाई पट्टी पर उतरने वालों का गाँवों
से कोई रिश्ता न होगा. समय के साथ विमानों की आवा-जाही बढ़ेगी. उधर, गाँव में हमारा मकान एक दिन चुपचाप ढह जाएगा.
…
नभाटा, मुम्बई, 17 फरवरी, 2019)